- - सहरसा-मानसी रेलमार्ग पर हरेक साल मिट्टी कटाव की समस्या जहां लोगों की चिंता बढ़ाती है वहीं एनएच-57 पर सरपट दौड़ती गाड़ियाँ अहसास दिलाती है कि अब पहले वाली बात नहीं रही
- - कुसहा त्रासदी-2008 के बाद सहरसा जिला के 04 प्रखंडों के 45,000 हेक्टेयर व सुपौल जिला के 05 प्रखंडों के 75,000 हेक्टेयर भूमि पर कोसी नदी ने अपनी विभीशिका दिखाई और नदी के साथ बहकर आई सिल्ट की वजह से क्षेत्र की किसानी भी जाती रही
पग पग पोखर माछ मखान, सरस मधुर मुस्की मुख पान,
विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस क्षेत्र मिथिलांचल थीक !
कुमार गौरव, सहरसा/सुपौल: कोसी नदी के तट पर बसे मिथिलांचल और कोसी की पहचान इन चार पंक्तियों में समाहित है। तमाम विशेषताओं के बावजूद यहां गरीबी और बदहाली का साम्राज्य दशकों से रहा, तो इसकी वजह यह थी कि यह इलाका कोसी से अभिशप्त था, और आवागमन के लिहाज से बेहद दुर्गम भी। वक्त ने करवट बदला तो इतिहास ने भी खुद को दोहराया और धारा बदलने के लिए कुख्यात रही कोसी पर बनी महासेतु अब लोगों के लिए जहां वरदान साबित हो रही है वहीं हर वर्ष कुछ न कुछ आबादी विस्थापित भी होती रही है। चंचला कोसी और सड़क महासेतु अब उम्मीदों की कसौटी पर कसी जाने लगी है।
गौरतलब है कि सन् 1936 तक पूर्णिया के इलाके में बहने वाली कोसी धारा बदलते बदलते सुपौल, सहरसा, खगडि़या होकर गंगा में मिलने लगी। इस दौर में साल 1956 में पूर्वी और पश्चिमी कोसी तटबंध का निर्माण हुआ। यह दीगर बात है कि कोसी ने अब तक इलाके में छह बार भीषण तबाही मचायी है। कोसी के त्रासद इतिहास और धारा बदलने की प्रवृत्ति को देखते हुए सवाल उठने लगा था कि क्या यह सेतु कसौटी पर खड़ा उतर सकेगा ? लेकिन सेतु निर्माण से जुडे इंजिनियर्स का दावा रहा कि यह पुल बाढ़ के दिनों भी पूरी तरह से सुरक्षित है। दरअसल इसी आशंका के मद्देनजर साल 2009 में कुछ दिनों के लिए महासेतु निर्माण कार्य को स्थगित कर दिया गया था, और तकनीकी विशेष की टीम ने काफी मंथन के बाद कार्य को दोबारा शुरू करने की हरी झंडी दिखाई थी।
भले ही ईस्ट वेस्ट काॅरिडोर का हिस्सा एनएच-57 के निर्माण कार्य में लेटलतीफी बरती गयी हो, लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर बनी इस फोरलेन पर सरपट दौड़ती गाडि़यां सुखद अहसास दिलाती है, और लोगों में उत्साह का माहौल तो है ही। उधर, कोसी के विस्थापितों का मुद्दा आज भी अनसुलझा है। फिलवक्त विस्थापितों की हक की लड़ाई लड़ रही संघर्ष समिति ने इस मसले को उच्च न्यायालय में उठा रखा है। समिति का कहना है कि आज भी कोसी से लगभग 85 हजार परिवार विस्थापित है। कोसी विस्थापन और तबाही का दर्द देती है तो समृद्धि की भी पैरोकार है। बाढ़ के समय कोसी जो मिट्टी को अपने तटों पर बिछाती है वही मिट्टी बाढ़ के बाद सोना उगलने लगती है। कुसहा त्रासदी के बाद क्षेत्र में किसानों की स्थिति बद से बदतर होने लगी, सुपौल के बसंतपुर, प्रतापगंज, छातापुर, त्रिवेणीगंज, राघोपुर समेत कुछ अन्य प्रखंडों के कई हेक्टेयर जमीन पर बाढ़ ने अपनी विभीषिका दिखाई। कोसी नदी के साथ जो सिल्ट बहकर आई वह जिले के कुल 75,000 हेक्टेयर खेती लायक जमीन को बंजर कर गई। चार साल बीतने के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हो पाई है। हालांकि 2008 विस्थापन के बाद दोबारा आबादी सघन होती गई और लोगों ने खेती के तौर पर मूंग व दलहन की खेती को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। कमोबेश यही स्थिति सहरसा जिले की भी है। जिले के नवहट्टा, सलखुआ, महिषी, सिमरी बख्तियारपुर के अधिकांश हिस्सों मसलन 45,000 हेक्टेयर जमीन पर पानी के साथ सिल्ट जमा हो जाने से खेतों की हरियाली गायब हो गई। हालांकि कृषि विभाग हरकत में आया और गरमा मूंग की खेती व जैविक खाद के प्रयोग के बारे जगह जगह कैंप लगाकर किसानों को बताया गया। तमाम कवायदों के बाद भी इन क्षेत्रों में स्थिति कुछ खास बेहतर नहीं हो पाई है। बावजूद इसके कोसी के दियारा, चैर व पसार इलाका अपनी कठिनाइयों, समस्याओं व जीवट मानव सभ्यता के साथ साथ असीम संभावनाओं के लिए जाना जाता है। बता दें कि कोसी और महासेतु यहां के लोगों की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। समृद्धि की सड़क एनएच 57 पर अवस्थित सेतु से जहां विभाजित संस्कृति का एकीकरण हुआ वहीं कोसी से लोगों का आर्थिक हित भी जुड़ा है। मसलन सूबे को सिल्चर से पोरबंदर तक जोड़ने वाली इस सड़क से न सिर्फ राज्यों के रिश्ते बल्कि विकास के नए आयाम भी खुल रहे हैं। अब व्यापारी तबका जहां सीधे बड़े शहरों से संपर्क साध चांदी कूट रहे हैं वहीं सूबे की राजधानी का सफर भी लोग महज चार-पांच घंटे में तय कर लेते हैं। एक वक्त था जब इलाके के लोगों को बाढ़ के दिनों टापू में होने जैसा अहसास होता था, अब तकदीर ने करवट बदल ली है। बाढ़ के दिनों सहरसा-मानसी रेलमार्ग पर मिट्टी कटाव की समस्या से हरेक साल जहां लोगों की चिंता की लकीरें बढ़ने लगती हैं वहीं एनएच-57 पर सरपट दौड़ती गाडि़यां अहसास दिलाती है कि अब पहले वाली बात नहीं रही। आमलोगों के अलावा व्यापारी तबका बाढ़ के मौसम में धड़ल्ले से सड़क मार्ग का इस्तेमाल कर अपने जरुरत का सामान मंगा रहे हैं।
जब-जब कोसी ने किया निराश :
1: साल 1963, स्थान: डलवा, नेपाल
2: साल 1968, स्थान: गंडौल
3: साल 1971, स्थान: भटनिया
4: साल 1984, स्थान: नवहट्टा, सहरसा
5: साल 1987, स्थान: घोघेपुल
6: साल 2008, स्थान: कुसहा त्रासदी

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