दरअसल राहुल गांधी का यह सवाल साबरमती के तट पर बनी पार्टी की भविष्य की रणनीति का ही एक हिस्सा है। अधिवेशन में हुए मंथन के अनुसार कांग्रेस की पुनरुद्धार रणनीति का महत्वपूर्ण पहलू जमीनी स्तर पर एक प्रभावी पार्टी संगठन बनाना है। पार्टी ने घोषणा की कि प्रदेशों में जिला समितियाँ और जिला-स्तरीय नेतृत्व निर्णय लेने और जवाबदेही का आधार बनेंगे। इसी रणनीति के तहत अधिवेशन में राजस्थान के नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली दलित अस्मिता के प्रतीक के तौर पर उभारे गए। जूली के मंदिर में जाने के बाद ‘गंगाजल से शुद्धिकरण’ वाले प्रसंग को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी उठाया। साफ है कि कांग्रेस अब दलित अस्मिता और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को अपने चुनावी अभियान का बुनियादी विषय बनाने की सोच रही है, इसलिए यह संयोग नहीं कि राहुल गांधी ने जिस ब्लॉक अध्यक्ष से सवाल पूछा वो दलित वर्ग से ही है और युवा भी।
देश के सबसे बड़े प्रदेश में सबसे पुरानी पार्टी की कमान की बात अगर पहले पायलट से करें तो उनके पक्ष में अन्य बातों के अलावा महत्त्वपूर्ण मायने रखती है उनकी उम्र। उनकी और गहलोत की उम्र में करीब 26 साल का फासला है। यह एक नई पीढ़ी के बराबर का फासला है। 47 वर्षीय युवा पायलट और 73 वर्ष के अनुभवी गहलोत के बीच पांच वर्ष पहले भले ही मतभेद रहे हों और ये मतभेद पायलट के बागी होने की सीमा तक पहुंच गए हों लेकिन इससे पायलट के राजनीतिक कद में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कांग्रेस के केंद्रीय नेर्तृत्व के लिए वे हमेशा ‘एसेट’ ही रहे। राजस्थान में प्रदेशाध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री पद छिन जाने के बावजूद पायलट ने जिस ख़ामोशी से संयम और गरिमा को बनाए रखा,उससे इनके कद में बढ़ोतरी ही हुई और केंद्रीय नेर्तृत्व ने उन्हें पार्टी का महासचिव बना कर उनके महत्व को स्वीकार भी किया। जातिगत आधार पर भी पायलट जिस गुर्जर वर्ग से आते हैं, उसका राज्य की राजनीति में काफी प्रभाव है। राजस्थान के अलाव गुर्जर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा,हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में बहुत अच्छी संख्या में है और पायलट का ठीक-ठाक प्रभाव भी है। दरअसल राजस्थान में पिछले दो दशकों से गुर्जर समुदाय की राजनीतिक चेतना काफ़ी जागरुक हो गई है। राज्य के भरतपुर, धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, जयपुर, टोंक, दौसा, कोटा, भीलवाड़ा, बूंदी, अजमेर और झुंझुनू जिलों को गुर्जर प्रभाव वाला माना जाता है। राज्य की 30-35 सीटों पर गुर्जर जाति का प्रभाव है। गुर्जर परंपरागत रूप से बीजेपी के साथ माना जाता था पर 2018 के विधानसभा चुनाव में पायलट की वजह से गुर्जर समुदाय का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो गया। 2018 के विधानसभा चुनाव में आठ गुर्जर विधायक सदन पहुंचे थे। सात कांग्रेस के टिकट पर और एक बसपा से जीते। बीजेपी के टिकट पर एक भी गुर्जर उम्मीदवार नहीं जीत पाया। उधर 2023 के विधानसभा चुनावों में पायलट-गहलोत विवाद से गुर्जरों की नाराजग़ी कांग्रेस को काफी भारी पड़ी। इस चुनाव में कांग्रेस के 11 गुर्जर उम्मीदवारों में से तीन ही जीते तो भाजपा के दस में से पाँच। एक उम्मीदवार बसपा का जीता। इस बात को कांग्रेस के रणनीतिकार भी जानते हैं।
राजस्थान में 34 विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति और 25 जनजाति के लिए आरक्षित हैं तो 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर ओबीसी जाति समूहों का खासा प्रभाव है। जाट, माली कुम्हार और कुमावत सहित सभी जातियां अब राजनीतिक रूप से काफ़ी सजग और सचेत हो गई हैं। गुर्जर भी इन्हीं में आते हैं। इन सबमें माली समुदाय अपेक्षाकृत छोटा है। अशोक गहलोत इसी समुदाय से आते हैं। इसी के चलते वे कहते भी रहे हैं कि उनका समुदाय बहुत छोटा है लेकिन उन्हें समाज के हर तबके से स्नेह मिलता रहा है। यह सच भी है कि पिछली विधानसभा में जब उनके पायलट से मतभेद राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बन चुके थे, तब विधानसभा में पायलट के गुर्जर समुदाय से आठ विधायक थे जबकि माली समुदाय से एकमात्र विधायक गहलोत ही थे। कमान के अलावा राजस्थान में लगातार वोट संख्या को लेकर भी कांग्रेस की चिंता और चुनौतियां कम नहीं है। पिछले चार विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस