शब्द ब्रह्म है और इसका प्रभाव परमाण्वीय ऊर्जा से भी अधिक तीव्र और प्रभावी होता है। इसीलिए वाणी के साथ घनीभूत ऊर्जा रहती है जिसका हर कहीं असर होता है। इस वाणी की ताकत तभी असर दिखाती है जब वह अनुभवांें के रस में पग कर बाहर निकली हो तथा यह मन से निकली हो। आजकल कथनी और करनी का अंतर गया है। आदमी जो बोलता है वह करता नहीं, और जो करता है वह बोलता नहीं। बोलता कुछ और है और करता कुछ और। यह दोहरा-तिहरा चरित्र ही है जिसके कारण से न उसकी वाणी में शुद्धता है, न कर्म में और चरित्र में।
कइयों को सिर्फ बोलने के लिए बोलना है और कइयों की वाणी का संबंध सिर्फ जिह्वा से होता है उनका हृदय के तारों और विचारों से कोई लेना-देना नहीं। जहाँ देखो वहाँ भाषणिया लोगों का जमावड़ा है। ये लोग भाषण को इतने उतावले रहते हैं कि मंच और माईक तलाशते-तलाशते ही इनकी पूरी जिन्दगी निकल जाती है। किस मौके पर क्या बोलना है, कितना बोलना है, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं। इनका तो जन्म भी भाषण झाड़ने के लिए हुआ है। बहुत से लोग जब एक बार माईक थाम लेते हैं तो देर तक छोड़ते नहीं। माईक फोबिया से पीड़ित ऐसे लोगों की अपने यहाँ खूब भरमार है जिन्हें झेलते-झेलते बरसों गुजर गए लेकिन उन्हें अब तक अक्ल नहीं आ सकी है। कब्र में पाँव लटकाए बैठे ऐसे लोगों को न धरम-ध्यान की सूझती है, न घर-गृहस्थी की, न और कुछ।
बरसों से पुराने जमाने की बातों, वेदों-पुराणों और उपनिषदों तथा दूसरे गं्रथों, बोध व नीति वाक्यों और कथा-कहानियों के रट्टू ऐसे लोगों को सुनने के लिए विवश रहे लोग भी हमारे यहाँ कम नहीं हैं जो एक ही तरह की बातों को इनके श्रीमुख से सुनते हुए अपने कान पका बैठे हैं। हर गांव-शहर और महानगर में ऐसे भाषणिया भौमियों और भौंपाओं की भरमार है जिनका जन्म ही शायद लोगों को तंग करने के लिए हुआ है। कोई सा आयोजन हो, इसमें उनका भाषण न हो तो फिर आ ही लगी है आयोजकों की।
कई भाषणिया लोग तो ऐसे विचित्र किस्म के हैं जिन्हें कितने की आदर और सम्मान से आयोजन में बुलाया जाए, वे कोई न कोई नुक्स निकालकर आयोजकों की मिट्टी पलीत करने से कभी नहीं चूकते। ऐसे लोग कम से कम रोजाना एक न एक को बेवजह नाराज करते रहने के इतने आदी हो चुके होते हैं कि लोग इनसे कन्नी काटने लगते हैं और धीरे-धीरे इनसे त्रस्त लोगों की संख्या सैकड़ों-हजारों को पार कर जाती है और इनकी बद्दुआएँ इन्हें श्रद्धांजलि देने की भूमिका रचने में पूरे दम-खम से जुट जाती हैं। कुछ बरस से भाषण देने का धंधा खूब चल पड़ा है। हर कोई भाषण झाड़ना चाहता है। भाषणिये लोग बिना ब्रेक की नॉन स्टॉप सुपरफास्ट गाड़ी जैसे हो गए हैं। इनके जीवन का अधिकतर समय भाषण देने में ही बीतता है। भले इस भाषण कोई अर्थ नहीं हो।
यों भी वाणी तभी प्रभाव छोड़ती है जब वह हमारे आचरण में रची-बसी हो, हमारे मन से निकली हो और हृदय से लेकर होंठों तक आते-आते उसमें किसी भी प्रकार का मिश्रण नहीं हुआ हो। अन्यथा आजकल हृदय से कुछ नहीं निकल पाता। जो भाषण परोसे जा रहे हैं वे सिर्फ होंठों की उपज हैं उनमें हृदय के रसों और अनुभवों का जरा भी समावेश नहीं। हृदय की भाषा अर्थ लेकर पैदा होती है और इसका एक-एक शब्द वज्र की तरह गिरता है। अधिकतर लोगों के लिए भाषण का अर्थ है वाक्यों की बौछार। लोगों की मजबूरी हुआ करती है इस असमय आती रहने वाली बौछारों को झेलने की, क्योंकि लोग किसी न किसी स्वार्थ के बगैर मजमे में जमा होने के आदी नहीं हैं।
