- नब्बे साल पहले प्रकाशित समाचार को लेकर हिंदी साहित्य जगत में उद्वेलन
इन्हें गरीब रहना और गरीब दिखना ही चाहिए। हिंदी का यह लेखक ‘गुमनामी में मरा’ और ‘कृतघ्न हिंदी समाज’ ने उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया; ये त्रासदी से भरा झूठ पीढ़ियों से हिंदी के साहित्यिक समाज के बौद्धिकों को इतना प्रिय रहा है की आज तक किसी ने इस तथ्य को पलटकर देखने की कोशिश तक नहीं की। अब जब उस दौर के महत्वपूर्ण समाचार-पत्र के आधार पर शुक्ल ने एक नया तथ्य उजागर किया है तो हिंदी के स्वयंभू मठाधीशों को असहनीय पीड़ा हो रही है।
इस बात को साहित्य-संस्कृति से जुड़ी नई पीढ़ी अच्छी तरह जान चुकी है कि हिंदी साहित्यिक समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दुख का कारोबार करता है, जो हर दिन ये बताना चाहता है की हम और हमारे लेखक तो बड़े महान हैं मगर हिंदी पाठक बड़ा कृतघ्न है। ‘हमारे पिता ने / हमने बहुत-बहुत गरीबी में दिन बिताए हैं।’ वामपंथी मध्यवर्गीय सोच का यह प्रिय वाक्य रहा है। यह कहते-लिखते हुए वह बार-बार ‘दुःख के दागों को तमगों-सा पहना…’ दोहराता है। लेखक का ग़रीब होना और उपेक्षित रहना इतना ज़रूरी बना दिया गया है कि लोकप्रिय होने,आभिजात्य जीवन शैली जीने, अच्छा खाने-पीने, ओढ़ने-बिछाने को हमारे यहाँ ‘अपराध’ माना जाने लगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमृत राय ने अपने पिता प्रेमचंद की जीवनी लिखते हुए उनकी ऐसी बेचारी छवि जानबूझकर गढ़ी थी? क्योंकि वे तो वहाँ मौजूद थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों लिखा? जब उनके सामने नंददुलारे वाजपेयी की किताब उपलब्ध थी तो परिपूर्णानन्द वर्मा की किताब ‘बीती यादें’ कैसे याद नहीं आई, जिसमें वे कहते हैं कि उनकी अंतिम यात्रा में वे स्वयं व कई अन्य लेखकों सहित जाने माने साहित्यकार जयशंकर प्रसाद सहित शहर के सैकड़ों गणमान्य लोग उपस्थित थे।
हालांकि यह बात भी गौरतलब है कि ‘क़लम का सिपाही’ अंततः एक पुत्र द्वारा लिखी जीवनी है और शायद इसीलिए उसका पूर्णतः वस्तुपरक न होना अस्वाभाविक नहीं। संभव है कि उस दौर के किशोरवय के अमृत राय के अवचेतन मन-मस्तिष्क में अपने पिता की छवि के अनुसार उनकी अंतिम यात्रा में विशाल हुजूम उमड़ने की आकांक्षा हो; लेकिन उनकी जीवनी लिखते समय वे भूल गए कि यह जीवनी घर के लिए नहीं, सार्वजनिक वितान के लिए होगी। वर्ष 1962 के आते-आते परिपक्व वामपंथी हो चुके अमृत राय ने अपनी विचारधारा की प्रवृत्तियों के अनुरूप जीवनीकार के रूप में इन बातों का भरसक ध्यान रखा है कि प्रेमचन्द के जीवन की तस्वीर से हमें उनकी अनुकृति या व्यक्ति-चित्र नहीं बनाना है बल्कि उनकी छवियां गढ़ते हुए उन सब छवियों को अपने मुताबिक स्थापित भी करना है।
बावजूद इसके, अमृत राय ने अगर मणिकर्णिका घाट पर प्रेमचन्द के अंतिम दर्शनार्थ उपस्थित साहित्यिकों का उल्लेख नहीं किया, तो इससे उनकी लिखी जीवनी ‘अशिव, अशोभन और मिथ्या’ नहीं कही जा सकती और न ही ‘उसकी विश्वसनीयता तार-तार’ हो जाती है। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि अमृत राय ने प्रेमचंद की एक विशेष छवि गढ़ने में पूरी ऊर्जा लगा दी। ‘क़लम का सिपाही’ में बहुत से ऐसे प्रसंग मिलेंगे जब प्रेमचंद को लाचार और बेचारा बताया गया है। प्रो. कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद के निजी, पारिवारिक जीवन और आर्थिक स्थिति के बारे में गोयनका ने बरसों तक संधान करके कई मिथ्या मिथकों का तथ्यों सहित उनकी गढ़ी गई छवि का भंजन किया लेकिन हिंदी के स्वयंभू प्रगतिशील वामपंथी आलोचकों ने बिलबिला कर उन्हें ‘हिन्दुत्ववादी’ घोषित कर ख़ारिज कर दिया।
गोयनका ने प्रेमचंद के साहित्य और जीवन में अनेक नए तथ्य दिए किंतु उस वर्ग ने उसे मानने से इनकार ही नहीं किया बल्कि उन्हें अपमानित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस वर्ग की जड़ता का आलम यह है कि प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में प्रेमचंद के बारे में काफी कुछ ऐसा लिखा कि उसे भी वे स्वीकार नहीं कर पाते।
अब समय आ गया है कि इसे दुर्भाग्यपूर्ण मिथकों से हिंदी-संसार बाहर निकले। ऐसी मिथ्या और दयनीय सर्वानुमतियाँ ही आलोचकीय निकष नहीं हो सकतीं। अब जब मिथक टूट रहे हैं तो पिछले ‘इकोसिस्टम’ के ‘आलोचकों’ को सचाई पर शक़ हो रहा है ?
