नागपंचमी पर काशी में होता है दिव्य नागलोक का साक्षात्कार, जहां शेषावतार पतंजलि की तपस्थली आज भी करती है रहस्यमयी जलधारा से चमत्कारी संवाद। वैसे भी काशी का नागकूप केवल एक प्राचीन मंदिर नहीं, बल्कि वह सांस्कृतिक सेतु है जो हमें पौराणिक अतीत से जोड़ता है। यहां नागपंचमी पर श्रद्धा की जो लहर उमड़ती है, वह यह दर्शाती है कि सनातन परंपरा में आज भी जीवों, प्रकृति और अदृश्य शक्तियों के प्रति श्रद्धा और सामंजस्य जीवित है। इस नागपंचमी पर यदि आपके जीवन में कोई बाधा है, भय है, कालसर्प दोष है या किसी अनजाने डर से मन विचलित रहता है, तो काशी के नागकूप में एक बार श्रद्धा से सिर झुकाइए। हो सकता है आपको भी पाताललोक से आती एक जलधारा के रूप में समाधान मिल जाए जी हां, नागपंचमी पर उमड़ती है श्रद्धा की लहर, पतंजलि की तपस्थली से झरती है नागलोक की जलधारा
देवों के देव महादेव की नगरी काशी में नाग पंचमी के दिन काल भैरव, नागकुवा, नागेश्वर महादेव, महेश्वरनाथ, वासुकिनाथ और अन्य प्रमुख मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है। साथ ही, संपूर्ण सावन के दौरान चल रहे कांवड़ यात्रा और शिवालयों में हो रहे जलाभिषेक के बीच नाग पंचमी का उत्सव भक्तिभाव और आस्था के चरम पर पहुंच जाता है। इस दिन भगवान शिव के गण माने जाने वाले नागों की पूजा की जाती है. भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है। इस दिन नागदेवता की पूजा करने और रुद्राभिषेक करने का खास महत्व होता है। इस दिन नागदेवत को दूध और लावा चढ़ाकर उनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग व्रत भी करते हैं। कहते है जिन लोगों की कुंडली में कालसर्प दोष या फिर राहु-केतु से संबंधित कोई दोष हो तो नाग पंचमी के दिन नाग देवता की पूजा जरूर करनी चाहिए. कहा जाता है कि ऐसा करने से सर्पदंश की रक्षा होती है। साथ ही आपके घर से सांप के काटने का भय भी दूर हो जाता है। नाग पंचमी की अनोखी मान्यताएं काशी में आज भी जीवंत हैं। मान्यताओं और परंपराओं के इस मेले में आज भी बड़ी संख्या में आस्थावानों का जमघट होता है। मान्यतय है कि यह कुंआ पाताल लोक से जुड़ा है। इस कुए को नागों का घर भी कहा जाता है। श्रद्धालुओं की मानें तो तक्षक नाग इसी कुएं में निवास करते है। दावा है कि यहां के दर्शन मात्र से ही काल सर्प दोष ठीक हो जाता है। अकाल मृत्यु का कारण खत्म हो जाता है। बता दें, श्रावण शुक्ल पंचमी को मनाया जाने वाला नागपंचमी पर्व केवल एक पौराणिक तिथि नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की गहराई में उतरने का अनूठा अवसर है। विशेषकर काशी नगरी में यह पर्व जीवंत हो उठता है, जहां नागकूप को पाताल लोक का प्रवेश द्वार माना जाता है, नागराज तक्षक का वास आज भी आस्था का केंद्र है और जहां पतंजलि ऋषि की अद्भुत परंपरा में आज भी शास्त्रार्थ की गूंज सुनाई देती है। यह स्थान न केवल मान्यताओं का केंद्र है, बल्कि चमत्कारी अनुभवों का प्रतीक भी है, जहां कालसर्प दोष से मुक्ति, अकाल मृत्यु से रक्षा और दिव्य कृपा की अनुभूति संभव मानी जाती है।
लोक आस्था और धर्मशास्त्र का अद्भुत संगम
नागपंचमी का पर्व भारतवर्ष में हजारों वर्षों से मनाया जाता रहा है। इस दिन नागों की पूजा की जाती है, विशेषकर उन आठ नागों की, जिनका वर्णन पुराणों में भी मिलता है, उनमें अनन्त, वासुकि, तक्षक, शंखपाल, पद्म, महापद्म, कर्कोटक और कुलिक प्रमुख है। इन्हें सृष्टि के संतुलन, वर्षा के नियंत्रण, और पाताललोक की शक्तियों से जोड़कर देखा जाता है। नागपंचमी पर नागों को दूध, दूब, कुशा, अक्षत, चंदन और लावा चढ़ाया जाता है। यह दिन केवल सांपों की पूजा नहीं, बल्कि पर्यावरण संतुलन, जीव मात्र के प्रति करुणा और भारतीय ऋषि परंपरा के प्रतीक नागों की दिव्यता का उत्सव है।
