सोच-समझकर बनाएं रिश्ते .... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

सोच-समझकर बनाएं रिश्ते ....


बनाएं तो जिन्दगी भर निभाएँ जरूर !!!


रिश्तों का भी अपना भरा-पूरा मनोविज्ञान होता है। ये सिर्फ संबंधों का एक नाम मात्र नहीं है। पूरी सृष्टि अणु-परमाणुओं और अनुनादों तथा ध्वनि तरंगों पर टिकी हुई है। ऎसे में संबंधों का भी अस्तित्व विभिन्न कारणों से होता है। कई संबंध अनायास बन जाते हैं, कई सायास। हर संबंध के पीछे अपना एक आधार होता है और यही आधार संबंधों की आयु और प्रगाढ़ता का घनत्व तय करता है। कई संबंध बिना किसी स्वार्थ के होते हैं जबकि कई संबंध किसी न किसी स्वार्थ के कारण हो जाते हैं और फिर स्वार्थ पूरे होने पर अपने आप खत्म भी हो जाते हैं। कुछ संबंध पूर्व जन्म की लेन-देन के हिसाब से स्वतः बिना किसी कारण के हो जाते हैं। संबंध सार्वजनीन होते हैं और इनका स्थान विशेष से बंधा होना जरूरी नहीं है। इन संबंधों के आधार पर ही व्यक्ति के जीवन की यात्रा से जुड़ी तमाम गतिविधियों को पहचाना और जाना जा सकता है। संबंधों के बारे में एक बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि संबंध मात्र मुलाकात या परिचय न होकर एक-दूसरे की गतिविधियों में किसी न किसी रूप में स्नेहिल हस्तक्षेप होता है इसलिए जिस किसी से भी संबंध बनाएं, खूब सोच-समझ कर और पूरी तरह परख कर बनाएं। हमारे जीवन में संबंधाें का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि हमारी तमाम गतिविधियों में उन सभी का न्यूनाधिक संबल जुड़ा होता है जो हमसे जुड़े होते हैं। इन लोगों की दुआएं, सद्भावनाएं और सकारात्मक ऊर्जाएं हमारे हित में सदैव जुटी रहती हैं।

दूसरी ओर उन लोगों की बद्दुआएं और नकारात्मक ऊर्जाएं भी हमारे पीछे लगी रहती हैं जिनसे हमारे संबंध रहे नहीं या टूट गए हैं अथवा बिगड़ गए हैं। दुनिया का कोई भी व्यक्ति किसी ऎसे व्यक्ति केे बारे में नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा या भावों का उत्सर्जन नहीं करता है जिन्हें वह नहीं जानता है। किसी न किसी प्रकार के अच्छे-बुरे संबंध होने पर ही इस प्रकार की बात सामने आती है। इसलिए जीवन में सदैव प्रयास यह करना चाहिए कि उन्हीं लोेगों का सामीप्य हो, उन्हीं से संबंध हाें, जिनसे हमें सकारात्मक ऊर्जा और सद्भाव का निरन्तर अहसास होता रहे और यही अहसास हमारे जीवन निर्माण में बहुत बड़ा संबल सिद्ध होता है। संबंधों के अनुरूप हमारे जीवन में बाहरी सकारात्मकता और नकारात्मकता हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों से लेकर जीवन के विभिन्न लक्ष्यों की प्राप्ति में असर डालती हैं। इसलिए प्रयास यही होना चाहिए कि जितनी कम से कम नकारात्मकता हो, उतना अच्छा। इस संतुलन में हमेशा सकारात्मकता का पलड़ा भारी होने पर हमारे कार्यों में कहीं कोई रुकावट नहीं आती है और इनका प्रवाह बना रहता है। लेकिन सकारात्मकता का प्रतिशत लगातार बढ़ते रहने की स्थिति में हमारे कामों को आशातीत सफलता प्राप्त होती रहती है। हमारी अपनी जीवन निर्माण और रचनात्मक गतिविधियों में सर्वाधिक कुप्रभाव उन लोगों का पड़ता है जिनसे कभी हमारे अच्छे संबंध रहे होते हैं लेकिन किसी न किसी कारण से इनमें दूराव आ जाता है अथवा किसी न किसी स्तर का मनमुटाव पैदा हो जाता है।

