जो ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता करते थे, अब खुद ज़मीन तलाश रहे हैं. या यूं कहे कभी देश के कोने-कोने से उठने वाली लोकध्वनि मानी जाने वाली आंचलिक और छोटे समाचारपत्रों की आज हालत दयनीय है। वे जिनकी स्याही में गांव, गली और कस्बे की समस्याएं दर्ज होती थीं, आज गुमनामी के गर्त में समा रहे हैं। कॉरपोरेट मीडिया के विस्तार और डिजिटल मीडिया की आंधी ने जैसे इनकी सांसें ही रोक दी हों। बड़े मीडिया हाउस जहां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरों की चकाचौंध में लिपटे हैं, वहीं छोटे अखबार ही वो थे जो ‘बिजली नहीं आ रही’, ‘गांव में डॉक्टर नहीं’, ‘पंचायत में घोटाला हुआ है’ जैसी खबरों को महत्व देते थे। ये आम जन की आवाज थे। आज वे या तो बंद हो चुके हैं या फिर किसी तरह अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं. मतलब साफ है छोटे समाचारपत्र कोई “छोटा माध्यम“ नहीं, बल्कि लोकतंत्र के उन खंभों में से हैं जो जनता और सत्ता के बीच सेतु का काम करते हैं। अगर ये अखबार बंद होते रहे, तो हम एक ऐसा भारत खो देंगे जो गांव से बोलता था, मिट्टी से सांस लेता था और जनता के दर्द को स्याही में दर्ज करता था। अब भी वक्त है, जागिए, नहीं तो अगली पीढ़ी को हम सिर्फ “पुराने लोकल अख़बारों की कहानियां“ ही सुनाते रह जाएंगे
अब नहीं बनते गांव की समस्याएं मुद्दे
सीनियर पत्रकार हरेन्द्र उपाध्याय कहते है कभी उत्तर प्रदेश की धरती पर पत्रकारिता सिर्फ लखनऊ, प्रयागराज या वाराणसी तक सीमित नहीं थी। गाँव-देहात, कस्बे, तहसीलें, हर जगह अपनी एक आवाज़ थी, जिसे छोटे-छोटे अख़बारों ने पन्नों पर उतारा। इसे ही कहते हैं आंचलिक पत्रकारिता, और इसका दौर वास्तव में स्वर्णकाल था। भोजपुर से लेकर बलिया, देवरिया से लेकर गोंडा तक, ऐसे सैकड़ों अख़बार निकले जिन्होंने “विकास“, “जन सरोकार“, “गांव की सच्चाई“ और “प्रशासनिक जवाबदेही“ को अपनी स्याही बनाया। गोरखपुर में ’अंचल संदेश’ ये सिर्फ नाम नहीं, जनता की आत्मा का प्रतिबिंब थे। लेकिन ऐसे छोटे अख़बारों को न कोई कॉर्पोरेट फंडिंग मिलती थी, न विज्ञापन की लाइन लगती थी। रिपोर्टर एक पुरानी डायरी में नोट्स लेता था, पन्ने प्रेस में खुद सेट करता था, और फिर साइकल से बाँटने निकलता था। वो पत्रकार सिर्फ खबरें नहीं, अपनी आत्मा भी छाप रहा होता था। गांव में बिजली आई या नहीं, राशन की दुकान पर गड़बड़ी, प्रधान का भ्रष्टाचार, सरकारी स्कूल में मास्टर की गैरहाज़िरी, नहर टूटी, फसलें सूख गईं जैसे मुद्दे को लेकर जहां बड़े अख़बार या चैनल नहीं पहुंचते थे, वहां ये पत्र सत्य की मशाल बनते थे। इन अख़बारों की एक प्रति पूरे गांव में घूमती थी। लोग अखबारों को संभालकर रखते थे, पंचायतों में सबूत के रूप में पेश करते थे, और बहुत बार इन्हीं खबरों पर प्रशासनिक