- “कांच हेरैं जइसन चमकैं घाट, नहाय-खाय के उठल परव के बात”, घर-घर में छठ की गूंज
- घाटों पर उमड़ा श्रद्धा का सैलाब, कल से शुरू होगा 36 घंटे का निर्जला व्रत, अस्ताचलगामी और उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पण की होगी तैयारी
- भक्ति, श्रद्धा और स्वच्छता—तीनों का अनोखा संगम ‘छठ’—जनजीवन में आशा और ऊर्जा का नवसूर्योदय लेकर आता है
“केतना दिन बाद उगले सुरजदेव, नहाय-खाय के बेरा…”
जिससे पूरा वातावरण भक्ति और उल्लास से सराबोर है। छठ का उल्लास देखते ही बन रहा है। बनारस, गोरखपुर, प्रयागराज, मिर्जापुर, बलिया, गाज़ीपुर, मऊ और पूर्वांचल के तमाम जनपदों में गंगा और तालाबों के घाटों पर श्रद्धालुओं की तैयारियां चरम पर हैं। प्रशासन ने भी सुरक्षा और स्वच्छता को लेकर विशेष इंतजाम किए हैं। ‘नहाय-खाय’ केवल एक दिन नहीं, बल्कि यह एक आरंभ है—शुद्धता, आस्था, तप और प्रेम का। यह वह क्षण है जब मानव अपनी सीमाओं को छोड़कर परम ज्योति, सूर्यदेव के समक्ष नतमस्तक होता है। घरों में सुगंधित धुआं उठता है, घाटों पर दीप झिलमिलाते हैं और हवा में घुल जाती है एक अलौकिक पुकार—“छठी मईया, अपन अँचरा पसार, सबके सुख-संपत्ति दीं...”
नहाय-खाय के साथ आरंभ हुआ यह लोक पर्व अगले तीन दिनों तक अनुशासन, उपवास और अर्घ्य के माध्यम से उस बिंदु पर पहुँचता है जहाँ मनुष्य, प्रकृति और देवता एक सूत्र में बंध जाते हैं। यही है छठ—आस्था का उत्सव, सूर्य की साधना और जीवन की सबसे पवित्र लय।
लोक-जीवन में छठ का पहला दिन : नहाय-खाय
छठ पर्व का पहला चरण ‘नहाय-खाय’ कहलाता है। यह दिन पर्व का आधार है, शुद्धता और संकल्प का प्रारंभ। आज व्रती महिलाएं स्नान कर अपने जीवन से प्रतीकात्मक रूप से समस्त मलिनता को धो डालती हैं। फिर घर आकर प्रसाद रूप में कद्दू-भात (कद्दू की सब्जी और अरवा चावल) ग्रहण करती हैं। इसी से अगले चार दिनों के कठिन व्रत की शुरुआत होती है। यह भोजन केवल व्रती के लिए होता है, जो मिट्टी या कांसे के बर्तन में तैयार किया जाता है। कहा जाता है कि नहाय-खाय का भोजन जितना शुद्ध होता है, उतना ही पावन बनता है आगामी उपवास का मार्ग। इस दिन से ही व्रती अपने घर को मंदिर बना लेती हैं, और हर वस्तु में सूर्य की झलक देखने लगती हैं।
स्वच्छता से पवित्रता तक
छठ का यह पहला दिन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक स्वच्छता का भी संदेश देता है। घर, गली, मोहल्ले से लेकर घाट तक सफाई अभियान चलता है। नदी के किनारे फूस, फूल और केले के पत्तों से बने घटस्थल बनते हैं। कोई दीवार पोत रहा है, कोई घाट झाड़ रहा है, कोई बालू बिछा रहा है—सब मिलकर इस पर्व को साकार करते हैं। बनारस, पटना, आरा, बलिया, सासाराम, जौनपुर, मऊ, गाजीपुर, सोनभद्र, भदोही—हर जगह घाटों पर मानो सामूहिक सौंदर्य की स्पर्धा छिड़ जाती है। प्रशासन भी सजग है, पर सबसे अधिक तत्परता तो आम जन की होती है। छठ सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह लोकसंस्कृति की सबसे स्वच्छ तस्वीर है।
