इस वर्ष अपैल का महीना भारत के लिए ख़ासा महत्वपूर्ण रहा। ख़ुशी-ग़म, हर्ष-विषाद, मुस्कान और आँसू दोनों नज़रिए से। अभी 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के मौके पर यूनेस्को ने भारतीयता के दो प्रतीक ग्रंथों - श्रीमद्भागवत गीता और नाट्यशास्त्र - को वैश्विक विरासत घोषित करने उल्लास पूरा हो भी न पाया था कि 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले ने विषाद से भर दिया। इन दोनों महत्वपूर्ण घटनाओं के संदर्भ में भारत के बौद्धिक जगत का पूर्वाग्रही और दोहरी मानसिकता का कृष्ण पक्ष एक बार फिर उजागर हो गया है। यूनेस्को से मिली भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा पर जिस रहस्यमय तरीकेसे यह वर्ग उदासीन, ख़ामोश रहा, वहीं आतंकी हमले के बाद एक सुनिश्चित-सी योजना के तहत परोक्ष रूप से आतंकवादियों, आतंकवाद के लिए जिम्मेदार देश के और आतंकवाद के मानसिक समर्थकों के पक्ष में चीख-चीख अपने दोगले चरित्र का परिचय दिया, वो गौरतलब है। यहाँ बात भारत को मिले वैश्विक सम्मान और उनकी चुप्पी की है। संयुक्त राष्ट्र संघ के वैश्विक संघटक संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ( यूनेस्को) ने विश्व धरोहर दिवस पर जो घोषणा की वो भारतवासियों के लिए सामान्य घोषणा नहीं थी। यूनेस्को ने इस वर्ष भारतीयता की अस्मिता और मानव समाज के लिए अद्भुत भेंट ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और ललित कलाओं के अतुल्य ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ को ‘मेमोरी ऑफ़ वर्ल्ड रजिस्टर’ ( विश्व समृति दस्तावेज) में शामिल कर उन्हें वैश्विक सम्मान दिया। भारत भारतवासियों के लिए यह गौरवशाली क्षण था। उन एक ऐसी उपलब्धि रही कि न केवल भारतीय बल्कि विश्व जगत के समूचे बौद्धिक वर्ग ने इस पर प्रसन्नता व्यक्त व्यक्त कर यूनेस्को की इस पहल को सराहनीय बताया। इन सब के बीच भारतीय समाज का ही एक ऐसा वर्ग है जिसने अपने ही देश भारत के इस अंतरराष्ट्रीय सम्मान पर अपने होंठ कसकर सी लिये हैं और हमेशा की तरह एक चुनी हुई चुप्पी धारण कर ली है।
हमारे लिए ये आल्हादकारी गौरव के क्षण के इसलिए नहीं हैं कि इन ग्रंथों को यूनेस्को के विश्व स्मृति दस्तावेज में अंकित किया गया है। वस्तुतः इसकी घोषणा एक ऐसे समय में की गई है जब भारतीय समाज का एक चुना हुआ बौद्धिक वर्ग भारत के स्वर्णिम अतीत, भारतीय प्रज्ञा, उसकी विचक्षण मेधा, उसके ज्ञान-दर्शन-साहित्य सहित समस्त विषयों,अकादमिक अनुशासन,अद्भुत मानवीय कौशल, उसकी विस्मयकारी उपलब्धियों को,यहाँ तक कि एक राष्ट्र के रूप में भारत और भारतीयता के विचार को ही पूरी चेष्टा के साथ नकारने में जुटा रहता है। इतना ही नहीं, इसे लेकर वे पत्र-पत्रिकाओं, विभिन्न मंचों के साथ ही सोशल मीडिया पर पूरे जोर-शोर से नकारात्मक नरेशन (मिथ्या,असत्य, निराधार धारणाएं) गढ़ने और उसे फैलाने में भी सक्रिय हो जाते हैं। यह पहली बार नहीं है। इतिहास साक्षी है जब कभी,कहीं भारतीयता और भारतीय दृष्टि, आस्था, परम्पराओं, मूल्यों,मान्यताओं, स्थापनाओं,धर्म, दर्शन