कार्रवाई होती थी। एक वाकया याद आता है, बलिया के ’जन संदेश’ में एक बीडीओ की भ्रष्टाचार की रिपोर्ट छपी, जिसके बाद जिलाधिकारी ने संज्ञान लेकर जांच बैठाई और अधिकारी निलंबित हुआ। इन अख़बारों में काम करने वाले पत्रकार भले तनख्वाह न लें, लेकिन उन्हें सम्मान जरूर मिलता था। गांव का बुज़ुर्ग उनके पैर छूता था, प्रधान उनसे डरता था, और एसडीएम तक जवाब देता था, सिर्फ इसलिए क्योंकि पत्रकारिता जनता की नज़र थी। आज जो गांवों की समस्याएं सरकारी फ़ाइलों में भी दर्ज नहीं हैं, वे छोटे अख़बारों के संग्रहालयी पन्नों में मौजूद हैं। ये पन्ने सिर्फ खबरें नहीं, समय के गवाह हैं. कहने का अभिप्राय यह है कि आंचलिक पत्रकारिता का स्वर्णकाल वो था जब पत्रकार “टीआरपी“ नहीं, “सच्चाई“ के लिए लिखता था। जब खबरें बिकती नहीं थीं, बनती थीं। और जब अख़बार सिर्फ सूचना नहीं, आत्मा का दस्तावेज़ हुआ करता था। अब जबकि ये परंपरा संकट में है, हमें उस स्वर्णकाल की याद इसलिए ज़रूरी है, ताकि हम ये समझ सकें कि क्या खोने जा रहे हैं... और क्यों इसे बचाना ज़रूरी है।क्यों उजड़ रहा है आंचलिक पत्रकारिता का आंगन
आंचलिक पत्रकारिता का वह स्वर्णकाल अब बीते दिनों की बात हो चला है। आज उत्तर प्रदेश से लेकर देश भर के छोटे समाचारपत्र अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। यह संकट महज़ आर्थिक नहीं, बल्कि नीति, तकनीक और पाठक प्रवृत्ति से उपजा एक बहुआयामी हमला है। उत्तर प्रदेश में सूचना विभाग और डीएवीपी द्वारा दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों में छोटे पत्रों के लिए लगभग शून्य-सी स्थिति बन गई है। इसकी बड़ी वजह कठोर मान्यता नियम (उच्च प्रसार संख्या, रंगीन छपाई, ऑनलाइन संस्करण आदि) है. प्रशासनिक लापरवाही व स्थानीय अधिकारियों की अनदेखी, बड़े मीडिया घरानों की लॉबिंग का परिणाम है कि छोटे अखबार या तो विज्ञापन के लिए हाथ पसारते हैं या बंद हो जाते हैं। बड़े समाचार समूहों ने डिजिटल विस्तार, मोबाइल ऐप, मल्टीप्लेटफॉर्म रिपोर्टिंग से पूरा परिदृश्य अपने कब्जे में ले लिया है। स्थानीय खबरों पर भी अब बड़े ब्रांड का मोनॉपॉली है। यानी अब गांव के पटवारी की घूसखोरी की खबर लखनऊ से तय होती है कृ वह भी तब, जब सोशल मीडिया में वायरल हो जाए। इससे खबरें “स्थानीय“ नहीं रह जातीं, मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं और छोटे अखबार अप्रासंगिक हो जाते हैं. प्रिंटिंग प्रेस, पेज सेटिंग, स्याही और डिस्ट्रीब्यूशन का खर्च इतना बढ़ गया है कि अब एक हफ्ते में छपने वाला 8 पेज का स्थानीय पत्र भी घाटे का सौदा बन गया है। जबकि सरकार और पाठक, दोनों की नजर में वही मीडिया “प्रासंगिक” है जो डिजिटल है। लेकिन गांव-कस्बों में चल रहे छोटे समाचारपत्र डिजिटल ट्रांजिशन का खर्च नहीं उठा पा रहे। वेबसाइट