और भाजपा के बीच वोट का अंतर न केवल घटता गया है बल्कि 2023 के चुनाव में तो भाजपा आगे भी निकल गई। गहलोत1998 में पहली बार मुख्यमंत्री बने तो भाजपा और कांग्रेस के बीच का हासिल वोट का अंतर 11.72 प्रतिशत था। दूसरी बार 2008 में मुख्यमंत्री बने तो यह प्रतिशत घटकर 2.55 हो गया और 2018 में जब तीसरी बार मुख्यमंत्री बने तो यह अंतर सिर्फ़ 0.54 रह गया। अब तक कांग्रेस आगे थी लेकिन 2023 के चुनाव में भाजपा कांग्रेस के 39.5 के मुकाबले 41.69 वोट लेकर 2.29 प्रतिशत आगे निकल गई है। ज़ाहिर है, राजस्थान में कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं है। अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा से वोटों का फासला घटते-घटते अब घाटे में चला गया है। ऐसे में कांग्रेस अगर नेर्तृत्व की कमान किसी युवा, जातिगत समीकरणों में समायोजित होने वाले लोकप्रिय नेता के हाथों में देना चाहे तो पायलट ‘अ सूटेबल बॉय’ हो सकते हैं। दूसरी ओर यह भी ठोस यथार्थ है कि इसे अशोक गहलोत के युग का पटाक्षेप मानना जायज़ नहीं होगा। सच यही है कि आज भी कांग्रेस में अनुभव, राजनीतिक कूटनीति विपक्ष के दांवपेंच को समझने में अशोक गहलोत के पासंग कोई नहीं है। उनके समवयस्क अन्य नेताओं में संगठन और सरकार चलाने का ठोस अनुभव और प्रशासनिक क्षमता उतनी नहीं है, जितनी गहलोत ने आधी सदी में अर्जित की है। पांच बार सांसद चार बार विधायक तीन बार प्रदेशाध्यक्ष, तीन बार मुख्यमंत्री रहने के अलावा कई बार केंद्र और राज्य में मंत्री बनने के अलावा उनके खाते में संगठनों की मिली महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी खूब हैं।
वस्तुतः कांग्रेस के पास राजस्थान में नेर्तृत्व के ऐसे दो चेहरे हैं जो उसके पास अन्य राज्यों में नहीं हैं। भविष्य की संभावना के नाम पर सचिन पायलट है जो केंद्र में राज्य मंत्री और महासचिव और प्रदेश स्तर पर अध्यक्ष के अलावा उपमुख्यमंत्री पद संभाल कर अब पर्याप्त अनुभव हासिल कर चुके हैं। दूसरी ओर अशोक गहलोत के रूप में एक ऐसा अनुभवी और ज़मीन से जुड़ा नेता है जिसने अपने छात्र जीवन से लेकर अब तक आधी सदी से भी ज़्यादा समय तक पार्टी को बहुत निकट से देखा-परखा-जाना है। गहलोत राजस्थान के एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने तीनों बार अपना कार्यकाल पूरा किया। 1974 में एनएसयूआई के प्रदेशाध्यक्ष से लेकर 1977 में कांग्रेस के संकटकाल में अपनी मोटरसाइकिल बेचकर पहला चुनाव लड़ चुके गहलोत इस रेगिस्तानी सरहदी प्रदेश के गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी तक पग-पग नाप चुके हैं। कांग्रेस भी इस बात को जानती और मानती है कि गहलोत के रूप में उसके पास एक समृद्ध अतीत और गहरे अनुभव वाला तपा-तपाया नेता है जो देश के किसी राज्य में संकट पैदा होने पर संकटमोचक की भूमिका बखूबी निभाते आए हैं। यह गहलोत की नेर्तृत्व -क्षमता ही थी जिसे महसूस कर सोनिया गांधी ने 2022 में उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में चुन ही लिया था लेकिन स्वयं गहलोत ने इससे किनारा कर सबको चौंका दिया था। इसके बावजूद गांधी परिवार का गहलोत में विश्वास बरकरार है। राज्य में भविष्य का नेर्तृत्व तैयार करने के लिहाज से भले हो राजस्थान की कमान पायलट को सौंप दी जाए लेकिन पार्टी गहलोत के अनुभव, पार्टी के प्रति आधी सदी की प्रतिबद्धता और राष्ट्रीय पहचान के मद्देनज़र उन्हें नज़रंदाज़ नहीं कर सकती। राजस्थान में भले ही उनके युग का पटाक्षेप माना जाए लेकिन केंद्रीय संगठन के लिए वे हमेशा अपरिहार्य बने रहेंगे। सोनिया गांधी के स्वास्थ्य, मल्लिकार्जुन खड़गे की बढ़ती उम्र और राहुल गांधी की अनिच्छुकता के चलते संभव है कि कांग्रेस का अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष देश को राजस्थान से ही मिले। अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस के 140 साल के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब मरुधरा से कोई नेता देश की सबसे पुरानी पार्टी का मुखिया होगा। फिर भी इस बात को ध्यान में रखना होगा कि जो अक्टूबर 2022 में स्वयं अशोक गहलोत ने कही थी - राजनीति ‘गुणा-भाग’ का खेल है, जहां जो दिखता है वो होता नहीं है और जो होता है वो दिखता नहीं है।
हरीश शिवनानी
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार
ईमेल : shivnnihrish@gmail.com
संपर्क : 9829210036


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