— डॉ० शिबन कृष्ण रैणा —
एक मित्र से फेसबुक पर ख़्वामखा बहस हो गयी। कहने लगे कश्मीरी-पंडित घाटी से भाग गए। डटे रहते तो कोई उनका बाल भी बांका न कर सकता था। हथियार उठाने चाहिए थे पण्डितों को आदि-आदि। मैं ने कहा कि जिहादियों को हथियार उनका मित्र-देश पाकिस्तान मुहैया करा रहा था,आर्थिक मदद भी पहुंचा रहा था।पंडित हथियार कहाँ से लाते भला?सत्ताधीश खुद भाग रहे थे, पण्डितों की रखवाली क्या करते? बंदूकें लेकर एक पर पचास टूट पड़ें तो क्या किया जाए?आपको पचास जनें घेर कर कूटने लगें तो आप क्या करेंगे? भागेंगे या डटे रहेंगे। सच-सच बताएं। हम लोग और मेरे सगे भाई-बंधु इस स्थिति से गुज़र चुके हैं। मेरी बात को सुनकर वे बगले झाँकने लगे और अभी तक कोई जवाब नहीं दे पाए हैं। मैं तो अब भी मानता हूँ कि कश्मीर समस्या न राजनीतिक समस्या है, न सामाजिक और न ही ऐतिहासिक। यह जनबल/संख्याबल के असन्तुलित अनुपात की समस्या है। किसी चमत्कार से वहां के अल्पसंख्तक वहाँ के बहुसंख्यक हो जाएं या फिर बराबरी पर आजाएं तो फिर देखिए स्थिति कैसे सामान्य नहीं होती? जय श्रीराम, जय हनुमान, जय शिव शंकर आदि के जयकारों से घाटी गुंजायमान हो उठेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें