- आँचल को परचम, चुप्पी को दहाड़ कब बनाएगी स्त्री ?
पटना कांड में जिस 'नई धारा ' संस्था के राइटर्स रेजिडेंसी का प्रसंग बताया जा रहा है,उसकी परम्परा बहुत समृद्ध रही है। ‘नई धारा’ पत्रिका और संस्था से प्रतिष्ठित लेखक राजा राधिका रमण सिंह का संबंध है। बिहार की पहली महिला आईपीएस इस परिवार से ही हैं। इस पत्रिका का गौरवशाली इतिहास रहा है, लेकिन जो बातें उसके राइटर्स रेजिडेंसी के लेखक के बारे में सामने हैं, उसमें संस्था की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। यह बात अब सार्वजानिक वितान में आ ही चुकी है कि रेजिडेंसी में हिंदी के एक स्त्री-द्वेषी, अभद्र और आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए बहुचर्चित, चिरविवादित वरिष्ठ कवि लेखक ने रेजिडेंसी में रह रही एक युवा कवयित्री के साथ अभद्र,अश्लील, आपत्तिजनक हरकत की है। जिसके बाद काफी बवाल मचा और अंत में कवयित्री के कड़े विरोध के बाद वरिष्ठ कवि को वहाँ से बेआबरू होकर निकलना पड़ा। राइटर्स रेजिडेंसी के कर्ता-धर्ताओं ने माना है कि यहाँ लिखी गई कृष्ण-पटकथा वास्तविक है, कपोल कल्पित नहीं। प्रकरण का क्लाइमेक्स यह है पटकथा की सर्वाइवर और उत्पीड़क के बीच चालीस बरस का फ़ासला है। कवयित्री उसकी बेटी से भी छोटी है। इस भदेस प्रकरण से हिंदी साहित्य की दुनिया में भी उबाल ला दिया है। हर तरफ़ से लानत-मलानत होने के साथ ही वरिष्ठ कवि के सार्वजनिक, साहित्यिक बहिष्कार की मांग करने के साथ जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच से कड़ी भर्त्सना की गई है तो राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने उसे संगठन से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। इन सबके बावजूद महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि समाजिक, नैतिक और सबसे बढ़कर विधिक रूप से अपराध की श्रेणी में आने वाले कृत्य के आरोपी के ख़िलाफ़ कानूनी कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे? पुलिस में मामला दर्ज क्यों नहीं करवाया जा रहा है ? स्त्री-मुक्ति के डंडों से पितृसत्तात्मकता के ख़िलाफ़ ढोल पीटने वाली स्वयं कवयित्री और उसकी समर्थक स्त्रीवादी कवि-लेखक समाज उसके माफ़ीनामे लिखने या रेजिडेंसी से निकल जाने पर ही क्यों समझौता कर बैठे? इसके बाद ‘नई धारा’ संस्था ने जो वक्तव्य जारी किया है वो भी लीपापोती करने वाला ही है। उत्पीड़क के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई के संबंध में अब तक चुप्पी ही पसरी हुई है। इन चुप्पियों ने ही पितृसत्तात्मकता को स्त्री को डुबोने का हथियार थमाया है।
गौरतलब तो यह है कि पटना की घटना की सर्वाइवर किसी गांव-देहात या कस्बे की घूंघट या पल्लू ओढ़े बैठी रहने वाली कोई परंपरागत महिला नहीं, शहर की आधुनिक उच्च शिक्षित, आधुनिक, निर्बंध जीवन शैली जीने वाली हिंदी-अंग्रेजी साहित्य की अध्येता है। इस अभद्र प्रकरण में इस चुप्पी का समर्थन करने वाले-वालियों के भी अपने ‘तर्क’ हैं। सोशल कंडीशनिंग की तरह बड़े जतन से पनपाए गए कुछ प्रलोभन, कुछ भय भी स्त्री को कानूनी कदम उठाने से रोकते हैं- “तुम्हें प्रसिद्ध कवयित्री-लेखिका बना देंगे, वो बहुत पावरफुल है, करियर बिगाड़ देगा, देख लो, शादी-ब्याह में दिक्कत सकती है.. इसलिए बात यहीं ख़त्म कर दो…जो हुआ, सो हुआ.. उसने माफ़ी मांग ली न, सॉरी बोल दिया न..