इस स्थिति में संबंधों के रहते हुए जितना स्नेह प्रगाढ़ रहता है, उतना ही नहीं तो इससे भी कुछ प्रतिशत अधिक वैमनस्य संबंधों के टूटने या बिखरने के बाद अनुभव किया जा सकता है। हमसे अनजान रहने वाले लोगों के मन में हमारे प्रति उतना घृणा भाव या प्रतिशोध नहीं रहता, जितना हमारे अपने उन लोगों में जिनसे हमारे कभी संबंध हुआ करते थे। ध्यान-धर्म और एकान्त सेवन की बात हो या फिर एकान्तिक आनंद प्राप्ति की, ऎसे क्षणों में जब भी हमसे दूर छिटके हुए लोग हमारे बारे में सोचते हैं तब हमारे ध्यान से लेकर आनंद तक में व्यवधान पड़ता है क्योंकि किसी अदृश्य कर्षण शक्ति के मारे हमारे और उनके बीच अदृश्य तरंगों का सेतु बन जाता है जो हमारी गतिविधियों की उन्मुक्तता और स्वतंत्रता को बाधित कर देता है। इसलिए जीवन में हमेशा यह ध्यान रखें कि जिनसे संबंध बनाते हैं उनसे जिन्दगी भर निभाते रहें। ऎसा नहीं कर सकें तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि संबंधों को पूरी मिठास के साथ विराम देकर वापस शून्य में लौट आएं जहां दोनों पक्ष इस स्थिति के लिए सर्वसम्मत हों। इससे सामने वाले पक्ष के मन में अपने प्रति ईष्र्या-द्वेष या प्रतिशोध नहीं रहता। और ऎसे में बिना किसी कारण के कोई किसी दूसरे को याद नहीं करता है और यही आदर्श स्थिति हमारे हित में होती है जब हम पूरी तरह स्वतंत्र होकर धर्म-ध्यान करें या आनंद के क्षणों में कहीं खोने लगें। ऎसे में हमारी दिनचर्या और लक्ष्यों की प्राप्ति में कहीं से कोई ख्िंाचाव अनुभव नहीं होता और हमारा प्रवाह निरन्तर बना रहता है।

किसी भी ऊध्र्वरेता व्यक्ति के लिए यह स्थिति आदर्श कही जा सकती है। यह बातें केवल गृहस्थियों के लिए ही नहीं हैं बल्कि संसार को छोड़ कर वैरागी हो बैठे उन संतों और महात्माओं के लिए भी हैं जो संसार में रमे हुए हैं। इनकी स्थिति यह है कि जब ये थोड़ा समय निकाल कर कहीं धर्म ध्यान और योग में बैठते भी हैं तो संसार इन्हें याद करता रहता है और इस वजह से इनका मन संसार की ओर बार-बार खिंचता चला जाता है। यह हालत इनके लिए बड़ी दुविधाजनक होती है। जीवन में हमेशा अच्छे कामों और अच्छे लोेगोें को मौके पर ही याद किया जाता है जबकि बुरे कमोर्ं, बिगड़े संबंधों और बुराइयों तथा प्रतिशोध को हर संबंधित व्यक्ति हमेशा याद करता रहता है और इसकी तरंगों का प्रवाह उन लोगों के लिए लक्ष्य में अटकाव पैदा करता रहता है जिनसे इन विचारों का संबंध होता है। जीवन निर्माण में सूक्ष्म तरंगों के करिश्मे को समझें और यह प्रयास करें कि किसी से संबंधों में बिगड़ाव न आए और हमारे कामोंं में किन्हीं बाहरी तरंगों का नकारात्मक प्रभाव हमारे लिए कहीं से भी उत्सर्जित ही नहीं हो।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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