श्री कृष्ण सिन्हा के बाद द्वीप नारायण ज्हा ने 1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी 1961 तक संक्षिप्त कार्यकाल संभाला, लेकिन जल्द ही अनुचंद्र प्रसाद हेगड़े (18 फरवरी 1961 से 2 अक्टूबर 1963) और फिर श्री कृष्ण सिन्हा का दूसरा कार्यकाल (2 अक्टूबर 1963 से 31 जनवरी 1968) आया.इन शुरुआती वर्षों में बिहार की सत्ता कांग्रेस के एकछत्र वर्चस्व में रही, जो स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को आगे बढ़ा रही थी.1960 के दशक के अंत तक राजनीतिक अस्थिरता ने दस्तक दे दी. 1968 में सतीश प्रसाद सिंह ने मात्र 5 दिनों (28 जनवरी से 1 फरवरी) का सबसे छोटा कार्यकाल संभाला, जो बिहार की नाजुक सत्ता-गतिशीलता का प्रतीक था. इसके बाद हरिहर सिंह (22 फरवरी 1967 से 28 जनवरी 1968), भोला पासवान शास्त्री (29 जनवरी 1968 से 26 फरवरी 1969; और फिर 4 अप्रैल 1969 से 22 जून 1969), राम लखन सिंह यादव (22 जून 1969 से 29 जून 1969), दरोगा प्रसाद राय (29 जून 1969 से 22 दिसंबर 1970), भोला पासवान शास्त्री का दूसरा कार्यकाल (29 दिसंबर 1970 से 4 जून 1971), और बिंदेश्वरी दूबे (4 जून 1971 से 24 जनवरी 1972) जैसे नाम आए. यह दौर था जब राज्य राष्ट्रपति शासन के अधीन आठ बार चला—सबसे अधिक अस्थिरता का प्रमाण.
1970 के दशक में जनता पार्टी के उदय के साथ राजनीति में परिवर्तन आया. कर्पूरी ठाकुर (20 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 और फिर 24 जून 1977 से 1 अप्रैल 1979) ने पिछड़े वर्गों के उत्थान की नींव रखी. अब्दुल गफूर (2 जून 1971 से 11 जनवरी 1972), राम लखन सिंह यादव का दूसरा कार्यकाल (2 जून 1977 से 24 जून 1977), और जगन्नाथ मिश्र (11 फरवरी 1972 से 19 मार्च 1975; 14 अप्रैल 1980 से 14 अगस्त 1983; और 14 मार्च 1989 से 10 मार्च 1990) जैसे नेताओं ने सत्ता संभाली. इंदिरा गांधी के आपातकाल के बाद 1977 का जनता पार्टी सरकार बिहार में भी आई, लेकिन जल्द ही विघटित हो गई. 1980 के दशक में कांग्रेस की वापसी हुई, लेकिन लालू प्रसाद यादव के उदय ने सब बदल दिया. जगन्नाथ मिश्र के बाद चंद्रशेखर सिंह (8 मार्च 1985 से 12 मार्च 1985), बिंदेश्वरी दुबे का दूसरा कार्यकाल (12 मार्च 1985 से 13 फरवरी 1988), और जगन्नाथ मिश्र का तीसरा कार्यकाल आया. फिर 10 मार्च 1990 को लालू प्रसाद यादव बने—वह चाणक्य जैसे रणनीतिकार जो जनता दल के बैनर तले बिहार को 1997 तक हांकते रहे.लालू के कार्यकाल (10 मार्च 1990 से 28 मार्च 1995; 4 अप्रैल 1995 से 25 जुलाई 1997) में सामाजिक न्याय की लहर चली, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि धूमिल की. इसके बाद राबड़ी देवी (25 जुलाई 1997 से 11 फरवरी 2000; 11 मार्च 2000 से 6 मार्च 2005) बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं, जो लालू की अनुपस्थिति में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की सरकार चला रही थी.
21वीं सदी में नीतीश कुमार का युग शुरू हुआ.जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश ने पहली बार 3 मार्च 2000 से 11 अप्रैल 2000 तक संक्षिप्त कार्यकाल संभाला.फिर 24 नवंबर 2005 से 20 मई 2014 तक लंबा शासन किया, जिसमें विकास की गति पकड़ी. 22 फरवरी 2015 से 26 जुलाई 2017, 27 जुलाई 2017 से 2 मई 2018 (महागठबंधन के साथ), 19 मई 2018 से 16 नवंबर 2020, 20 फरवरी 2021 से 9 अगस्त 2022, 12 अगस्त 2022 से 28 जनवरी 2024, और 28 जनवरी 2024 से नवंबर 2025 तक—ये उनके नौ कार्यकाल हैं. अब 2025 चुनावों के बाद 10वां शपथ ग्रहण. कुल मिलाकर, नीतीश के 18 वर्षों से अधिक का कार्यकाल बिहार को सड़कों, पुलों और शिक्षा से जोड़ता है, लेकिन गठबंधन-धोखे की राजनीति ने उनकी छवि को 'पलटू राम' का रूप दे दिया।बिहार की यह सत्ता-यात्रा—1947 से शुरू होकर आज के 10वें मुख्यमंत्री तक—एक सबक है: लोकतंत्र में स्थिरता दुर्लभ है, लेकिन परिवर्तन अपरिहार्य। जयप्रकाश नारायण का सपना आज भी अधूरा है, क्योंकि कुर्सी की होड़ में विकास की गति कभी तेज, कभी सुस्त। नीतीश कुमार का दसवां अवतार क्या बिहार को नई दिशा देगा, या फिर वही पुराना चक्र? समय ही उत्तर देगा.

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