पाताललोक का रहस्यमयी द्वार
वाराणसी के नागकूप मंदिर को लोकमान्यता में नागलोक का प्रवेशद्वार माना गया है। मान्यता है कि यहां की भूमि के गर्भ में आज भी नागलोक से जलधारा फूटती है, जो विशेष अवसरों पर सतह पर दिखाई देती है। मंदिर का यह प्राचीन कुंड सदियों से श्रद्धालुओं और शोधकर्ताओं दोनों को आकर्षित करता रहा है। यहां नागों की स्वयंभू प्रतिमाएं, और विशेषकर नागपंचमी के दिन स्वतः सक्रिय होती जलधारा, इसे अद्भुत बनाती है। काशी के संत और पंडित बताते हैं कि कई बार कुंड से निकलने वाला जल दूध या हल्का चंदनयुक्त रंग लिए होता है, जिसे नागलोक की कृपा माना जाता है।
पतंजलि ऋषि की तपोभूमि और योग परंपरा
नागकूप वही पावन स्थल है, जहां शेषनाग के अवतार माने जाने वाले महर्षि पतंजलि ने तपस्या की थी। उन्होंने यहीं पर योगशास्त्र, आयुर्वेद और संस्कृत व्याकरण पर अपने अमूल्य ग्रंथों की रचना की थी। मान्यता है कि नागों की कृपा से ही उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। श्रद्धालु आज भी नागकूप में पतंजलि की गुफा के दर्शन कर तप का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। नागपंचमी के दिन यहां विशेष पूजन, दुग्धाभिषेक और शास्त्रार्थ समारोह आयोजित होते हैं। मंदिर के पुजारी का कहना है कि एक बार नागराज तक्षक वाराणसी संस्कृत की शिक्षा लेने आएं। लेकिन उन्हे गरुण देव से भय था जिसकी वजह से वह बालक रूप में बनारस आएं। गरूण देव को इस बात का पता चल गया कि तक्षक बनारस में है और उन्होंने उस पर हमला कर दिया। हालांकि अपने गुरू का प्रभाव होने के नाते गरुण देव को तक्षक नाग को अभय दान देना पड़ा। महर्षि पतंजलि के इस तपोस्थली का उल्लेख स्कंद पुराण में है। महर्षि पतंजलि शेषावतार भी माने जाते हैं। नाग पंचमी पर हर साल उनकी जयंती इस स्थान पर मनाई जाती है। जयंती पर नागकुआं पर शास्त्रार्थ का आयोजन होता है। मान्यता है कि नाग पंचमी के दिन स्वयं महर्षि पतंजलि सर्प रूप में आते हैं और बगल में नागकूपेश्वर भगवान की परिक्रमा करते हैं। इसके बाद शास्त्रार्थ में बैठते हैं और शास्त्रार्थ में शामिल विद्वानों और बटुकों पर कृपा भी बरसाते हैं। इस अनादि परंपरा को जीवंत पर्व के दिन बनाया जाता है।
कालसर्प दोष मुक्ति का विशेष केंद्र
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जिन जातकों की कुंडली में कालसर्प दोष होता है, उनके जीवन में बाधाएं, भय, और अकाल मृत्यु की संभावनाएं बनी रहती हैं। नागकूप में नागपंचमी के दिन विशेष पूजा कर कालसर्प दोष की शांति कराई जाती है। पंडितों के अनुसार, यहां पूजा कराने से दोषमुक्ति का प्रभाव तत्काल अनुभव होता है। इस दिन विशेष ताम्रपत्रों, नागनागिन की मूर्तियों, और मंत्रोच्चारण से नागदेव को संतुष्ट कर जीवन में समृद्धि, सुख और आरोग्यता की कामना की जाती है।
विज्ञान और आस्था का मिलन
कई लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि सांप दूध नहीं पीते, फिर भी यह परंपरा क्यों है? उत्तर यही है कि यह केवल दूध पिलाने का आयोजन नहीं, बल्कि त्याग और सेवा का प्रतीक अनुष्ठान है। भक्त दूध अर्पण कर नागों के प्रति सम्मान और संरक्षण भावना प्रकट करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह भी माना गया कि वर्षा ऋतु में सांपों के बिलों में जल भरने पर वे बाहर आते हैं और अक्सर लोगों के संपर्क में आते हैं। इसलिए इस दिन उन्हें दूध पिलाकर शांत करने और उन्हें हानि न पहुंचाने का संदेश समाज को दिया जाता है।