बनवाना, मोबाइल ऐप लॉन्च करना, सोशल मीडिया टीम रखना : ये उनके लिए सपने जैसे हैं। नतीजतन, उनकी रिपोर्ट डिजिटल स्पेस में कहीं नहीं दिखती। इन छोटे पत्रों के पत्रकार आज भी गांव में बिना हेलमेट रिपोर्टिंग करते हैं। छोटे अखबारों का संकट सिर्फ एक इंडस्ट्री का संकट नहीं, बल्कि सूचना की लोकतांत्रिक संरचना का संकट है। जब समाचार सिर्फ बड़े शहरों और ब्रांडेड रिपोर्टरों तक सीमित रह जाएंगे, तब देश का वो आम नागरिक जिसकी कोई हेडलाइन नहीं बनती, वह हमेशा अनसुना ही रह जाएगा। छोटे समाचारपत्रों को अब सामुदायिक मॉडल की ओर बढ़ना होगा : सब्सक्रिप्शन आधारित अभियान के तहत गांव या मोहल्ला स्तर पर वार्षिक सदस्यता योजना चलाई जाए, हर पाठक 100 रुपये में गांव की आवाज़ बचाए जैसे नारे के साथ। पाठकों की शिकायत, रचना, या फोटो को स्थान देकर ‘लोक-अखबार’ के रूप में खुद को फिर से परिभाषित करें। “पत्रकारिता क्लब“ शुरू करवाए जाएं
स्थानीय पत्रकारिता को युवाओं से जोड़ने के लिए स्कूलों में “पत्रकारिता क्लब“ शुरू करवाए जाएं। इससे भविष्य का पाठक और रिपोर्टर दोनों तैयार होगा। डिजिटल सिर्फ खतरा नहीं, एक मौका भी है। मुफ्त ब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म (जैसे डमकपनउ, ॅवतकच्तमे, ैनइेजंबा) पर स्थानीय खबरें प्रकाशित की जा सकती हैं, यूट्यूब, फेसबुक पेज, व्हाट्सऐप चैनल जैसे माध्यमों का सही प्रयोग कर छोटे पत्रकारों की पहुंच बढ़ सकती है. मुफ्त वीडियो टूल और मोबाइल से शूटिंग सीखकर कोई भी रिपोर्टिंग कर सकता है कृ अब स्टूडियो की ज़रूरत नहीं। जवाहरलाल नेहरू पत्रकारिता संस्थान, काशी विद्यापीठ, गोरखपुर विश्वविद्यालय जैसे संस्थान स्थानीय पत्रकारों के लिए ‘डिजिटल पत्रकारिता कार्यशाला’ शुरू करें. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया या राज्य प्रेस बोर्ड ग्रामीण मीडिया प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएं. अंतरराष्ट्रीय एनजीओ व मीडिया संस्थाएं ब्ैत् के तहत इन्हें सपोर्ट करें. नीतिगत पहलकदमी के सुझाव (सरकार को भेजे जा सकते हैं) : ₹1-5 लाख तक के “ग्राम पत्रकारिता अनुदान“ की योजना, “लोक मीडिया सम्मान“ के अंतर्गत हर जिले में एक सक्रिय ग्रामीण अखबार को पुरस्कृत करना, ब्लॉक स्तर पर पत्रकारों की एक रजिस्टर्ड यूनियन को मान्यता और प्रतिनिधित्व देना. क्योंकि छोटे समाचारपत्र अगर बंद हुए, तो नुकसान सिर्फ कुछ प्रेस और पन्नों का नहीं होगा बल्कि हम अपनी जड़ों, अपनी लोकभाषा, और अपने असली लोकतंत्र से कट जाएंगे। लेकिन अगर समय रहते समाज और सरकार ने मिलकर इन्हें संभाल लिया, तो यह गांव की आवाज़, लोक की ताकत, और सत्य की स्याही दोबारा चमक सकती है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी




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