पटना : प्रतीकों की राजनीति: जब एसटी राष्ट्रपति नीचे और ओबीसी प्रधानमंत्री ऊपर दिखे - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 3 जुलाई 2025

पटना : प्रतीकों की राजनीति: जब एसटी राष्ट्रपति नीचे और ओबीसी प्रधानमंत्री ऊपर दिखे

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पटना, (आलोक कुमार). भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सभी वर्गों, जातियों और समुदायों को समान अवसर और सम्मान देने की बात करता है. संविधान का उद्देश्य सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना और प्रतिनिधित्व की विविधता को बनाए रखना है.परंतु कई बार सार्वजनिक स्थानों पर लगाए गए पोस्टर, कटआउट या सजावटें अनजाने में ही सही, इस मूल भावना के उलट प्रतीक बन जाती हैं. हाल ही में एक तस्वीर सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी, जिसमें देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, जो कि अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe – ST) समुदाय से आती हैं, उनका स्वागत पोस्टर नीचे दिख रहा है, जबकि उनके ऊपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो कि अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Class – OBC) से आते हैं, की बड़ी कटआउट ऊपर लगी है. यह दृश्य सामान्य रूप से देखने में एक आयोजन का हिस्सा लग सकता है, लेकिन यह दृश्य सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से एक बड़ी विडंबना को उजागर करता है. भारत में राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है. प्रधानमंत्री कार्यपालिका का प्रमुख होते हुए भी राष्ट्रपति के अधीन होता है, क्योंकि राष्ट्रपति ही भारतीय गणराज्य के प्रमुख हैं. फिर सवाल उठता है — जब कोई राष्ट्रपति किसी शहर में आती हैं, तो क्या उनका सम्मान इस तरह “नीचे” दिखाना उचित है?


यह दृश्य एक तरह से उस मानसिकता को भी दर्शाता है जो अनजाने में ही सही, सत्ता के प्रतीकों को जाति और पद की मर्यादा से ऊपर रख देती है.यह केवल एक आयोजन की चूक नहीं है, बल्कि यह विजुअल हाइरार्की (visual hierarchy) के माध्यम से समाज में गहराई से बैठे पूर्वग्रहों को उजागर करता है. द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं. उनका चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए गर्व का विषय रहा है.वह समाज के उस वर्ग से आती हैं जिसे दशकों तक मुख्यधारा से बाहर रखा गया. उनके राष्ट्रपति बनने को सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया.लेकिन जब ऐसे दृश्य दिखते हैं, जहाँ उनके पद की गरिमा को प्रतीकों में भी उचित स्थान नहीं दिया जाता, तब सवाल उठना स्वाभाविक है.


यह फोटो हमें सोचने पर मजबूर करता है:


क्या हम सच में संवैधानिक मूल्यों को अपने आयोजन और अभिव्यक्ति में प्राथमिकता देते हैं?

क्या हमारे आयोजनों में जातीय या पदानुक्रम की सही समझ दिखाई देती है?

और क्या हम आदिवासी, दलित या पिछड़े वर्ग से आए नेताओं को केवल प्रतीक बनाकर ही सीमित कर दे रहे हैं?

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