जो लोग दुनिया देखने और सुकून पाने की बात करते हैं उन्हें चाहिए कि वे पहले अपने इलाके और प्रदेश तथा देश को तो कम से कम एक बार देख लें। स्वदेश की नैसर्गिक सुषमा, पहाड़ों-घाटियों एवं नदी-नालों, विराट प्रवाहमान सरिताओं, हरियाली, मनमोहक धरा के सौंदर्य और लोक संस्कृति, साहित्य, परंपराओं से लेकर बहुआयामी माधुर्य भरे जनजीवन की झलक पाना ही अपने आप में कितना अविस्मरणीय और मनोहारी है, यह वही जान सकता है जिसने इन क्षेत्रों का भ्रमण किया हो। आजकल देश की बजाय विदेशों का गुणगान करना और वहाँ के नैसर्गिक वैभव की तारीफ करना कुछ लोगों का शगल बन चुका है। जो लोग विदेशों के भ्रमण से सुकून पाने के आदी हैं उन्हें चाहिए कि एक बार भारतभूमि का अच्छी तरह भ्रमण करके देख लें और उसके बाद ही इच्छा हो तो विदेशों के भ्रमण का विचार करें। हम जिस भी क्षेत्र में रहते हैं, जिस देश में रहते हैं वहाँ की लोक संस्कृति, जीवनदर्शन, रहन-सहन, साहित्य, शिक्षा-दीक्षा, उद्योग-धंधों, परंपराओं, विकास यात्राओं, पुरातन एवं आधुनिक तीर्थों और धार्मिक, सामाजिक एवं दर्शनीय स्थलों, सम-सामयिक आबोहवा और परिवेशीय हलचलों आदि सभी को पूरी जिज्ञासाओं के साथ जानने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
एक बार अपने घर को, अपनी मातृभूमि के वैभव हो देखना चाहिए और उसके बाद अपने पाँव बाहर की ओर पसारने चाहिएं। पूरी दुनिया का भ्रमण और आनंद पाना हर व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य हो सकता है और होना भी चाहिए। लेकिन इसके लिए भ्रमण और ज्ञानार्जन की यह यात्रा अपने घर-आँगन व अपने क्षेत्र से शुरू करनी चाहिए। स्वदेश की जानकारी के बिना विदेशों के बारे में अपार ज्ञान और सुकून इकट्ठा करने का कोई महत्त्व नहीं है। ऎसे लोग पूरी दुनिया का भले ही भ्रमण कर आएं लेकिन स्वदेश के मनोहारी सौन्दर्य की जानकारी पाए बगैर उनके जीवन को पूर्ण नहीं माना जा सकता। आजकल सभी तरफ तकरीबन यही स्थिति है। विदेशी सामान से लेकर विदेशी विचारों और परिवेश तक को महान और धन्य मानने वाले अधिकांश लोग वे ही हुआ करते हैं जिन्होंने अपने स्वदेश का भ्रमण तक पूरा नहीं किया हो अथवा मातृभूमि के बारे में जिनका ज्ञान आधा-अधूरा या उपेक्षा भरा होता है। दूर के सुहावने ढोल की थाप पर थिरकने वाले ऎसे लोग हमारे आस-पास भी खूब हैं और अपने इलाके में भी। जो आए दिन विदेशों का महिमामण्डन करते हुए दिन-रात में कई बार इतराते फिरते हैं और इनके लिए अपनी सरजमीं या देश की बजाय विदेशी मुल्कों का गान करना ही जीवन लक्ष्य हो गया है। इन सारी स्थितियों में हमें दुनिया को जानने का शौक जरूर होना चाहिए लेकिन इससे पहले एक बार स्वदेश को देखना और जानना जरूरी है। चतुर्दिक हजारों-लाखों मील पसरे हुए भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक और बहुविध मुग्धकारी छवि के दर्शन किए बगैर दुनिया को जानने की बातें करना और आनंद पाने के जतन करना व्यर्थ है।
हमारे देश में तीर्थाटन की आदि परंपरा यही दिग्दर्शन कराती है कि पहले अपने क्षेत्रों को जानों, फिर बाहर को जानने की बातें करें। यह तीर्थाटन देश की बहुआयामी प्राकृतिक सुषमा और लोक जीवन तथा परिवेश की इन्द्रधनुषी परंपराओं को अच्छी तरह अभिव्यक्त करता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में कुछ न कुछ नया सीखने और अनुकरण करने का मौका तो मिलता ही है, दिली सुकून का अहसास भी होता है। जो अपने आपको जान लेने के बाद बाहर की यात्रा करता है वास्तव में वही व्यक्ति जीवन और परिवेश के आनंद को अच्छी तरह पा सकता है जिसकी यात्रा अपने भीतर को जानने से आरंभ होती है और सूक्ष्म से विराट तक पहुंचती है अथवा विराट से सूक्ष्म की ओर। आज लोग स्वदेशी तीर्थाटन से लौटते हैं तो सामान्य बात हो गई है। दूसरी तरफ कोई बड़ा आदमी विदेशों से लौट कर वापस अपने घर आता है तो बड़े-बड़े इश्तहार छपते हैं, विज्ञापनों की बाढ़ आ जाती है, कई लोग विदेशों से लौटने पर ऎसे भव्य उत्सव करते हैं जैसे स्वर्ग का आनंद पा कर सदेह वापस लौट आए हों। हालात ये हैं कि कोई एक बार विदेश जाकर आ जाए तो वह रातों रात महान हो जाता है। ऎसे विदेशी भक्तों को कोई अपने देश के बारे में पूछ कर तो बताए कि उनका ज्ञान किस स्तर तक है, देश के बारे में वे क्या जानते हैं। खुद के देश के बारे में जानकारी का अभाव होता है और विदेशों का बखान करते हैं।
कई तो ऎसे हैं जो विदेशों का भ्रमण कर जब भारत लौटते हैं तब विदेशियों और विदेशों की तारीफों के पुल बांधते नज़र आते हैं। मगर जिन बातों और आदर्शों के लिए विदेशियों का महिमागान करते हैं उनकी एक अच्छी बात तक अपनाने में वे कभी आगे नहीं आते। जो लोग विदेशों का जयगान करते हैं उनको चाहिए कि वे अपने जीवन में अच्छे विचारों और श्रेष्ठ आचारों को अपनाना शुरू कर दें और समाज के सामने अच्छा उदाहरण पेश करें, तब तो इनके विदेश भ्रमण का कोई अर्थ है वरना घूमने और क्षणिक आनंद के लिए तो खूब लोग हैं जो एक से दूसरे मुल्क में घूमते ही रहते हैं। अपने यहां के आनंद और सुकून को गौण मानकर बाहरी आनंद को प्राथमिकता देने से वास्तविक आनंद से हम वंचित रह जाते हैं। इसलिए जरूरी है कि हम पहले अपने इलाकों, देश को देखें तथा आनंद लें, सीखें और जीवन विकास को नई गति प्रदान करें। और अपने देश का ज्ञान और भ्रमण पूर्ण करने के बाद ही विदेशों की ओर डग बढ़ाएं। ऎसा होने पर ही हम जीवन में पूर्णता प्राप्त कर पाएंगे और स्वदेश के प्रति स्वाभिमान के भाव जगेंगे। क्योंकि अपने देश को जाने और देखे बिना परायों की तारीफ ही तारीफ करते रहना औचित्यहीन है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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