सीतामढ़ी (रजनीश के झा)। हरारी दुलारपुर में जारी नौ दिवसीय श्री राम कथा ज्ञानमहायज्ञ के आठवें दिन भरत चरित् के ऊपर प्रकाश डालते हुए पूर्व काॅलेज प्राध्यापक अखिल भारतीय श्रीरामकथावाचक डाॅ. रमेशाचार्य महाराज ने कहा-"पेम अमिअ मंदर बिरहु भरत पयोधि गभीर/मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपा सिंधु रघुबीर।"अर्थात् गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जैसे समुद्र-मंथन के पहले लोगों को समुद्र में छिपे हुए अमृत का ज्ञान नहीं था,ठीक इसी तरह भगवान् श्री राम के वन गमन के पूर्व भरत का व्यक्तित्व लोक-दृष्टि से ओझल था।चौदह वर्ष का वियोग ही वह मंदराचल था जिसे मथानी बनाकर भरत समुद्र का मंथन किया गया तब उसमें प्रेमामृत प्रकट हुआ। बाल्यावस्था से ही भरत के स्वभाव में ऐसी विनम्रता थी जो उन्हें स्वयं को सामने लाने ही नहीं देती थी। श्री भरत जी का मानना है कि राजा प्रजा का सेवक है।प्रजा को प्रभु की थाती मानकर उसकी सेवा में सतत् संलग्न रहना ही सच्चे सेवक का धर्म है।
आगे कथावाचक डाॅ.रमेशाचार्य महाराज ने कहा- भरत ने अयोध्या के ऐश्वर्य और वैभव को राम प्रेम में तिनके के समान समझा।आज जहाँ थोड़े धन के लिए भाई भाई की हत्या करने पर उतारु हो जा रहा है वही भरत उस अपार सम्पदा से अपने को कोसों दूर रखकर एक संन्यासी सेवक की तरह वैभव नगरी अयोध्या से दूर नंदीग्राम में स्वयं को रखते हैं और राज सिंहासन पर राम जी के चरण पादुका को आसीन करते हैं।भरत का राम प्रेम दाम और काम से बड़ा है।भरत पूर्ण वैराग्य से ओतप्रोत हैं।उनके जीवन में धन का कोई महत्व न होकर राम नाम का महत्व परिलक्षित होता है। यह सच है कि भाई हो तो भरत जैसा। ज्ञात हो कि कल हनुमत् चरित ,रावण वध और रामराज्याभिषेक के साथ नौ दिवसीय कथा विराम ले लेगा।आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बौद्धिक प्रमुख सह मंच संचालक रामबाबू ठाकुर ने महाराज श्री का माल्यार्पण किया। उपप्रमुख प्रतिनिधि किशन ठाकुर ने मानस -पूजन किया।
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