भाषण देने वाले और सुनने वाले सभी किसी न किसी स्वार्थ से जरूर बँधे होते हैं और ये स्वार्थ ही होते हैं जो उन्हें सर हिला-हिला कर सहमति व्यक्त करने और तालियाँ बजवाने को विवश कर देते हैं। इन तालियों से ही वक्ताओं को बोलते रहने की ताकत मिलती है। आजकल ऐसे-ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है जिन्हें भाषण का अर्थ तक पता नहीं। इनका भरम होता है कि भाषणों से आदमी प्रतिष्ठित होने लगता है और लोकप्रियता का शहद जल्दी झरने लगता है। इस किस्म के लोग कुछ न कुछ बोलना और लगातार बोलते रहना चाहते हैं, किसी को सुनना इन्हें अच्छा नहीं लगता। ये अलग बात है कि इन्हें सुनना भी औरों को अच्छा नहीं लगता। इसके अलावा एक और बात देखी जा रही है। भाषणों में उपदेशों का समावेश ज्यादा होने लगा है। हर वक्ता किसी पीर-पैगम्बर और अनुभवी ज्ञानी संत की तर्ज पर लोगों को उपदेश देने लगा है-ये करो, वो करो, ये नहीं करो... आदि आदि।
इन्हीं उपदेशों को उनके जीवन से मिलाकर देखें तो साफ पता चल जाता है कि इनके जीवन व्यवहार और उपदेशों में जितना विरोधाभास होता है उतना और कहीं नहीं देखने को मिलता। भाषणों में शराब, माँस, हराम की कमाई, व्यसन, व्यभिचार और नशों, सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों, कुप्रथाओं आदि को छोड़ने की बातें करने वाले कितने लोग अपने भाषणों को जीवन में अपनाते हैं, यह सभी को पता है। कई लोग समय के अनुशासन की बात करते हैं मगर खुद के किसी कर्म में न समय का अनुशासन होता है न और कोई। लोग भीषण गर्मी से कितने परेशान हों, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं , उन्हें तो सिर्फ भाषण दागना है और वे दागेंगे ही।
ईमानदारी लाने और भ्रष्टाचार-अनाचार मिटाने के लिए जितने जोर-शोर से भाषण झाड़ते हैं, उतना अपने जीवन में कहाँ उतार पाते हैं? दिन के उजाले में बातें करने वाले रात के अँधेरे में जो कुछ कर रहे हैं, उसे एक बार जान लें तो सारे भाषणों और उपदेशों की कलई खुल जाए। भाषण झाड़ने के आदी लोग समाज के हर क्षेत्र में हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में इसी दोहरेपन की वजह से भाषणों का कोई ख़ास प्रभाव सामने नहीं आ रहा। शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं, भाषणों का कोई प्रभाव नहीं होकर सिर्फ टाईमपास बकवास और श्रवण परम्परा का निर्वाह होता जा रहा है। जितना समय लोग भाषण झाड़ने और सुनने में लगाते हैं उसका आधा भी किसी श्रमदान या रचनात्मक काम में लगाएं तो समाज का खूब भला हो सकता है। समय आ गया है जब दोनों पक्षों को सुधरने की जरूरत है। बोलने वालों को भी और सुनने वालों को भी। दोनों में से एक पक्ष भी सुधर जाए तो जगत का बड़ा कल्याण हो सकता है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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