ग्रंथों की चर्चा चलती-निकलती है, उस समय भारतीय बौद्धिक जगत का यह चुना हुआ समूह एक विस्मयकारी चुनी हुई चुप्पी धारण कर लेता है या फिर अपनी पूरी मानसिक, शारीरिक ऊर्जा से उसे नकारने, उसका खंडन करने, उसकी प्रासंगिकता, उसकी सामयिकता, उसकी वैज्ञानिकता खोजने में लग जाता है। ऐसा विशेष कर उस समय, दौर विशेष में होता है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र के लिए गौरव के पल होते हैं। भारत और भारतीयता, भारतीय संस्कृति की चर्चा मात्र निकलने से उसकी ‘प्रश्नाकुल मानसिकता’ कुलबुलाने लगती है, उसका ‘तर्कपूर्ण मस्तिष्क’ एक सीमा तक आते-आते कुतर्कपूर्ण तरीके से उसके मूल्यों को कटघरे में खड़ा करने लगता है। निर्मल वर्मा ने ‘चुनी हुई चुप्पी’ शब्द का प्रयोग भारतीय बौद्धिक जगत की उस खामोशी को उजागर करने के लिए किया था, जो राजनीतिक निहितार्थों, प्रलोभनों और वर्तमान के अलावा भविष्य की कई ‘संभावनाओं’ के मद्देनज़र व्यक्त नहीं की जाती है। इस वर्ग की चुनी हुई चुप्पी या मुखरता के अंतर्विरोध का आलम यह है कि यह समूह कवि किसी हिंसक तामसी परम्पराओं या अमानवीय स्त्री विरोधी रवायतों का खुलकर समर्थन हो नहीं करेगा बल्कि उसमें भागीदार बन कर जश्न मनाते हुए मुबारकबाद भी देगा तो वहीं किसी आस्था से जुड़े सात्विक पर्व की वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़े करेगा। भारतीय बौद्धिक जगत की यह खामोशी लोकतंत्र के लिए स्वस्थ नहीं है। यह सब वो एक राजनीति दृष्टि विशेष से करता है। वस्तुतः यह सब करना छद्म बौद्धिक समूह का बौद्धिक फैशन बन चुका है। वर्तमान में भारत की यह उपलब्धि इस समूह के लिए एक गहरे सदमे से कम नहीं।
राष्ट्रीय विरासत की वैश्विक प्रतिष्ठा के इस गौरवपूर्ण क्षणों में एक निस्पृह चुप्पी, घोर उदासीनता, अजनबियत-सी दृष्टि, रखने वाले कोई समान्य,अपरिचित या गुमनाम लोग नहीं हैं, ये लोग राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले, लिट् फेस्ट, साहित्य उत्सवों, महोत्सवों में दंभपूर्वक शिरकत करने वाले, विभिन्न मंचों के अलावा सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में फॉलोअर्स रखने वाले अपने-आपको वे ‘पढ़ने-लिखने की दुनिया वाला’ घोषित करते हैं। अपने वृत्त के किसी सदस्य की 25- 50 हज़ार रुपए का पुरस्कार मिलने की बात तो छोड़िए, किसी किताब पर साल भर की पाँच-सात हज़ार रुपए की रॉयल्टी मिलने या किसी सामान्य सी पत्र-पत्रिका में कोई कहानी,कविता लेख छपने पर बधाइयों का जो तांता लगता है वो हैरान करने वाला होता। दूसरी ओर एक अंतरराष्ट्रीय संस्था से भारत की धरोहरों को वैश्विक सम्मान मिलने पर भी गहरी खामोशी, विस्मयकारी चुप्पी ! इस वर्ग की चुनी हुई चुप्पी या मुखरता के अंतर्विरोध का आलम यह है कि यह समूह कवि किसी हिंसक तामसी परम्पराओं या अमानवीय स्त्री विरोधी रवायतों का खुलकर समर्थन हो नहीं करेगा बल्कि उसमें भागीदार बन कर जश्न मनाते हुए मुबारकबाद भी देगा तो वहीं किसी आस्था से जुड़े सात्विक पर्व की वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़े करेगा। भारतीय समाज का यह वो बौद्धिक वर्ग है, अपनी संस्कृति, अपने धर्म,अपने राष्ट्र को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। कल्चर से लेकर एग्रीकल्चर, पृथ्वी से लेकर मंगल तक की जानकारी रखने का भ्रम पाले हर सप्ताह-दस दिन पूंजीवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा करने वाले रूसी क्रांति के इन महाविशेषज्ञों के इस समूह पर यूनेस्को की घोषणा वज्र गिरने जैसी है। श्रीमद्भागवत गीता और नाट्यशास्त्र को वैश्विक सम्मान देकर इस अंतरराष्ट्रीय संस्था ने उनके नकारात्मक नरेशन, कुप्रचार को ध्वस्त कर दिया है
ऐसे में हकबकाया-सा यह समूह हमेशा की तरह एक चुनी हुई चुप्पी धारण करके बैठ गया है। इनकी चुप्पी और मुखरता मौके के अनुसार तय होती है। बड़े जतन से और बड़े प्रचार-प्रसार से निर्मित की गई अपनी ‘प्रगतिशील-सेकुलर’ छवि को बनाए रखने के उद्देश्य के कारण यह समूह उस समय भी निर्लज्ज बन गया था, जब मार्च 2001में अफगानिस्तान के बामियान में जब तालिबान ने विशुद्ध मज़हबी कारणों से डेढ़ हज़ार साल पुरानी दो बुद्ध प्रतिमाओं को टैंकों, गोलियों और डायनामाइट से ध्वस्त कर दिया। उस ऐतिहासिक विश्व धरोहर के विध्वंस के बाद भी इस समूह ने रस्मी-तौर पर मिमियाते हुए बुदबुदा कर हल्का-सा विरोध जता दिया और चुप्पी धारण कर ली। आज भी जब यह प्रसंग आता है वे तो टालमटोल कर विषयांतर कर देते हैं। ऐसे ही जुलाई 2020 में तुर्की के इस्तांबुल स्थित छठी शताब्दी के ऐतिहासिक संग्रहालय की मूल पहचान मिटाते हुए इसे मस्जिद में बदल दिया गया तो इस दौरान भी उनमें गहरा सन्नाटा छाया रहा, सब चुप ! जैसे कुछ हुआ ही न हो, लेकिन पिछले साल जब पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय ने धरोहरों को संरक्षित करने के उद्देश्य से ‘एक विरासत अपनाओ’ (एडॉप्ट अ मोन्यूमेंट) की ‘विरासत मित्र’ योजना के तहत जब मोदी सरकार ने दिल्ली के लाल किले के संरक्षण का जिम्मा औद्योगिक घराने डालमिया समूह को दिया तो यही समूह अपनी भाजपा और मोदी विरोधी राजनीति के तहत चीख- चीख कर ‘लाल किला बेच दिया’...’लाल किला पूंजीपति घराने को दे दिया’..” जैसे तथ्यहीन और मिथ्या आरोप लगाने लगा। जबकि वास्तविकता है कि केवल लाल किला ही नहीं, देश के विश्व प्रसिद्ध 21 स्मारक और धरोहरों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, एनजीओ, ट्रस्टों, सोसायटियों को सौंपा गया है ताकि वे अपने सीएसआर फंड के माध्यम से संरक्षित स्मारकों में सुविधाओं का विकास कर सुविधाएं प्रदान कर सकें। समूह ने तथ्यों के विपरीत अपने राजनीतिक दृष्टिकोण से एक बिंदु चुना और उसको लेकर मिथ्या नरेशन गढ़ दिये। ऐसा ही एक दौर यह भी है। भारतीय बौद्धिक वर्ग के इस चरित्र को रेखांकित करते हुए मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ये शब्द बेहद प्रासंगिक लगते हैं - “अंत में,हम अपने शत्रुओं के शब्दों को नहीं, बल्कि अपने मित्रों की चुप्पी को याद रखेंगे।"
हरीश शिवनानी
स्वतंत्र लेखन- पत्रकारिता
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