भारतीय लोकतंत्र के चार स्तंभों में पत्रकारिता को ‘लोकतंत्र का प्रहरी’ माना गया है। यह प्रहरी जब सत्ता से सवाल करता है, जब प्रशासन की खामियों को उजागर करता है, जब जनहित की बात करता है, तभी वह लोकतंत्र को जीवित रखता है। लेकिन क्या यह प्रहरी अब निशाने पर है? क्या पत्रकारों के खिलाफ बिना जांच के मुकदमा दर्ज कर देना पत्रकारिता की स्वतंत्रता का गला घोंटने जैसा नहीं है? आज यह सवाल इसलिए जरूरी है क्योंकि देशभर में कई पत्रकारों के खिलाफ ऐसे मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, जिनकी न तो गहरी जांच होती है, न ही पत्रकार का पक्ष सुना जाता है। सीधे मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है, जैसे पत्रकार अभिव्यक्ति के अपराधी हों। यह प्रवृत्ति न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह हमारे संविधान की आत्मा के खिलाफ भी है
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और प्रेस काउंसिल के दिशा-निर्देश के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट का “ललिता कुमारी वी. स्टेट आफ उत्तर प्रदेश.” (2013 - 14) में मुख्य निर्णय है कि यदि जानकारी एक संज्ञेय अपराध (काग्निजेबिल आफेंस) की ओर संकेत करती है, तो पुलिस अधिकारी को तत्काल एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है; जांच (प्रिमिलीनरी इंक्वायरी) की कोई छूट नहीं है। यदि दी गई जानकारी संज्ञेय अपराध का स्पष्ट संकेत नहीं देती, लेकिन रुचि पैदा करती है, तभी 7 दिनों के अंदर प्राथमिक जांच की जा सकती है। जांच का उद्देश्य केवल यह निर्धारित करना है कि क्या संज्ञेय अपराध हुआ है; किसी तथ्यों की सत्यता की गहराई से पड़ताल नहीं करनी चाहिए। यदि प्राथमिक जांच में संज्ञेय अपराध स्पष्ट होता है, तब एफआईआर दर्ज करनी ही होगी। यदि जांच के बाद मामला बंद होता है (प्राथमिकी जांच), तो एक सप्ताह के अंदर केस डायरी में बंद होने और कारण का विवरण दर्ज किया जाना चाहिए और सूचना देने वाला व्यक्ति उसे प्राप्त करे। ऐसी जानकारी को जनरल/स्टेशन डायरी में दर्ज करना अनिवार्य है। यदि जिम्मेदार अधिकारी एफआईआर दर्ज करने में असफल रहता है, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है; जानकारी मिलने पर एफआईआर दर्ज न करना दायित्व की नाकामी मानी गई. जबकि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई) के दिशा-निर्देश के मुताबिक पीसीआई की जिम्मेदारी है पत्रकारों के लिए उच्च नैतिक मानदंड तय करना, साथ ही उनकी कार्य स्वतंत्रता की रक्षा करना। पीसीआई लगातार यह रेखांकित करता है कि पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई प्रतिशोधपूर्ण या मनगढ़ंत न हो। यदि कोई पत्रकार अपने पेशेगत कर्तव्यों का पालन कर रहा है, तो उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले सुनवाई और उचित जांच की सिफारिश की जाती है (हालांकि यह कानूनी बाध्यता नहीं है, लेकिन नैतिक व संस्थागत गंभीरता रखता है)। जब जानकारी एक संज्ञेय अपराध का संकेत देती है पुलिस को तुरंत एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है (सीआरपीसी,154)।
जब जानकारी में स्पष्ट अपराध का संकेत नहीं होता पुलिस 7 दिनों के भीतर प्राथमिक जांच कर सकती है; यदि अपराध पक्का हो, तो एफआईआर दर्ज करना होगा, नहीं तो जांच बंद करना होगा और कारण बताए जाएं। पत्रकारों के प्रति संवेदनशीलता बरतने की आवश्यकता होती है, क्योंकि उनके काम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(एं)) शामिल है। आईपीसी, सीआरपीसी में ऐसा कोई विशेष अधिनियम नहीं है जो पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले स्वचालित छूट देता हो, लेकिन संवेदनशील और सार्वजनिक हित में रिपोर्टिंग होने पर प्राथमिकी दर्ज करने से पहले जांच और सुनवाई जरूरी मानी जाती है. यह दृष्टिकोण सुप्रीम कोर्ट की प्रवृत्ति और पीसीआई के दिशा-निर्देशों से उपजा है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अनुसार, किसी भी संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी होती है। लेकिन वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश’ मामले में स्पष्ट कर दिया था कि हर केस में तुरंत एफआईआर दर्ज करना जरूरी नहीं है। कुछ मामलों में प्राथमिक जांच करना अनिवार्य है, ताकि यह पता चल सके कि अपराध वास्तव में हुआ भी है या नहीं। पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे अक्सर ऐसे ही होते हैं जहां या तो जानबूझकर रिपोर्टिंग को अपराध साबित करने की कोशिश होती है या किसी प्रभावशाली व्यक्ति के दबाव में पुलिस तुरंत कार्रवाई कर देती है। ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार जांच के बिना मुकदमा दर्ज करना न केवल कानून की अवहेलना है, बल्कि संविधान की मूल भावना के भी विरुद्ध है।
संविधान क्या कहता है?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(एं) हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। पत्रकार इसी अधिकार के बल पर सत्ता से सवाल करते हैं, प्रशासन की जवाबदेही तय करते हैं, और जनता की आवाज बनते हैं। अगर पत्रकारों को उनके काम के लिए डराया जाएगा, मुकदमे में फंसाया जाएगा, तो यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन होगा। यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की जड़ों पर प्रहार होगा। क्या पुलिस को पत्रकारों के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए? के जवाब में स्पष्ट है, हां, पुलिस को बेहद सतर्क रहना चाहिए। पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से पहले यह देखना चाहिए कि क्या पत्रकार ने पेशेवर दायरे का उल्लंघन किया है? क्या रिपोर्टिंग में तथ्यात्मक गलती है या जानबूझकर झूठ फैलाया गया है? क्या मामला जनहित से जुड़ा है? बिना इन बिंदुओं की जांच किए एफआईआर दर्ज करना सिर्फ शक्ति प्रदर्शन और प्रतिशोध का जरिया बन जाता है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भी लगातार कहती रही है कि पत्रकारों की स्वतंत्रता में अनावश्यक हस्तक्षेप लोकतंत्र को कमजोर करता है। कोई भी पुलिसिया कार्रवाई करने से पहले यह देखना अनिवार्य है कि मामला प्रतिशोधात्मक तो नहीं है। पत्रकार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करना अंतिम विकल्प होना चाहिए, न कि पहला कदम।
पत्रकारों की मांग
यह सवाल कई बार उठता है कि क्या पत्रकार अपने लिए विशेष कानून चाहते हैं? सच्चाई यह है कि पत्रकार सिर्फ संविधान में दिए गए अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा चाहते हैं। वे सिर्फ यह चाहते हैं कि उनसे भी वही प्रक्रिया अपनाई जाए, जो किसी सामान्य नागरिक के साथ होनी चाहिए : न्याय, निष्पक्षता और पारदर्शिता। जब सत्ता से सवाल करना अपराध बन जाए, जब सच्चाई उजागर करना दंडनीय हो जाए, तब लोकतंत्र खोखला हो जाता है। पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले तथ्यात्मक जांच और पत्रकार का पक्ष सुनना न केवल कानूनी जिम्मेदारी है, बल्कि लोकतंत्र की नैतिक जिम्मेदारी भी है। अगर हम इसे नजरअंदाज करते हैं तो हम धीरे-धीरे प्रेस की स्वतंत्रता को खो देंगे और लोकतंत्र की आत्मा पर पर्दा
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी

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