सूर्योपासना का दर्शन
छठ पर्व का केंद्र सूर्यदेव हैं—अस्ताचलगामी और उदयाचलगामी दोनों। छठ का यह आरंभिक दिन ‘नहाय-खाय’ व्रती को तैयार करता है उस अर्घ्य के लिए, जो सूर्य को दिया जाएगा। वेदों में सूर्य को ‘सविता’, ‘आदित्य’, ‘प्रत्यंगिरा’ और ‘प्रकाश स्वरूप ब्रह्म’ कहा गया है। छठ के रूप में यह परंपरा उस वैदिक विचारधारा की जीवित धारा है जिसमें सूर्य को जगत का जीवनदायी तत्व माना गया। सूर्य केवल प्रकाश नहीं देते, वे तप, संयम और सृजन का प्रतीक हैं। यही कारण है कि इस पर्व में स्त्रियां अपने परिवार के स्वास्थ्य, संतान-सुख और समृद्धि के लिए निर्जल उपवास रखती हैं।
नारी के तप, परिवार का पर्व
नहाय-खाय के दिन से ही घर की महिलाएं अपने तन-मन को व्रत के अनुशासन में बांध लेती हैं। घर की रसोई में लहसुन-प्याज का प्रवेश निषिद्ध हो जाता है। बांस की सूप, टोकरी, ठेकुआ, गुड़, चावल, अदरक, नींबू, नारियल जैसी सामग्री तैयार की जाती है। इन तैयारियों के बीच व्रती का चेहरा तेजस्वी हो उठता है। उनके चेहरे पर भक्ति का उजास होता है और आस्था की गंभीरता। यह पर्व महिलाओं के अद्भुत धैर्य और समर्पण का प्रतीक है। वे न केवल स्वयं व्रत रखती हैं बल्कि अपने पूरे परिवार के कल्याण की कामना करती हैं। यही कारण है कि छठ को “मातृत्व की महायात्रा” भी कहा जाता है।
प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ा उत्सव
नहाय-खाय का यह दिन पर्यावरणीय दृष्टि से भी विशेष है। जब महिलाएं नदी या तालाब में स्नान कर सूर्य को प्रणाम करती हैं, तो यह जल और सूर्य—दोनों जीवन के मूल तत्वों के प्रति आभार का प्रतीक बनता है। छठ में प्रयुक्त सभी वस्तुएं—बांस, मिट्टी, गुड़, फल, अन्न, पत्ते—प्राकृतिक होती हैं। इसमें किसी कृत्रिमता का स्थान नहीं। यही कारण है कि यह पर्व प्रकृति के साथ मानव की सबसे गहरी सांस्कृतिक एकता का उत्सव बन गया है।
गीतों में गूंजती आस्था
जैसे ही सूरज ढलने लगता है, हर गली, हर घर में छठी मैया के गीत गूंजने लगते हैं—
“केलवा के पात पर उगले सूरज देव...”
“छठी मईया से मागेले बर, सुख-संपति संतान हमार...”
इन गीतों में भक्ति भी है, लोक भी और प्रेम भी। यह गीत नारी हृदय की वेदना, आकांक्षा और आत्मिक बल की अभिव्यक्ति हैं। नहाय-खाय के साथ ही यह संगीत आरंभ होता है जो सप्तमी की सुबह उगते सूर्य तक निरंतर गूंजता है।
समाज को जोड़ता पर्व
छठ का यह पर्व जाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय से परे जाकर सभी को जोड़ता है। नहाय-खाय के दिन से ही यह एक सामाजिक आंदोलन बन जाता है, जिसमें हर व्यक्ति अपनी भूमिका निभाता है—कोई घाट साफ करता है, कोई प्रसाद बाँटता है, कोई भजन गाता है। इस सामूहिकता में भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा झलकती है—“सर्वे भवन्तु सुखिनः” का भाव।


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