नीतीश कुमार के लंबे शासनकाल को लेकर आम राय यही रही है कि अल्पसंख्यक समुदाय—विशेषकर ईसाई—खुद को सुरक्षित और संरक्षित महसूस करते हैं। लेकिन सुरक्षा और विश्वास का यह वातावरण तभी पूर्ण माना जाएगा, जब प्रतिनिधित्व भी समान गति से आगे बढ़े. ईसाई समुदाय की यह अपेक्षा कि उन्हें बिहार विधान परिषद में उचित प्रतिनिधित्व मिले, बिल्कुल न्यायसंगत और लोकतांत्रिक कल्पना के अनुरूप है. इसी तरह, बिहार अल्पसंख्यक आयोग में ईसाई समुदाय की भागीदारी लगभग समाप्तप्राय है—जो न केवल असंतुलन का संकेत है, बल्कि शासन की सर्वसमावेशी प्रतिबद्धता के विपरीत भी जाता है.जनादेश भले ही व्यापक हो, लेकिन विकास और विश्वास का समीकरण तब ही संतुलित बनता है जब हर समुदाय को अपने अनुभव, अपनी समस्याएँ और अपना दृष्टिकोण साझा करने का संवैधानिक मंच मिलता है. नई सरकार के सामने चुनौती नहीं, बल्कि अवसर है कि वह इस प्रतिनिधित्वहीनता को दूर करे. यदि मुख्यमंत्री यह पहल करते हैं, तो यह कदम न केवल बिहार के ईसाई समुदाय के लिए आश्वस्ति का संदेश होगा, बल्कि राज्य की सामाजिक समरसता को और मजबूत करने वाला ऐतिहासिक निर्णय भी साबित होगा. आखिरकार, एक प्रगतिशील लोकतंत्र की पहचान ही यही है—जहाँ मुलाकातें प्रतीक नहीं, बदलाव की शुरुआत बनें.

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