समलैंगिक संबंध पर पाबंदी लगाने वाले कानून को सही ठहराने के सर्वोच्च न्यायालय के बुधवार के फैसले को ह्यूमन राइट्स वाच ने निराशाजनक बताया। ह्यूमन राइट्स वाच ने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मानवीय गरिमा, निजता के मूलभूत अधिकार और समानता के सिद्धांत के लिए निराशाजनक है।" अधिकारवादी संस्था ने कहा, "दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 के फैसले को रद्द करने का सर्वोच्च न्यायालय का फैसला प्रत्येक व्यक्ति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त निजता और समानता के अधिकार को माान्यता देने में असफल रहा।"
जुलाई 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि 'अप्राकृतिक अपराध' अधिनियम को आपसी सहमति से संबंध बनाने वाले वयस्कों पर लागू नहीं किया जा सकता है। उच्च न्यायालय ने तब नाज फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट के नेतृत्व में करीब एक दशक तक लड़ी गई कानूनी लड़ाई के बाद फैसला दिया था। सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला कई धार्मिक समूहों और व्यक्तियों ने उठाया था।
ह्यमन राइट्स वाच सहित कई लैंगिक अधिकारों और एलजीबीटी समूहों ने लगातार भारत सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 समाप्त करने की मांग की है, लेकिन सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करने का रास्ता चुना। अधिकारवादी संगठन ने कहा कि भारत सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील नहीं की थी, क्योंकि शायद वह इससे सहमत थी। इसलिए अब उसे धारा 377 को रद्द कर देना चाहिए और आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों के समूह में शामिल होना चाहिए।

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