हर बेटी को यह भरोसा होना चाहिए कि उसका मायका, माता-पिता का घर, हमेशा उसके लिए सुरक्षित शरणस्थली रहेगा। ऐसा स्थान, जहां वह बिना किसी डर, अपराधबोध, शर्म या किसी को सफाई दिए लौट सके। यह केवल भावनात्मक आकांक्षा नहीं, बल्कि गरिमा, सुरक्षा और समानता से जुड़ा एक मौलिक अधिकार है। दुर्भाग्य से भारतीय समाज में आज भी यह अधिकार पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है। इसी पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह स्पष्ट ऐलान कि “पितृ संपत्ति में बेटियों का पूरा हक है और इसका अनादर करने वालों पर कार्रवाई होगी”, न केवल राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक चेतना को झकझोरने वाला भी है। यह घोषणा उन करोड़ों बेटियों के लिए आश्वासन है, जो आज भी अपने ही अधिकारों को मांगने में संकोच करती हैं, कभी पारिवारिक दबाव में, तो कभी सामाजिक कलंक के भय से। योगी सरकार का यह रुख इस बात का संकेत है कि अब बेटियों के अधिकार केवल कानून की किताबों तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि उन्हें जमीन पर लागू कराने की जिम्मेदारी भी सरकार उठाएगी।
भारत में महिलाओं के सशक्तिकरण पर दशकों से चर्चा हो रही है। योजनाएं बनीं, नारे लगे, अभियान चले। लेकिन एक बुनियादी सवाल आज भी अनुत्तरित है. क्या सशक्तिकरण का अर्थ कुछ आर्थिक सहायता और प्रतीकात्मक सम्मान भर है, या फिर समान अधिकारों की वास्तविक गारंटी? सच यह है कि जब तक बेटियों को उनके जन्मसिद्ध अधिकार बिना शर्त नहीं मिलते, तब तक सशक्तिकरण अधूरा रहेगा। पितृ संपत्ति में बराबरी का अधिकार कोई उपकार नहीं, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा है। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 ने बेटियों को पैतृक संपत्ति में पुत्रों के समान अधिकार दिया, लेकिन सामाजिक स्तर पर इसका पालन आज भी कमजोर है। कई परिवारों में बेटियों से ‘स्वेच्छा से’ हिस्सा छोड़ने की अपेक्षा की जाती है। यही वह मानसिकता है, जिस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ऐलान सीधा प्रहार करता है। भारतीय समाज में बेटियों को ‘पराया धन’ मानने की अवधारणा केवल एक कहावत नहीं, बल्कि एक गहरी जड़ें जमाए सामाजिक संरचना है।
इस सोच के अनुसार बेटी का असली घर ससुराल होता है और मायका केवल एक अस्थायी पड़ाव। यही धारणा आगे चलकर यह भी तय करती है कि संपत्ति पर उसका अधिकार सीमित या नाममात्र का हो। यह मानसिकता केवल परिवारों तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक व्यवहार में भी दिखती है। कानून भले ही बराबरी की बात करे, लेकिन सामाजिक दबाव बेटियों को उनके हक से दूर कर देता है। योगी सरकार का सख्त रुख इस सोच को तोड़ने की दिशा में एक निर्णायक कदम है। यह संदेश साफ हैकृअब बेटियों के अधिकारों को ‘परंपरा’ या ‘समझौते’ के नाम पर कुचलने की छूट नहीं मिलेगी। समस्या केवल संपत्ति के अधिकार तक सीमित नहीं है। उससे भी बड़ा प्रश्न है, बेटी का मायके से रिश्ता। आज भी अधिकांश सामाजिक ढांचे में मायका बेटी के लिए स्थायी अधिकार का स्थान नहीं, बल्कि ‘जरूरत पड़ने पर’ लौटने की जगह माना जाता है। कानून महिला को उसके पति के घर में निवास का अधिकार तो देता है, लेकिन माता-पिता के घर में बिना शर्त रहने की स्पष्ट गारंटी नहीं देता। यह स्थिति तब और विडंबनापूर्ण हो जाती है, जब सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और आश्रय को मौलिक अधिकार मानता है।