वरिष्ठ कवि उदयन वाजपेयी ने महत्वपूर्ण बात कही है कि प्रेमचन्द जी की ग़रीबी केवल वही नहीं है, उसे बहुत मेहनत से साहित्यिक मूल्य बनाया गया है। इसी मूल्य के आधार पर हिन्दी आलोचना के श्रीकांत वर्मा जैसा अपने महान कवि को हाशिए पर डाल देने जैसे कई आत्मघाती उपक्रम सम्भव हो सके। ‘आज’ की यह खबर और उस पर शुक्ल की व्याख्या के आलोक में हमें अपने दो धेले के बायोडेटावादी आलोचना-मूल्यों पर दोबारा विचार करना चाहिए।
किसी नामी साहित्यकार की अंतिम यात्रा में कम लोग आएं तो इसके कई कारण हो सकते हैं। उसके बावजूद वह नामी साहित्यकार नामी ही रहेगा। लेकिन किसी तात्कालिक मुद्रित प्रमाण से तथ्य का पता चले कि कहीं पर कम लोग नहीं थे, तो इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच या उस पर विवाद क्यों ? यह नव तथ्य का संधान है, संख्या या मात्रा को स्थापित करने की ज़िद नहीं। इसे स्वीकार करना होगा। व्योमेश शुक्ला ने नया तथ्य रखा है वो न केवल महत्त्वपूर्ण है बल्कि ऐतिहासिक भी है। जैसा कि वरिष्ठ लेखिका गरिमा श्रीवास्तव ने कहा है कि शुक्ल ने सभी बातें ससंदर्भ कही हैं। साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की प्रक्रिया विकसनशील होती है, होनी चाहिए। उन्होंने इतिहास प्रमाणित एक तथ्य रखा। इसे निजी शोधकर्ता का काम है तथ्यों को ढूँढ लाना जिसे पुनराविष्कार भी कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में भावुकता का स्थान कम ही होता है।
दरअसल इतिहास इसी तरह से बनता-बिगड़ता रहता है। एक नया तथ्य सामने आता है और पुरानी अनेक धारणाएँ खंडित हो जाती हैं, इतिहास का नया पाठ तैयार होने लगता है। शुक्ल ने अपने तथ्य का सूत्र ‘आज’ के समाचार से लिया है। ‘आज’ अपने समय का महत्वपूर्ण और विश्वनीय समाचार- पत्र था। उसके स्वामी शिव प्रसाद गुप्त और संपादक बाबू विष्णुराव पराड़कर की साख और समाज में महत्व असंदिग्ध था। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को लेकर आज भी ‘आज’ की मिसालें दी जाती हैं।
यह भी गौरतलब है कि एक वेबपोर्टल पर नब्बे वर्ष पहले गुजरे प्रेमचंद पर आए एक आलेख पर सोशल मीडिया पर हुई व्यापक बहस और चर्चा हिंदी समाज के व्यापक विवेक और जीवंत सांस्कृतिक चेतना की दस्तावेज है। इससे यह तथ्य भी उजागर होता है कि हिंदी जगत का एक इकोसिस्टम अब भी अपनी रूढ़ और फैंटेसीनुमा रोमांटिसिज़्म से बाहर आने को तैयार नहीं कि सत्य का एक दूसरा आयाम भी हो सकता है।
शुक्ल के नए संधान पर आपत्ति, आलोचना, असहमति के लिए परंपरागत प्रगतिशील खेमे ने तथ्यात्मक, सत्यात्मक तर्क गढ़ने की बजाए फिर ‘ब्राह्मणवाद’, ‘प्रतिक्रियावादी’, ’भगवावादी’ जैसे रूढ़ और भोथरे औजारों के साथ सनातनी, हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों का भी नकारात्मक उपयोग किया। बेहतर होता वे वाद-विवाद की बजाए संवाद का रास्ता अपनाते तो उनकी धूमिल हो चुकी छवि कुछ विश्वसनीयता उत्पन्न करती। राजनीति की तरह साहित्य में भी वामपंथी विचारधारा घिस कर अप्रासंगिक हो चुकी है।
यह हिन्दी की नई पीढ़ी का दायित्व है कि देश-विदेश के पुस्तकालयों और अभिलेखागारों में प्रेमचंद विषयक सामग्रियों को खोजें, उन्हें खंगाल कर उनका सम्यक, वस्तुपरक, यथार्थ विश्लेषण करे और वहां से अपनी कहानी शुरू करें जहां अमृत राय का वृतांत समाप्त होता है या उन प्रसंगों को उजागर करें जिन्हें उनके आलोचकों ने अभी नहीं छुआ है। नए साक्ष्य और सिद्धांत के आलोक में पूर्ववर्ती स्थापनाओं का पुनर्मूल्यांकन भी आवश्यक है। ज्ञान परंपरा का हर साधक उपलब्ध शोध सामग्रियों में अपने नए प्रश्नों के उत्तर ढूंढता है तथा ज्ञान के क्षितिज को नूतन विस्तार देता है। अंतिम सत्य यही है कि प्रेमचंद जैसे युगदृष्टा लेखक की अंतिम यात्रा न तो उपेक्षित थी और न ही हिंदी समाज ने उनकी स्मृति की उपेक्षा की है। प्रेमचंद आज भी स्मरणीय हैं। उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर आज भी प्रासंगिक है।
डॉ.हरीश शिवनानी
ईमेल : shivnaniharish@gmail.com
मोबाइल : 9829210036
राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक,सामाजिक और पर्यावरण विषयों पर लेखन. संप्रति जोधपुर में निवास।

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