मानसिक स्तर का ध्यान जरूर रखें !!!
मानव सामाजिक प्राणी है और इसलिए समाज में रहते हुए जीवन जीना उसकी अनिवार्यता भी है और आवश्यकता भी। सामाजिक जीवन की धाराओं का आस्वादन करते हुए व्यक्ति अपने व्यक्तित्व विकास की नींव को गढ़ता है वहीं जीवन निर्माण के सुनहरे स्वप्नों को साकार करता है। इसे और अधिक आगे बढ़ाने के लिए परिवार और कुटुम्ब की प्रणाली आकार लेती है और इसके साथ ही बाहरी संबंधों की धाराएं-अन्तर्धाराएं बहने और हमें प्रभावित करने लगती हैं। यह परिचय, सम्पर्क और मित्रता से लेकर प्यार और गहन संबंधों तक किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता है और सम्पूर्ण जीवन यात्रा के कई सारे पड़ावों में ये सायास या अनायास बने या बनाए गए संबंध हमारे जीवन की दिशा और दशा को तय करते हैं तथा व्यक्ति के रूप में हमें पूर्णता प्रदान करने के लिए संबल प्रदान करते हैं। यह हम पर निर्भर है कि उन संबंधों को जीते हुए पारस्परिक व्यक्तित्व विकास की धाराओं और उपधाराओं को मजबूती दें अथवा संबंधों के तटोें का क्षरण करते हुए संबंधों की पूरी की पूरी नदी की ही भेंट चढ़ा दें।
संबंधों की वे ही नदियां सदैव प्रवहमान हुआ करती हैं जिनमें निष्काम संबंधों का पूरा-पूरा प्रभाव रहता है अथवा पारस्परिक विकास सूत्रों की मजबूती का लक्ष्य अथवा लोक कल्याण या सामुदायिक उत्थान में समर्पित भागीदारी का संकल्प। इन सभी संबंधों के बारे में यह कहा जा सकता है कि संबंधों का बनना या बनाना कोई खास बात नहीं है लेकिन संबंधों को लंबे समय तक बरकरार रखे रहना ज्यादा महत्त्व रखता है। संबंधों की शाश्वतता के लिए सबसे बड़ा सूत्र है मानसिक स्तर का अनुपात एवं संतुलन। शरीर का अपना अलग धर्म होता है और मन का अलग। इन दोनों को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता है। कई लोग अग्नि के फेरों और परंपराओं के सूत्रों में प्रगाढ़ता से बंध जरूर जाते हैं लेकिन यह बंधन ज्यादा टिकाऊ नहीं रह पाता। भले ही ऎसे संबंधों मेें देह के धरातल पर कई-कई बार अद्वैत का भान हो चुका हो अथवा साथ जीने-मरने की कसमें खायी हुई हों लेकिन सत्य यह भी है कि जब तक मानसिक धरातल पर साम्यता का स्थायित्व नहीं होता तब तक शंकाओं, भ्रमों और आशंकाओं का मायाजाल हमेशा सभी पक्षों में द्वन्द्व और उद्विग्नता के बीजों का अंकुरण करता रहेगा और मन-मस्तिष्क में फिजूल की खरपतवार का साम्राज्य न्यूनाधिक रूप में विद्यमान रहेगा ही।
यह खरपतवार ही ऎसी होती है जो संबंधों को शुद्ध भावभूमि से वंचित करती रहती है और इस वजह से शुचिता से भरे हुए विचार और संबंधों की नींव कभी जम नहीं पाती। जो कुछ होता है वह बुलबुलों या समुद्र फेन की तरह मिथ्या सुकून भले ही देता रहे पर उस प्रकार के संबंधों में न गांभीर्य होता है और न ही किसी भी प्रकार का कोई माधुर्य भाव ही रह पाता है। मानसिक धरातल पर साम्यता और स्पष्टता के बगैर संबंधों में प्रगाढ़ता और दीर्घजीविता के सारे कारक अपने आप निर्बीज हो जाते हैं और ऎसे में जीवन में जो पड़ाव आते जाते हैं वे सारे के सारे शंकाओं और भ्रमों से भरे ही दिखाई देते हैं जो किसी भी व्यक्ति को सुख-चैन प्रदान नहीं कर सकते और अन्ततोगत्वा दुःखों से प्राप्त वैराग्य का चिंतन मन को दुःखी और तन को शारीरिक बीमारियों का घर बना लेता है। इसलिए संबंधों के निर्माण या संबंध बनाने से पहले मानसिक धरातल के संतुलन पर विशेष ध्यान दें अन्यथा संबंधों के न होने के समय जो आनंद और मस्ती अपने पास होती है वह संबंधों के होने के बाद धीरे-धीरे गायब होने लगती है और एक समय ऎसा आता है जब संबंधों में से गंध पलायन कर जाती है और सभी ऎसे लोगों की स्थिति ऎसी हो जाती है जैसी शहद निकालने के बाद छत्ते की, जिसे गर्मी पाकर पिघलना और खत्म ही होना बाकी रह जाता है। बड़े-बड़े संबंधों के खात्मे का यही मूल कारण होता है। ये संबंध चाहे व्यक्तियों के बीच हों, दलों और समूहों में हों या और किन्हीं में, मानसिक धरातलों पर असंतुलन आ जाने पर धीरे-धीरे इनके विखण्डन का दौर आरंभ हो ही जाता है और इसी का परिणाम यह होता है कि हमारे पास भगवान का दिया हुआ सब कुछ होने के बावजूद हम अशांत, अस्थिरचित्त और दुःखी रहने लगते हैं।
आरंभिक तौर में मानसिक धरातल में असंतुलन की स्थिति होने पर सभी पक्षों को स्वार्थों और संबंधों को प्रगाढ़ता देने से पहले यह प्रयास करना चाहिए कि मानसिक धरातल पर साम्यता आए और सभी संबंधित पक्ष एक-दूसरे को अच्छी तरह समझें और वैचारिक आदान-प्रदान करते हुए वह आदर्श स्थिति सामने लाएं कि जिसमें प्रेम की पूर्णता हो तथा पारस्परिक सुस्पष्ट समझ हो। यह आदर्श स्थिति लाना कोई असंभव नहीं है यदि हम थोड़ी सी मेहनत उस दिशा में आरंभ कर दें। संबंधों में चाहे ऊपरी तौर पर कहीं भी और कैसी भी प्रगाढ़ता हो फिर चाहे वह दाम्पत्य में हो या प्रेम संबंधों में, इनमें सर्वाधिक प्रभावी कारक है मानसिक धरातल पर एकत्व और पारस्परिक समझ विकसित करने की प्रक्रिया। जहाँ कहीं मानसिक धरातल पर पारस्परिक समझ होती है वहाँ संबंधों में न कभी माधुर्यहीनता आ पाती है और न ही कोई बिखराव। बल्कि ऎसे संबंधों में दैहिक गतिविधियां और हलचलें तक गौण हो जाती हैं और संबंधों का शाश्वत सुख तथा महा आनंद उन सभी विषयों और वासनाओं से परे हो जा जाता है जिनमें सामान्य संबंधों और स्वार्थों का जन्म होता है। जहाँ कहीं संबंध बनाएं या बने हुए संबंधों को शाश्वत रखना चाहें वहाँ सबसे पहले मानसिक धरातल में साम्यता लाएं और दूसरों को समझने तथा स्वीकार करने की आदत डालें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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