हमारे पास और आस-पास जो भरा पड़ा है उसे हम खर्च करना नहीं चाहते हैं और उस जमीन-जायदाद पर हमारी निगाह हमेशा लगी रहती है जो बिना पुरुषार्थ के कहीं से प्राप्त हो जाए। पुरुषार्थ और स्व पराक्रम से अर्जित धन-सम्पत्ति पर अपना अधिकार होने की बात स्वीकारी जा सकती है लेकिन जो जोग पुरुषार्थ नहीं करना चाहते, हराम की धन-दौलत पर निगाह रखते हैं, औरों को किसी न किसी प्रकार का भय या प्रलोभन दिखाकर किसी न किसी बहाने पैसा लूटने के उपक्रम में लगे रहते हैं और हमेशा इसी फिराक में लगे रहते हैं कि जो कुछ बाहर है वह उनके घर-आँगन या बैंक लॉकर में कैसे आ जाए, उन लोगों को यह अच्छी तरह मान लेना चाहिए कि इस धन-सम्पत्ति या जमीन का उपयोग वे कभी नहीं कर पाएंगे।
पुरातन काल से लेकर आज तक राजा- महाराजाओं और सम्राटों के महल, किले और भव्यता में बेजेाड़ रहे राजप्रसादों से लेकर कुबेर की तरह भरे हुए हीरे-जवाहरातों और रजत-स्वर्ण के भण्डारों की असलियत से रूबरू होना होगा। ये जमीन-जायदाद न उनके काम आ पायी, न उनके वंशज ही उनका कोई उपयोग कर पा रहे हैं।
सिर्फ और सिर्फ वे ही राजा-महाराजा अपनी सम्पत्ति और प्रासादों का मौज-मस्ती के साथ उपयोग कर पाए जिन्होंने प्रजा के हितों को सर्वोपरि समझा और पूरी तरह धर्म के मार्ग पर चले। जिन लोगों ने बेगारी और ऎय्याशी को बढ़ावा दिया और खजानों का उपयोग अपने लिए ही किया, उन लोगों तथा उनकी रियासतों-सल्तनतों की क्या दुर्गति हुई, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।
आमतौर पर जो भी व्यक्ति पुरुषार्थहीन होते हैं उन्हीं को धन संग्रह के लिए वह सब कुछ करना पड़ता है जो एक अच्छे इंसान के लिए वज्र्य कहा गया है। ये ही लोग हैं जो धन-सम्पत्ति पाने के लिए हर तरह के नाजायज कामों का सहारा लेते हैं और दुनिया भर की धन-दौलत को अपनी हदों में लाने के लिए जीवन पूरा खपा देते हैं।
बिना पुरुषार्थ का एक पैसा भी किसी को आनंद नहीं देता है। आज जो लोग पराये धन पर मौज को आनंद मानकर चल रहे हैं यह उनके भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। हालात ये हैं कि जिनके पास हराम की कमायी धन-दौलत जितनी ज्यादा है उस अनुपात में वे ज्यादा दुःखी हैं। यहाँ तक कि ये लोग एक निर्धनतम आदमी की तरह खाना-पीना भी नहीं कर सकते, न उतने मस्त रह सकते हैं, दिन-रात धन के बारे में चिंता लगी रहती है वो अलग।
पूर्वजों के धन पर निगाह रखना और बिना कुछ मेहनत किए हराम की कमाई करना हमारी नपुंसकता का ही प्रतीक है। हमारे पूर्वज जो कर गए, वह भी हम नहीं कर पा रहे हैं। जो हमारे पास है उसका धर्मसंगत और न्यायसंगत उपयोग करें और जो कुछ करें वह समाज तथा देश के लिए करें, अपने आपको स्वामी मानकर नहीं बल्कि मैनेजर या ट्रस्टी मानकर हम काम करें, तब ही धन का उपभोग और उपयोग हर कर पाते हैं अन्यथा हमारी सारी शक्ति धन का चिंतन, खनन और संग्रहण करने में ही लगी रहती है और एक दिन ऎसा आ ही जाता है जब हम खाली हाथ लौट पड़ते हैं।
पीछे रह जाते हैं किस्से - हमारे भूखे, नंगे, भ्रष्ट और लूटखोर होने के। यह वह वक्त होता है जब लोग पूरी तरह मुखर होकर कहने लगते हैं कि इस आदमी ने ब्लेकमेलिंग, हराम की कमाई, लोगों को डरा-धमकाकर, अतिक्रमण कर, पूर्वजों के गड़े धन को बाहर निकाल कर इतना जमा कर लिया कि सात पीढ़ियों तक न खूटे, मगर खुद जिन्दगी भर भिखारी और दरिद्री की तरह रहा, न खा-पी सका, न दान-पुण्य कर सका, दुनिया भर के उल्टे-सीधे धंधों और गलत कामों के पापों का बोझ अपने सर पर लेकर गया। आखिर कितने जनमों तक ये भुगतेगा साला, बड़ा ही कमीन था, अच्छा हुआ चला गया।
पूर्वज हमें जहाँ छोड़ गए हैं उससे आगे की यात्रा करना हमारा पुरुषार्थ और दायित्व दोनों ही है। पहले अपने आपको धर्म एवं नीतिसंगत बनाएं, फिर पूर्वजों के माल की ओर निगाह रखें। यह नपुसंकता त्यागकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। और ऎसा नहीं कर पाएं या हमारे मन में परंपरागत खोट बनी रहे, तो समझ लेना होगा कि हमने अपनी दुर्गति को आमंत्रित कर लिया है। इसका परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाएं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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