सावन की हरियाली विदा लेकर जब शरद की कोमल छांव धरती पर उतरती है, तब मातृत्व का सबसे कठोर और पवित्र पर्व दस्तक देता है, जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत। यह व्रत इस वर्ष आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी तिथि 14 सितंबर, रविवार को है। पंचांग के अनुसार अष्टमी तिथि की शुरुआत प्रातः 05 बजकर 04 मिनट से और समापन अगले दिन 15 सितंबर, सोमवार को 03 बजकर 06 मिनट पर होगा। इसी दिन संतान की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए माताएं निर्जल व्रत करेंगी और नवमी की प्रातः शुभ मुहूर्त में पारण सम्पन्न करेंगी। जीवित्पुत्रिका व्रत, मां का आशीष संतान का अमर कवच है। गंगा तट से लगायत कुंडो, तालाबों पर प्रज्वलित दीपों से लेकर गांव की कच्ची गलियों में गूंजते गीतों तक, हर जगह एक ही संदेश है, जब मां अपनी संतान के लिए संकल्प लेती है, तो समय, भाग्य और मृत्यु भी नतमस्तक हो जाते हैं. कहते है भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को पुनः जीवित कर दिया था. भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से जीवित होने वाले इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका नाम दिया गया. बाद में यह बालक राजा परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ. तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के हर साल आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जितिया व्रत रखने की परंपरा को निभया जाता है
मां की ममता का निर्जल तप
सप्तमी को प्रातः माताएं सूर्योदय से पहले पवित्र नदी, कुएं या घर में गंगाजल मिले जल से स्नान कर तन-मन को पवित्र करती हैं। इस तरह ‘नहाय-खाय’ से शुरु हुए व्रत में स्त्रियां अगले दिन संतान की लंबी सांसों के लिए वे निर्जला उपवास करती हैं, न जल, न अन्न। नहाय-खाय केवल भोजन नहीं, यह शुद्धता, संयम और संकल्प का प्रारंभ है। रातभर कथा, गीत और प्रार्थनाओं में डूबीं माताएं अपने संकल्प को निभाती हैं। यह तप किसी तपस्वी की कठिन साधना से कम नहीं।अष्टमी की रात्रि : जागरण का जप
रात गहराने पर भी व्रती स्त्रियों की आंखों में नींद नहीं। घर के आंगन में दीपक टिमटिमाते हैं, कथा और भजन की मधुर लय चलती रहती है। हर मां अपनी संतान का चेहरा स्मृति में संजोए रखती है। यह जागरण केवल पूजा नहीं, मां की अनंत ममता का गीत है। अष्टमी तिथि के आरंभ के साथ ही व्रत की कठिनाई शुरू होती है। अन्न और जल का पूर्ण त्याग कर माताएं अगले दिन नवमी तक निर्जल उपवास करती हैं। यह लगभग 24 घंटे से भी लंबा तप है। न जल, न अन्न, केवल संतान की रक्षा और मंगल की कामना। यह साधना किसी बाहरी दबाव से नहीं, बल्कि गहन प्रेम और विश्वास से जन्म लेती है।
नवमी की भोर : अमृत पारण का क्षण
प्रभात बेला, जब गंगा के जल पर सुनहरी आभा बिखरती है, व्रत का पारण आरम्भ होता है। पहली बूंद जल होंठों को स्पर्श करती है तो मानो जीवन का अमृत बन जाती है। संतान को आशीष देती मां का मन संतोष और आनंद से भर उठता है।
जीमूतवाहन की कथा : त्याग की अमर गाथा
इस व्रत की आत्मा जीमूतवाहन की कथा में बसती है। पुराणों में वर्णित है कि नागवंश को बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान दिया। जब गरुड़ नागकुमार को भक्षण करने आया, तब जीमूतवाहन ने स्वयं को उसकी जगह प्रस्तुत किया। नागवंश के उद्धारक जीमूतवाहन ने अपनी देह का बलिदान देकर एक नागकुमार को मृत्यु से बचाया था। करुणा और त्याग के इस अद्भुत कार्य से प्रसन्न देवताओं ने उन्हें अमरत्व का वरदान दिया। यही कारण है कि जियुतिया व्रत में भगवान जीमूतवाहन की पूजा होती है। यह कथा केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि यह संदेश देती है कि निःस्वार्थ त्याग और करुणा ही सच्चा धर्म है।
महाभारत प्रसंग : जब अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाया और अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु पर संकट आया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने बालक परीक्षित को जीवनदान दिया। उसी से जीवित्पुत्रिका व्रत की परंपरा जुड़ी मानी जाती है।
रानी और चंडालिन की कथा : कहा जाता है कि एक रानी और एक चंडालिन, दोनों ने यह व्रत किया। रानी ने पूर्ण विधि से उपवास किया, जबकि चंडालिन ने व्रत तोड़ दिया। परिणामस्वरूप रानी का पुत्र दीर्घायु हुआ और चंडालिन का पुत्र अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। यह कथा व्रत की कठोरता और शुद्धता का संदेश देती है।
विधि-विधान और श्रद्धा
