उच्चतम न्यायालय ने न्यायपालिका, सीजेआई पर 'निंदनीय' टिप्पणी के लिए निशिकांत दुबे को लगाई फटकार - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 8 मई 2025

उच्चतम न्यायालय ने न्यायपालिका, सीजेआई पर 'निंदनीय' टिप्पणी के लिए निशिकांत दुबे को लगाई फटकार

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नई दिल्ली (रजनीश के झा)। उच्चतम न्यायालय ने भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की उसके और प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ की गई टिप्पणियों की निंदा करते हुए कहा कि ये ‘‘दुर्भावनापूर्ण’’ हैं और शीर्ष अदालत के अधिकार को कमतर करती हैं। शीर्ष अदालत ने एक तरह से हाल की राजनीतिक बहस को समाप्त कर दिया कि कौन सर्वोच्च है, संसद या न्यायपालिका। प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा, ‘‘यह संविधान ही है जो हम सब से ऊपर है। यह संविधान ही है जो तीनों अंगों में निहित शक्तियों पर सीमाएं और प्रतिबंध लगाता है। न्यायिक समीक्षा का अधिकार संविधान द्वारा न्यायपालिका को प्रदान किया गया है। इसलिए, जब संवैधानिक न्यायालय न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, तो वे संविधान के ढांचे के भीतर कार्य करते हैं।’’ दुबे ने वक्फ अधिनियम के खिलाफ याचिकाओं की सुनवाई करने के लिए शीर्ष अदालत पर निशाना साधते हुए कहा था कि “उच्चतम न्यायालय देश को अराजकता की ओर ले जा रहा है” और “देश में हो रहे गृहयुद्धों के लिए प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना जिम्मेदार हैं”। पीठ ने कहा, ‘‘साथ ही, हमारा यह दृढ़ मत है कि अदालतें फूलों की तरह नाजुक नहीं हैं जो ऐसे बेतुके बयानों से मुरझा जाएं।’’ पीठ ने पांच मई को दुबे के खिलाफ उनकी टिप्पणी को लेकर अवमानना ​​कार्रवाई संबंधी याचिका पर सुनवाई की थी और कहा था कि संशोधित वक्फ कानून के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई उसने ही की थी। हालांकि पीठ ने याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन बृहस्पतिवार को उपलब्ध कराये गये अपने आदेश में उसने भाजपा सांसद के खिलाफ तीखी टिप्पणियां कीं। पीठ ने कहा कि ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं है’’ कि दुबे के बयान ‘‘भारत के उच्चतम न्यायालय के अधिकार को कमतर और बदनाम करने वाले हैं, या इस न्यायालय के समक्ष लंबित न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखते हैं’’। पीठ ने कहा, ‘‘हमारी राय में, टिप्पणियां बेहद गैरजिम्मेदाराना थीं और भारत के उच्चतम न्यायालय और इसके न्यायाधीशों पर आक्षेप लगाकर ध्यान आकर्षित करने की प्रवृत्ति को दर्शाती हैं।’’ इसने कहा कि इन टिप्पणियों के जरिये न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने और बाधा डालने की प्रवृत्ति नजर आती है। इसने कहा कि बयानों में प्रधान न्यायाधीश को “भारत में हो रहे सभी गृहयुद्धों के लिए जिम्मेदार” बताते हुए पीठ पर आरोप लगाने की स्पष्ट मंशा को दर्शाया गया है और कहा गया है कि “इस देश में धार्मिक युद्धों को भड़काने के लिए केवल और केवल उच्चतम न्यायालय ही जिम्मेदार है।” अदालत ने कहा कि सांसद की टिप्पणी संवैधानिक अदालतों की भूमिका तथा संविधान के तहत उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों और दायित्वों के बारे में उनकी अज्ञानता को दर्शाती है। 


आदेश में कहा गया है, ‘‘हम नहीं मानते कि इस तरह के बेतुके बयानों से जनता की नजरों में अदालतों के प्रति भरोसे और विश्वसनीयता को कोई झटका लग सकता है, हालांकि यह बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि ऐसा प्रयास जानबूझकर किया जा रहा है।’’ हालांकि, शीर्ष अदालत ने माना कि किसी आदेश के तर्क या यहां तक कि उसके परिणाम का आलोचनात्मक विश्लेषण और वस्तुनिष्ठ आलोचना संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के तहत संरक्षित है। सांसद के खिलाफ वकील विशाल तिवारी द्वारा दायर जनहित याचिका को खारिज करने के अपने फैसले को उचित ठहराते हुए पीठ ने कहा, “न्यायाधीश विवेकशील होते हैं।” पीठ ने कहा, ‘‘अदालतें स्वतंत्र प्रेस, निष्पक्ष सुनवाई, न्यायिक निडरता और सामुदायिक विश्वास जैसे मूल्यों में भरोसा करती हैं। इसलिए, अदालतों को अवमानना ​​की शक्ति का सहारा लेकर अपने निर्णयों का बचाव करने की आवश्यकता नहीं है। निश्चित रूप से, न्यायालयों और न्यायाधीशों के कंधे काफी चौड़े हैं और उनमें पूर्ण विश्वास है कि लोग समझेंगे और पहचानेंगे कि आलोचना पक्षपातपूर्ण, निंदनीय और दुर्भावनापूर्ण है।’’ इसने कहा कि लोकतंत्र में राज्य की प्रत्येक शाखा, चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका हो, विशेषकर संवैधानिक लोकतंत्र में, संविधान के ढांचे के भीतर कार्य करती है। पीठ ने कहा कि न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति से वंचित करना संविधान को फिर से लिखना और उसे नकारना होगा। पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि हम वर्तमान रिट याचिका पर विचार नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सांप्रदायिक नफरत फैलाने या अभद्र भाषा का प्रयोग करने के किसी भी प्रयास से सख्ती से निपटा जाना चाहिए।’’ पीठ ने कहा कि घृणास्पद भाषण बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, क्योंकि इससे लक्षित समूह के सदस्यों की गरिमा और आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचता है और समूहों के बीच वैमनस्य बढ़ता है।

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