पर्यावरण केवल ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं करता, वह जीवन की रीढ़ है। फिर भी एक औसत मानव अपने जीवनकाल में फर्नीचर, किताबें, कागज़, घर, ईंधन, पैकिंग सामग्री और रोज़मर्रा की उपभोक्ता वस्तुओं में मिलाकर लगभग 60 पेड़ों के बराबर लकड़ी या कागज़ की सामग्री का उपयोग करता है। अगर फैशन और फर्नीचर के बढ़ते ट्रेंड को देखें तो यह आंकड़ा 100 तक पहुँचता है। यानी एक व्यक्ति, जिसे ज़िंदा रहने के लिए सात पेड़ चाहिए, वह अपने जीवनकाल में दस गुना अधिक पेड़ नष्ट कर देता है। यानी हम सिर्फ प्रकृति से उधार नहीं ले रहे, हम उसे कर्ज में डुबो रहे हैं,और वो भी बिना लौटाने के इरादे के। पेड़, जो बिना मूल्य के हमें छांव, हवा, फल, पानी का संरक्षण और जीवन देते हैं उनके बदले हम उन्हें कुल्हाड़ी, कंक्रीट और उपेक्षा देते हैं। विकास के नाम पर हर दिन भारत में औसतन 1350 हेक्टेयर जंगल काटे जा रहे हैं, जबकि वनीकरण की दर उससे कहीं कम है। शहरीकरण, सड़क निर्माण, औद्योगिकीकरण और खनन के कारण देश ने पिछले 30 वर्षों में लगभग 15% प्राकृतिक वन क्षेत्र खो दिया है। यह नुकसान केवल पेड़ों का नहीं, बल्कि उस पारिस्थितिकी तंत्र का है जिसमें लाखों प्रजातियाँ बसती थीं ,पक्षी, कीट, जानवर और हम जैसे इंसान भी। लेकिन सवाल उठता है ,क्या हम इस सच्चाई को समझते हैं? शायद नहीं। क्योंकि अगर हम सचमुच समझते, तो हर घर में पौधारोपण एक अनिवार्यता होता, हर निर्माण से पहले हरियाली की योजना बनती, और हर स्कूल में “पेड़ लगाना” शिक्षा का हिस्सा होता,सिर्फ “प्रोजेक्ट” नहीं..!
हमारे शहरों में तापमान लगातार बढ़ रहा है, जल संकट गहराता जा रहा है, हवा में ज़हर भरता जा रहा है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल, लखनऊ जैसे शहरों की AQI (Air Quality Index) कभी भी ‘सुरक्षित’ स्तर पर नहीं रहती। यह सब सिर्फ प्रदूषण नहीं, पेड़ों की कमी का भी परिणाम है। क्योंकि पेड़ केवल ऑक्सीजन नहीं देते, वे ज़हर को छानते भी हैं। आज जब हम विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं, तो केवल भाषणों से नहीं, कर्मों से साबित करना होगा कि हमें पर्यावरण की चिंता है। हर नागरिक को यह समझना होगा कि पर्यावरण मंत्रालय, वन विभाग, या NGO अकेले इस युद्ध को नहीं जीत सकते। अगर आपको सांस लेना मुफ्त पसंद है, तो पेड़ लगाना, पेड़ बचाना, और पेड़ों को सम्मान देना आपकी जिम्मेदारी है। यह कोई 'ग्रीन एक्टिविज़्म' नहीं, यह जीवन रक्षा का मूल मंत्र है। एक पौधा लगाकर आप किसी की सांसों को स्थायी सुरक्षा देते हैं। हर कटे पेड़ के लिए आप जब तक दस नहीं लगाएँगे, तब तक यह संतुलन बहाल नहीं होगा। क्योंकि प्रकृति बहुत कुछ सहती है, पर जब उसका हिसाब आता है तो वह महज़ रिपोर्ट कार्ड नहीं, जीवन की सजा बनकर सामने आती है।कोरोना काल भी उस भयावहता की नजीर ही रहा जहाँ हम धन की पोटली से सांसे खरीदते नजर आये। इस विश्व पर्यावरण दिवस पर सिर्फ नारे मत लगाइए। अपने हिस्से के पेड़ लगाइए। और जो पहले काटे, उनकी भरपाई कीजिए। क्योंकि यह लड़ाई आपकी अगली पीढ़ी की साँसों की है।
बृजेश सिंह तोमर
(वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरणविद एवं चिंतक))

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