अब छोड़ो !” इन्हीं भावों को लेकर अनेक स्त्रियां कानूनी या सार्वजनिक रूप से आरोपी ‘सर जी’ को उजागर करने से डरती हैं। अधिकांश तो अपने लेवल पर ही प्रकरण खत्म कर लेती हैं। कभी चुप रहकर, कभी सामने वाले व्यक्ति से सम्बन्ध तोड़ कर, कभी माफ़ी मंगवाकर। यहां परिवार की मजबूरी, बाहर घूमने की आज़ादी पर रोक, वर्षों तक अदालतों के थकाऊ घनचक्कर भी कारण होते हैं। यौन हिंसा का मामला इतना सीधा नहीं है। एक स्त्री को जीवन में एक बार नहीं,कदम कदम पर इन घटनाओं का सामना पड़ता है। पुरुष उस ट्रॉमा को कभी समझ नहीं सकते, जिससे किसी पीड़ित स्त्री को गुजरना होता है। यह किसी एक घटना से नहीं होता। एक स्त्री का जीवन चाहिए पितृसत्तात्मक समाज में शुरू से अंत तक ट्रॉमेटिक होता है। दरअसल हिंदी साहित्य और समाज की संरचना विक्टिम ब्लेमिंग नहीं, सत्ता के अनुरूप रंग बदलती है। बरसों से क्रांति की अलख जगाने वाले, व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने का फ़तवा जारी करने वाले क्रांतिकारी हिंदी लेखक ऐसे किसी मसले पर एकजुट नहीं हो सकते। ऐसे समय में क्रांति की मशाल बुझ जाती है। यह कौन-सा भय है जो ग़लत को ग़लत, दुराचारी को दुराचारी कहने से इन क्रांतिकारियों को रोकता है l ऐसे क्रांतिकारी संगठन मंचों पर, सोशल मीडिया पर दम तो भरते हैं सत्ता से, सरकार से लड़ने का, व्यवस्था उखाड़ फेंकने का, लेकिन अपराधी को सरेआम बेनक़ाब करने का वक़्त आते ही चुप्पी मारकर पीछे खिसक जाते हैं। असली क्रांति तो यह है कि पीड़िता को मुखर होकर पुलिस में मामला दर्ज करवा कर कथित कवि को अदालत तक घसीटना चाहिए। विक्टिम ब्लेमिंग अब गुज़रे ज़माने की बात हो चुकी है। उनकी चुप्पी उत्पीड़क ‘वरिष्ठ साहित्यकार’ को बढ़ावा ही देगी। इस प्रसंग ने समाज और साहित्यिक जगत को आत्म-आलोड़न और आत्म चिंतन का एक अवसर दिया है। ऐसे किसी भी मामले को अंजाम तक पहुंचाना भी एक सामाजिक, साहित्यिक जवाबदेही मानी जानी चाहिए। कोई भी मामला किसी सार्वजनिक वितान पर आकर व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक हो जाता है उसके बाद यह मामला आपसी नहीं रह जाता। यह अवश्य है कि प्राथमिकता में व्यक्तिगत निजता की सुरक्षा का पूरा ध्यान हो। हमारे बौद्धिक जगत की विसंगति यह भी कम नहीं कि हिंदी के साहित्यिक घेरे में जाति और रंग भेद को तो बेहद गंभीर माना जाता है लेकिन स्त्री विद्वेष या यौन हिंसा, यौन आक्रमण को हल्के में ले लिया जाता है, उसे अपने अपने टोले के नफ़े-नुकसान,अपने राजनीतिक हितों,भविष्य की ‘संभावनाओं’ के मुताबिक तौला जाता है। उसे सहन ही नहीं किया जाता बल्कि ऐसा करने वालों को पुरस्कृत भी किया जाता है, सम्मानित किया जाता है, उसके ‘ऑरा’ उसके ‘पावर स्ट्रक्चर’ को मजबूत किया जाता है। और प्रकारांतर से ऐसा परिवेश जिसमें उत्पीड़न आसान और सुरक्षित हो जाता है। अगर इस उत्पीड़क व्यवस्था से मुक्ति पानी है तो यह माहौल अब बदलना होगा। हो गई पीर पर्वत-सी, अब पिघलनी चाहिए, अब आँचल को परचम बना ही लेना चाहिए। यह वक़्त चुप्पी साधने का नहीं, मुखर हो कर दहाड़ने का वक़्त है।
हरीश शिवनानी
(वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)
ईमेल : shivnaniharish@gmail.com
मोबाइल : 982920036

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