व्रती माताएं अष्टमी की भोर में स्नान कर जीवित्पुत्रिका माता और भगवान जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। पूजा में अक्षत, पुष्प, धूप, दीपक, मौसमी फल और पारंपरिक सामग्री चढ़ाई जाती है। कथा श्रवण के बाद ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना अनिवार्य माना जाता है। व्रती महिलाओं से अपेक्षा होती है कि वे पूरे दिन मन, वचन और कर्म की शुद्धता बनाए रखें। नवमी के दिन प्रातः स्नान कर सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के बाद ही पारण होता है। पहली बूंद जल माताओं के कंठ से उतरती है तो मानो जीवन का अमृत बन जाती है। परंपरा है कि पारण के दिन गाय को भोजन कराना विशेष पुण्यदायी होता है। यह केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि प्रकृति और जीवों के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है।
काशी का सोरहिया मेला : लक्ष्मी कुंड का उत्सव
वाराणसी में यह व्रत अपने विशेष रंग में खिलता है। लक्ष्मी-कुंड और गंगा घाटों पर सजता ‘सोरहिया मेला’ स्त्रियों की आस्था का विराट उत्सव है। यहां सोरहिया मेला लगता है, जो सोलह दिनों तक चलता है। इस मेले में हजारों महिलाएं संतान की दीर्घायु की कामना से एकत्रित होती हैं। कलाई में बांधा जाने वाला सोलह गांठों वाला धागा, ‘सोरहिया’ सोलह कलाओं और संतान की सोलह इच्छाओं को सुरक्षित रखने का प्रतीक माना जाता है। गंगा तट पर दीपों की कतारें, शंख-घंटों की ध्वनि और लोकगीतों की लहरियां काशी को मातृत्व के महासागर में डुबो देती हैं। माता लक्ष्मी यहां महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती के त्रिरूप में पूजी जाती हैं। यह मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि लोक-संस्कृति का उत्सव भी है। लोकगीतों, भजनों और पारंपरिक नृत्यों से पूरा वातावरण मातृत्व और आस्था की महक से भर जाता है। सोराहिया मेला को काशी के लक्खी मेले में शुमार है. इस दिन सौभाग्य स्वरूपा माता लक्ष्मी के पूजन के लिए लक्सा स्थित लक्ष्मी कुंड पर श्रद्धालुओं की जमघट होती है. यहां स्थित लक्ष्मी देवी के दर्शन हेतु महिलाएं सुख-समृद्धि के लिए 16 दिन तक व्रत का संकल्प लेती है. इस दौरान 16 गांठ धागे का पूजन करने के साथ ही 16 तरह की मिष्ठान फल आदि देवी को अर्पित की जाती है। लोग पहले दिन महालक्ष्मी की प्रतिमा खरीदकर घर ले जाते हैं. उनका 16 दिनों तक कमल के फूल से पूजन व अर्चन होता है. कहा जाता है कि सोरहिया में माता लक्ष्मी का पूजन करने से घर में सुख, शांति, आरोग्य, ऐश्वर्य एवं स्थिर लक्ष्मी का वास होता है.
लोक संस्कृति का उत्सव
जियुतिया केवल पूजा का अवसर नहीं, बल्कि लोक संस्कृति का उत्सव भी है। बिहार और पूर्वांचल के गांवों में स्त्रियां एकत्र होकर लोकगीत गाती हैं,
“जितिया माई के गवनवा, ललना के दीर्घ आयु...”
इन गीतों में मां का दर्द, प्रेम और संकल्प सब समाहित होता है। कहीं पुत्र की दीर्घायु की कामना है, कहीं व्रत के नियमों का पालन करने की दृढ़ता का वर्णन, तो कहीं देवी से करुण पुकारकृ“मेरे बच्चे को सुरक्षित रखना।” ये लोकगीत सामाजिक एकता और स्त्री-शक्ति का सजीव प्रमाण हैं।
मातृत्व का अमर संदेश
आज जबकि जीवनशैली बदल रही है, यह पर्व हमें याद दिलाता है कि मां की प्रार्थना समय और मृत्यु से भी प्रबल है। यह केवल पुत्र की लंबी आयु का व्रत नहीं, बल्कि संतान, चाहे पुत्र हो या पुत्री, की निरोगता और खुशहाली का संकल्प है। समाज में लिंगभेद से परे यह पर्व मातृत्व की सार्वभौमिक भावना को स्थापित करता है। खासकर आज जब परिवार छोटे होते जा रहे हैं, जियुतिया व्रत हमें जड़ों से जोड़ता है। पहले यह व्रत मुख्यतः पुत्र के कल्याण से जोड़ा जाता था, पर अब माताएं इसे संतान, चाहे पुत्र हो या पुत्री, की रक्षा के लिए करती हैं। कई स्थानों पर यदि माता अस्वस्थ हो, तो पिता भी यह व्रत निभाते हैं। यह परिवर्तन बताता है कि संस्कृति स्थिर नहीं, समय के साथ उसका अर्थ व्यापक होता है।
पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ाव
गाय को भोजन कराना, नदी में स्नान, सूर्य को अर्घ्य देना, ये सब क्रियाएं हमें प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव का बोध कराती हैं। जियुतिया हमें स्मरण दिलाता है कि मानव और प्रकृति का संबंध परस्पर सहयोग और सम्मान पर टिका है। पूर्वांचल, बिहार, झारखंड और नेपाल के तराई अंचल में जितिया व्रत केवल धार्मिक आयोजन नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव भी है। खेतों में नई फसल की आहट के बीच यह पर्व परिवार और समुदाय को जोड़ता है। रिश्तेदार, पड़ोसी और सहेलियां मिलकर व्रत कथा और गीतों में भाग लेते हैं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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