पर्यावरण संरक्षण का सनातनी प्रतीक
भारत में नाग को केवल पूजनीय जीव नहीं, बल्कि वन्य जीवन और जैव विविधता के रक्षक के रूप में देखा जाता है। गांवों में लोग खेतों की रक्षा के लिए नाग देवता की मूर्ति स्थापित करते हैं। नागपंचमी का पर्व समाज को सांपों की रक्षा और उनके संरक्षण का भी संदेश देता है।
पूजा विधि और मान्यता
नागपंचमी के दिन सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पंचोपचार विधि से नागदेवता की पूजा करें कृ दूध, कुशा, दूब, चंदन, पुष्प और अक्षत से अर्घ्य दें। मन में यह भाव रखें कि “नाग रक्षा करें, कल्याण करें, भय से मुक्ति दें।” काशी में इस दिन विशेष भोग : दूध, बताशा, खीर, तिल के लड्डू नागों को अर्पित कर परिवार की सुरक्षा की कामना की जाती है।
पौराणिक मान्यताएं
नागकूप के बारे में कहा जाता है कि पाताल लोक जाने का रास्ता है। इस कूप के अंदर सात कूप है। इस कुंए की गहराई 100 फीट है। सिर्फ नागपंचमी के मौके पर ही दर्शन होता हैं। शास्त्रार्थ परंपरा युगों पुरानी वैदिक कालीन परंपरा से जुड़ी ळें माना जाता है कि पूरी दुनिया में केवल तीन ही जगह कालसर्प दोष की पूजा होती है, उनमें यह नाग कुआं पहले स्थान पर है। कुआं के अंदर शिवलिंग हमेशा पानी में डूबा रहता है। नागपंचमी के दिन होने वाले मेले से पहले पंप द्वारा कुएं का सारा पानी बाहर निकाला जाता है। उसके बाद उसमें जो शिवलिंग स्थापित है उसका श्रृंगार व पूजा-पाठ करके वापस रख दिया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद अपने आप एक घंटे में कुआं वापस भर जाता है। पानी आने का रहस्य आज भी बना है। कूप निर्माण को लेकर बताया जाता है, इसका जीर्णोद्धार संवत एक में किसी राजा ने करवाया था। इस हिसाब से इसका समयकाल लगभग 2074 साल पुराना है। इस कूप में पानी कहां से आता है यह रहस्य आज भी बरकरार है। अंदर कूप की दीवारों से पानी आता रहता है। सफाई के लिए दो-दो पम्पों का सहारा लेना पड़ता है। इसके चारों तरफ सीढ़िया हैं। नीचे कूप के चबूतरे तक पहुंचने के लिए दक्षिण से 40 सीढ़ियां, पश्चिम से 37, उत्तर और पूरब की ओर दीवार से लगी 60-60 सीढ़ियां हैं। इसके आलावा कूप में शिवलिंग तक उतरने लिए 15 सीढ़ियां हैं। कूप में दक्षिण दिशा ऊंची है, जिसमें 40 सीढ़ियां हैं, जो प्रमाणित करती है यह कूप पूरी तरह वास्तुविधि से बना है।
शिव के गले के हार तो विष्णु की शय्या
भगवान शिव के गले का हार नाग वासुकी हैं। वहीं जगत के पालनहार भगवान विष्णु भी नाग की शय्या पर शयन करते हैं। इसके अलावा विष्णु की शय्या बनें शेषनाग पृथ्वी का भार भी संभालते हैं। मान्यता है कि नाग भले ही विष से भरे हों लेकिन वह लोक कल्याण का कार्य अनंत काल से करते आ रहे है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, महाभारत में राजा जनमेजय ने अपने पिता राजा परीक्षित की मृत्यु का बदला लेने के लिए नागों का नरसंहार करने के लिए यज्ञ शुरू किया था. ऋषि आस्तिक ने नागों को बचाने के लिए यज्ञ रोकने में सफल रहे. जिस दिन ये यज्ञ रुका वो दिन पंचमी तिथि था, जो आज नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है.
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी



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