नज़रबंदी की तरह न रहें, घूमने-फिरने की आदत डालें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 31 अगस्त 2013

नज़रबंदी की तरह न रहें, घूमने-फिरने की आदत डालें

जो अपने आपको बाँध लेता है, उसकी मुक्ति भगवान भी नहीं कर सकता।  आजकल हम लोगों की स्थिति ऎसी ही है जो बँधे हुए हैं। हमें किसी और ने नहीं बाँध रखा है, न हम कैदी या नज़रबंदी हैं। हमने आपको बाँध रखा है।

यह आत्मबंधन है ही ऎसा कि हम चाहते हुए भी अपने आपको कभी बंधनमुक्त अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। हम हर दृष्टि से मुक्त हैं मगर हमने अपने आपको इस कदर बाँध रखा है कि जैसे किसी ने हमें जबर्दस्त कालजयी अजगरी पाश में जकड़ कर एक जगह स्थिर कर दिया हो, जहाँ हम अपनी इच्छा से हिलना-डुलना भी नहीं कर सकते हैं।

यह आभासी पाश हममें से अधिकांश लोगों को जकड़े हुए है। मुक्ति की इच्छा और अहसास दोनों हमें अभीप्सित हैं लेकिन मन के बंधनों से इतने जकड़े हुए हैं कि हमें ताजिन्दगी इस बात का अनुभव हो ही नहीं सकता कि हम भी आजाद पंछी की तरह परिव्राजक होकर खुले आकाश में मुक्त भ्रमण और निस्सीम उड़ान का आनंद भी ले सकते हैं।

आजकल समुदाय की स्थिति लगभग ऎसी ही है जो चाहते हुए भी बंधन मुक्ति का अनुभव नहीं ले सकता। हममें से खूब सारे लोग बिना किसी प्रत्यक्ष बंधन के अपने आपको हमेशा बंधे हुए महसूस करते हैं। हालत कमोबेश हर प्रकार के लोगों के लिए एक जैसी ही है। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब और सबल-असहाय सभी लोग ऎसे हैं जो सब कुछ होते हुए भी जकड़े हुए हैं और दुनिया का आनंद पाने से वंचित हैंं।

ईश्वर ने हम सभी लोगों को इतना तो दिया ही है कि जीवन में मस्ती के साथ जीने का अभ्यास बनाते हुए पूरे आनंद की प्राप्ति करें और मनुष्य जन्म को मौज-मस्ती व संतोष के साथ गुजारते हुए ऊध्र्वगामी बनाएं। ऎसा नहीं भी कर सकें तो कम से कम मनुष्य के रूप में एक औसत जिन्दगी तो जी ही सकते हैं।

नज़रबंदियों की सर्वाधिक संख्या अभिजात्य वर्ग में होती है जहाँ रुपया-पैसा और भोग-विलास तो अपार है मगर अपने कहे जाने वाले लोगों के लिए समय नहीं मिल पाता है। ऎसे में इन बड़े घरानों के लोगों में दो प्रकार के प्राणियों का बाहुल्य होता है। एक वे हैं जो निन्यानवें के फेर में दिन-रात घूमा करते हैं और उन लोगों को पता ही नहीं रहता किए वे अपने लिए कब जी पाएंगे। दूसरे ऎसे हैं जो समृद्ध और बड़े कहे जाते हैं मगर सामान्य लोगों की तरह भी जिन्दगी बसर नहीं कर पाते।

इन दोनों ही किस्मों के लोगों की स्थिति एक जैसी ही होती है। एक किस्म सश्रम कारावासी कैदी की तरह काम करती रहती है और दूसरी प्रजाति बिना किसी काम-काज के नज़रबंद कैदी की तरह रहने को विवश है।

आजकल अधिकांश पैसे वालों की स्थिति है ही ऎसी। घर की चार दीवारी में नज़रबंद होकर बीमारियों को आमंत्रण देने और फालतू के सोच-विचार से ऎसी घिरी हुई है कि हमेशा बंधनों के बीच फंसे होने का अनुभव करते हुए कुढ़ती रहती है।

इन दिनों खूब लोगों ऎसे देखे जा रहे हैं जिनके पास खूब दौलत है, सभी प्रकार के संसाधन हैं, फिर भी उन्हें लगने लग गया है कि जीवन बोझ है और जितना जल्द हो, इसका अंत होने के सिवा मस्ती पाने का और कोई रास्ता है ही नहीं।

इस किस्म के तमाम लोगों को जीवन में फिर से ताजगी पाने के लिए घर की कैद से बाहर निकल कर रोजाना खुली हवा में घूमना चाहिए, रोजाना अपने इलाके का भ्रमण करते हुए नई-नई जगहों और दर्शनीय स्थलों, धार्मिक ठिकानों तथा नैसर्गिक क्षेत्रों को देखने तथा सेवा के किसी न किसी कार्य में जुड़ने का अभ्यास बना लेना चाहिए तभी ये आत्मबंधन और घुटन भरी जिन्दगी से मुक्त होकर ताजगी और जीवनी शक्ति पाकर नवजीवन का आनंद पा सकते हैं।

सब कुछ होते हुए भी हम संसाधनों का इस्तेमाल हमारे अपने लिए न कर सकें तो यह मान लेना चाहिए कि मृत्यु ही हमारा ईलाज है। और उसके लिए प्रयास नहीं करने पड़ते, एक न एक दिन उसे अपने करीब आना ही है।




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---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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