एक कच्ची झोपड़ी में बच्चों के साथ उन्होंने जीवन की नई शुरुआत की जो किसी भी तरह से आसान नहीं था। वह सुबह से शाम तक मजदूरी करतीं, और इससे मिलने वाले पैसे बचा बचा कर अपने सिर पर एक मजबूत छत खड़ी करने में सफल हुईं। लेकिन कठिनाई यहीं खत्म नहीं हुई। मजदूरी में भी उन्हें बराबरी नहीं मिलती। पुरुष मजदूरों को काम जल्दी मिलता, जबकि उन्हें बार-बार टाल दिया जाता। यहाँ तक कि मनरेगा जैसी सरकारी योजना में भी उन्हें प्राथमिकता नहीं दी जाती। आंकड़े बताते हैं कि भारत में महिलाओं द्वारा किया गया अनपेड घरेलू श्रम 2022–23 में राष्ट्रीय GDP का 26% से लेकर 36% तक का मूल्य रखता है। यह एक बेहद चौंकाने वाला और अनदेखा तथ्य है। वहीं महिलाओं द्वारा घरेलू कार्य में बिताया गया समय औसतन 4.6 घंटे प्रतिदिन दर्ज किया गया है, जबकि पुरुषों का समय सिर्फ़ 2.2 घंटे देखा गया है। उधर पति की मौत पर मिलने वाला मुआवजा भी किरण देवी को अधूरा मिला। वह कहती हैं कि "शिक्षित नहीं होने के कारण मैं अपने अधिकारों की पूरी लड़ाई नहीं लड़ सकीं। इस दौरान किसी ने भी मेरा साथ नहीं दिया।" आर्थिक तंगी का असर उनके बच्चों के जीवन पर भी पड़ा। बेटों को पांचवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़कर काम पर लगना पड़ा। बेटियों की शिक्षा भी छूट गई। यह वही चक्र है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी औरतों को उनके सपनों से दूर कर देता है।
लेकिन इस बीच उम्मीद की एक किरण जलती रही। उनकी बड़ी बेटी सीमा ने माँ के संघर्ष को देखकर ठान लिया कि शिक्षा का सपना अधूरा नहीं रहेगा। आज सीमा सत्ताईस साल की उम्र में फिर से पढ़ाई कर रही है और ओपन बोर्ड से दसवीं की परीक्षा देने जा रही है। वह कहती है, “मैंने माँ को जीवन भर संघर्ष करते देखा है। अब मैं पढ़-लिखकर एक सफल व्यवसायी बनना चाहती हूँ।” सीमा की बातों से किरण देवी की आँखों में चमक बढ़ जाती है। किरण देवी कहती हैं कि 'हालात बदलते ही लोगों का नजरिया भी बदलने लगा है। गांव के वही लोग जिन्होंने कठिन परिस्थिति में कभी उनकी मदद नहीं की, जो उनके अकेलेपन और संघर्ष को देखकर चुप रहे, आज वही उनकी मिसाल देते हैं। वही लोग कहते हैं कि किरण देवी ने अपने साहस से गाँव का मान बढ़ाया है।' यह समाज का वही दोहरा चेहरा है जो पुरुषों की तुलना में औरत की ताकत को उसके संघर्ष के दौरान नहीं, बल्कि उसकी सफलता के बाद स्वीकार करता है। आज साठ वर्ष की उम्र में भी उनका जज्बा कम नहीं हुआ है। वह अब भी अपनी बेटियों के साथ खड़ी हैं, उन्हें आगे बढ़ाने का सपना देखती हैं। किरण देवी की कहानी सिर्फ एक गाँव की एक औरत के संघर्ष की दास्तान नहीं है। यह हमारे पूरे समाज की तस्वीर है। यह हमें याद दिलाती है कि इतिहास की धारा को बदलने का काम सिर्फ राजा-महाराजा नहीं करते, बल्कि संघर्ष करने वाली औरतें भी करती हैं। लेकिन उनका इतिहास अब तक लिखा नहीं गया है। अगर इतिहास को सचमुच पूरा लिखना है तो उसमें किरण देवी जैसी औरतों की कहानियाँ भी शामिल करनी होंगी क्योंकि औरत का संघर्ष हाशिए पर नहीं, बल्कि इतिहास के केंद्र में होना चाहिए। तभी हम एक ऐसा समाज बना पाएँगे जो सिर्फ उनकी ताकत को देखे ही नहीं, बल्कि उसका सम्मान भी करे।
नाज़िया
लूणकरणसर, राजस्थान
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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