जिन्दगी भर बनें रहेंगे चक्करघिन्नी !!!
व्यक्ति अपना व्यवहार और संपर्क सूत्रों के साथ निरन्तर सामीप्य पाते हुए व्यक्तित्व गढ़ता है और यही उसके जीवन भर में सुगठित फ्रेम का काम करता है। व्यक्ति के जीवन का समग्र आभामण्डल और चेहरा उसके मन-मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने वाले विचारों और तरंगों को प्रकटाता है और इसी से उसकी वैचारिक भावभूमि और जीवन निर्माण की बुनियाद का पता चलता है। पर आजकल बहुत बड़ी संख्या ऎसे लोगों की होती जा रही है जिनके जीवन का आधार और व्यक्तित्व के रंग दूसरे-तीसरे लोग तय करते हैं और ऎसे में आयातित वैचारिक धुंध और प्रवृत्तियों का सीधा प्रभाव इतना अधिक पड़ने लगता है कि व्यक्ति अपने मूल स्वरूप को खोता चला जाता है और हर मामले मेंं पूरी तरह बाहरी तत्वों या कि दूसरों पर निर्भर हो जाता है। ये बाहरी लोग जैसा नचाते हैं वैसा वह नाचने और झूमने लगता है। बाहरी प्रभावों से उसकी हरकतों का विचित्र संसार सामने आने लगता है और तब लगता है जैसे मीलों तक पसरे हुए खेतों में लगाए गए बिजूके भी जड़ता छोड़ कर नृत्य करने लगते हैं।
आजकल जो अपने काम का है, उसे किसी भी तरह अपना बनाने का भूत उन बहुसंख्य लोगों पर हावी है जिन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं रहा है। ये लोग पूरी जिन्दगी परायों के भरोसे ही गुजारने को अपना गौरव मानते रहते हैं। आजकल आदमी में न आत्मविश्वास रहा है, न कोई जज्बा, जो कुछ ऎसा काम करके दिखा सके कि जमाना उसे याद करता रहे। हालात ये हो गए हैं कि अधिकतर आदमी खुद की बजाय दूसरों के बूते ही जैसे-तैसे जीवित होने का स्वाँग पाले हुए बैठे हैंं। हर मामले में वे दूसरों पर आश्रित हैं। लगातार दासत्व की बेड़ियों से जकड़े हुए और पशुओं की तरह रेवड़ों में चलने की हमारी आदत ही ऎसी हो चली है कि हमने नेतृत्व की सारी क्षमताओं को भुला दिया है। ऎसे में हर तरफ ऎसे-ऎसे लोगों की भरमार है जो खुद घनचक्कर बने हुए दूसरों को चक्करघिन्नी बनाने पर आमादा हैं। बनाले वाले भी खुश हो रहे हैं और बनने वाले भी। भले ही इन दोनों किस्मों के लोगों को अपने स्वयं पर भरोसा हो न हो, दूसरों को अपना बनाने के लिए हर स्तर तक गिरने की आदत को आकार देते हुए ये लोग जमाने को अपना बनाने के सारे करतबों मेें इतने माहिर हैं कि इनकी हर अदा से करिश्माई धाराएं झरने लगती हैं।
हमारे आस-पास से लेकर हमारे अपने क्षेत्र में ऎसे खूब लोग हैं जो घनचक्कर बने हुए औरों के बनाए रास्तों पर चलने को विवश हैं और चक्करघिन्नी के रूप में लगातार मरोड़ खाते हुए इठला रहे हैं। घनचक्करों की स्थिति यह है कि इन्हें खुद को भले ही यह पता नहीं है कि वो क्या कर रहे हैं, मगर इतना जरूर पता रहता है कि वो जो कुछ कर रहा है उसका मनमाना असर सामने आ रहा है। हैरत की बात यह है कि भगवान की दी हुई बुद्धि और विवेक के होते हुए कई सारे लोग ऎसे हैं जो उन लोगों के महापाश में बंधे हुए हैं जिनके जीवन का मकसद ही औरों की बुद्धि और क्षमताओं को बांध कर अपने पक्ष में पूंछ हिलाने की अवस्था ला देने वाला रहा है। ऎसे खूब लोग हमारे सम्पर्क में रहते आये हैं जो पूंछ हिलाने से लेकर पूंछ मरोड़ने की तमाम कलाओं में माहिर हैं। दूसरों की पूंछ का सान्निध्य पाते हुए इन लोगों को इतना तजुर्बा हो चला है कि पूंछ हिलाने मात्र से ही निकलने वाली हवाओं से इनका मन बहलने लगता है।
भगवान ने भले ही इन लोगों को पूंछ न दी हो मगर पूंछ वाले जो-जो काम कर सकते हैं, वे सारे काम ये घनचक्कर और चक्क्रघिन्नियां बने लोग कर सकते हैं। समझदार लोग वे हैं जो भुलभुलैया दिखाने वाले ऎसे लोगों की हकीकत को जानने का माद्दा रखते हैं और इन लोगों के जमूरे बनने या इनके इशारों पर बंदर-भालुओं की तरह नाच दिखाने की बजाय खुद की बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ते हैं और इन घनचक्करों की परम्पराओं से अप्रभावित रहते हुए अपने जीवन में आलोक का आवाहन करते हुए जगत को रोशनी का आनंद और सुकून प्रदान करते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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