यदि गरिमा और आश्रय मौलिक अधिकार हैं, तो बेटी के लिए उसका मायका इनसे अलग कैसे हो सकता है? योगी आदित्यनाथ का यह संदेश कि बेटियों के अधिकारों का अनादर बर्दाश्त नहीं होगा, इस प्रश्न को नए सिरे से राष्ट्रीय विमर्श में लाता है। घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 महिलाओं को वैवाहिक घर में सुरक्षा देता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से कई बार वही घर हिंसा का केंद्र बन जाता है। ऐसी स्थिति में मायका ही वह स्थान होता है, जहां बेटी सबसे पहले लौटना चाहती है। लेकिन सामाजिक दबाव और आर्थिक निर्भरता उसे वहां भी बोझ समझने की स्थिति पैदा कर देती है। यदि पितृ संपत्ति में उसका अधिकार स्पष्ट और सुरक्षित हो, तो मायका केवल भावनात्मक सहारा नहीं, बल्कि कानूनी और आर्थिक सुरक्षा का केंद्र बन सकता है। योगी सरकार का रुख इस दिशा में महिलाओं के लिए एक मजबूत सुरक्षा कवच तैयार करता है। सरकारें अक्सर बेटियों के लिए नकद हस्तांतरण, छात्रवृत्ति, कन्या सुमंगला जैसी योजनाएं लेकर आती हैं। ये योजनाएं आवश्यक हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं। पितृसत्ता को केवल कल्याणकारी योजनाओं से समाप्त नहीं किया जा सकता।
आर्थिक सहायता अस्थायी राहत देती है, लेकिन सामाजिक और कानूनी सोच को नहीं बदलती। वास्तविक बदलाव तब आता है, जब अधिकारों को बिना शर्त मान्यता दी जाती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह स्पष्ट संदेश कि बेटियों के अधिकारों का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई होगी, योजनाओं से आगे बढ़कर संरचनात्मक बदलाव की ओर इशारा करता है। किसी भी कानून या घोषणा की सफलता प्रशासनिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है। योगी सरकार ने यह संकेत दिया है कि वह केवल घोषणाओं तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि अधिकारों के उल्लंघन पर कार्रवाई भी सुनिश्चित करेगी। यह कदम समाज को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराता है। परिवार, समाज और पंचायत स्तर पर यह संदेश जाना चाहिए कि बेटी का हक छीनना न केवल नैतिक अपराध है, बल्कि दंडनीय कृत्य भी हो सकता है। जब यह चेतना जमीनी स्तर तक पहुंचेगी, तभी वास्तविक बदलाव संभव होगा। अक्सर राजनीतिक घोषणाओं को तात्कालिक या प्रतीकात्मक मान लिया जाता है। लेकिन योगी आदित्यनाथ का यह बयान सामाजिक पुनर्रचना का संकेत देता है। यह संदेश केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए प्रासंगिक है।
यह पहल राष्ट्रीय स्तर पर उस विमर्श को मजबूत करती है, जिसमें बेटियों के अधिकारों को सामाजिक सुधार के केंद्र में रखा जाए। यह याद दिलाता है कि संविधान ने जो समानता दी है, उसे व्यवहार में उतारना सरकार और समाज, दोनों की साझा जिम्मेदारी है। मतलब साफ है बेटियों का सशक्तिकरण नारों, अभियानों या योजनाओं से नहीं, बल्कि अधिकारों की सुनिश्चितता से होगा। जब एक बेटी यह जानकर बड़ी होगी कि उसका मायका भी उतना ही उसका घर है, जितना किसी बेटे का. और उसकी पितृ संपत्ति पर उसका पूरा अधिकार कानून और सरकार दोनों द्वारा संरक्षित है, तभी वास्तविक समानता संभव होगी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह स्पष्ट ऐलान इसी दिशा में एक निर्णायक कदम है। यह केवल बेटियों को नहीं, पूरे समाज को संदेश देता है कि अब पितृसत्तात्मक मानसिकता के लिए जगह नहीं है। मायका अब केवल भावनात्मक आश्रय नहीं, बल्कि अधिकार का केंद्र है, और यही सच्चे सशक्तिकरण की बुनियाद है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी


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