दवाओं के निर्धारित मानकों पर खरी नहीं उतरने के साथ ही जीवनदायिनी दवाओं के तेजी से बेअसर होना भी एक समस्या होती जा रही है। इसका एक बड़ा कारण जहां एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक सेवन है तो दूसरा कारण दवाएं लेने के तौरतरीके से अनविज्ञ होना या फिर जानबुझकर लावपरवाही बरतने के साथ ही खान पान से जुड़ी गलतियां भी है। डॉक्टरों की भाषा में बात करें तो एएमआर यानी कि एंटी माइक्रोबाइल रेजिस्टेंस का चिंतनीय खतरा हो गया है। देश-विदेश के चिकित्सक एएमआर को वैश्विक महामारी का नाम देने लगे हैं। देखा जाए तो आज सबसे अधिक मौत का कारण दवाओं का बेअसर होना है। कोरोना के बाद तो एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बहुत अधिक बढ़ा है। दरअसल कोरोना के बाद जहां एक और आम व्यक्ति स्वास्थ्य के प्रति अत्यधिक सजग हुआ है तो एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग भी बढ़ा है। सर्दी, जुकाम, खांसी आदि वायरल बीमारियों में यदि भारत की बात की जाए तो 95 प्रतिशत तक एंटीबायोटिक दवाओं को ईलाज में शामिल किया जा रहा है। यह 95 प्रतिशत का आंकड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण भले ही हो सकता है पर इसमें कोई दो राय नहीं कि चिकित्सकों द्वारा एंटीबायोटिक दवाएं धडल्ले से लिखी जा रहा है। यह तो तब है जब मेडिकल से जुड़े विभिन्न मंचों व शोध निष्कर्षों में यह खुलासा हो चुका है कि एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग स्वास्थ्य को नुकसान ही पंहुुचाने लगा है तो दूसरी और बैक्टिरिया में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने से दवाओं का असर कम होने लगा है।
दवाओं के तेजी से बेअसर होने को लेकर देेष-दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञ अत्यधिक चिंता में हैं। मेउिकल से जुड़े जर्नल द लैसेंट में इस संबंध में एक के बाद एक चेतावनी भरे लेख सामने आ रहे हैं। यहां तक कि एएमआर को मेडिकल इंमरजेंसी के रुप में देखा जाने लगा है। दरअसल कोरोना के बाद लोग थोड़ा सा स्वास्थ्य खराब होते ही डॉक्टर की शरण में जाने को वरियता देने लगे है। यह अच्छी बात भी है पर जिस तरह से कोरोना के दौरान और उसके बाद एंटीबायोटिक का उपयोग अधिक बढ़ा है वह चिंतनीय हो गया है। हालात यहां तक हो गए हैं कि प्रति व्यक्ति 30 प्रतिषत अधिक मात्रा में एंटीबायोटिक का उपयोग होने लगा है। दवाओं का बेअसर होने का सीधा सीधा असर किडनी, लीवर, ब्रैन, हार्ट आदि प्रभावित होने लगे हैं। इन गंभीर बीमारियों में एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा है। इसे सकारात्मक ही माना जाएगा कि आज लोग स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजग हुए हैं। जरा सा स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगते ही लोग दवाओं का सहारा लेना आरंभ कर देते हैं। ऐसे में दवाओं की गुणवत्ता और मानकों पर खरी होना अधिक आवश्यक हो जाता है। दूसरी और अत्यधिक एंटिबायोटिक लिखने और सेवन को भी नियंत्रित किया जाना जरुरी हो जाता है। ऐसा नहीं है कि सरकार इन हालातों से अनजान है बल्कि सरकार गंभीर प्रयास करने के साथ ही सख्त कानूनी प्रावधानों की दिशा में बढ़ रही है। दवाओं के पैकिंग पर असली नकली की पहचान के लिए क्यूआर कोड लगाने जैसी कदम उठा रही हैं पर निर्धारित मानकों पर खरी नहीं उतरने वाले बैच की दवाओं को उपयोग से बाहर करने के सीमित कदम के स्थान पर निर्माता पर सख्त से सख्त कार्रवाई के प्रावधान होने ही चाहिए। ऐसे मामलों में न्यायालयों को भी सख्ती का संदेश देना चाहिए ताकि किसी को अनजाने में किसी की गलती से जीवन से हाथ नहीं धोना पड़े।
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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