आलेख : हमेशा बना रहे, सावन का लीलाविलास - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 27 जुलाई 2014

आलेख : हमेशा बना रहे, सावन का लीलाविलास

सावन का ये मदमाता मस्त मौसम, रिमझिम फुहारें, भीनी-भीनी हवाओं के इशारों पर नृत्य करते पेड़-पौधे और नैसर्गिक रमणीयता का दिग्दर्शन कराती धरा। सब कुछ तन-मन को खुश कर देने वाला, भीतर तक सुकून का दरिया उमड़ा देने वाला। हर कोई मस्त है अपने जीवन की सारी वेदनाओं, अभावों और कठिनाइयों को भूल कर। सब खो जाना चाहते हैं कि प्रकृति के उन्मुक्त लीलाविलास में, डूब जाना चाहते हैं आनंद और उल्लास के इस महासागर में। हर तरफ उत्साह उछाले मार रहा है और लगता है जैसे सारे के सारे सावन में भीग कर मदमस्त हो रहे हैं।  कोई ऎसा नहीं बचा है जो सावन का आनंद नहीं ले पा रहा हो। कुछ अपवादों को छोड़कर हर तरफ सावन ही सावन नज़र आ रहा है।

सावन का आनंद प्रकृति के उन्मुक्त विलास की अभिव्यक्ति का द्योतक है जिसमें यह संदेश समाया है कि जहाँ प्रकृति पूजा है वहीं शाश्वत आनंद और विलास है। जहां प्रकृति का अनादर हो रहा है वहाँ न सावन है न भादो। सावन का सीधा और शाश्वत संबंध प्रकृति से है। जहाँ प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन ठीक-ठाक है, जहां प्रकृति के प्रति पूजा और आदर भाव है, वहाँ सावन की प्रतिष्ठा अपने आ हो जाती है। न बादलों को आमंत्रित करना पड़ता है न और कोई अनुष्ठान करने होते हैं। पंच तत्वों और प्रकृति का जहां कहीं पूरा सम्मान है वहीं सावन बरकरार  रहता है। इस सत्य को जानकर जो सावन के बुनियादी तत्वों के प्रति गंभीर होता है वहां सावन बराबर आता रहता है और लोगों को सुकून देता रहता है।

सावन को किसी एक माह तक ही बाँधने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। सावन अपने आप में हमारे लिए संदेश लेकर आता है। सावन को चाहने और इससे आनंदित होने वालों को ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि आज जो लोग सावन का मजा ले पा  रहे हैं वह हमारे पुरखों की देन है जिन्होंने पेड़-पौधों और जंगलों तथा हरियाली को बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं किया। देवी-देवताओं की तरह जंगलों को पूजा और संरक्षित किया।

वर्तमान का सावन उन लोगों के लिए समर्पित है जो पुरानी पीढ़ी के कहे जाते हैं, जिन्होंने प्रकृति की पूजा की, पेड़-पौधे लगाए, जंगलों को बचाया और आज हमारे लिए सावन की भावभूमि छोड़ कर रख गए। इस सावन को बनाए रखने के लिए हम क्या कुछ कर रहे हैं, यह यक्ष प्रश्न भी सावन को हमसे हर बार पूछने का अधिकार है। हम कितने पेड़ लगा रहे हैं, जंगलों की कितनी रक्षा कर पा रहे हैं और प्रकृति के प्रति हमारा पे्रम अब कितना रह गया है।

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की तनिक भी ईमानदार कोशिश की जाए तो हमें अपने आप जवाब मिल जाएगा हमारी अपनी अंतर आत्मा से ही। आज हम सावन का आनंद ले पा रहे हैं लेकिन जो प्रकृति यह सब कुछ दे रही है उसके प्रति हम कितने ईमानदार हैं, यह हमसे छिपा हुआ थोड़े ही है।  हम जिस हिसाब से एकतरफा स्वार्थी हो गए हैं, प्रकृति के दोहन से भी कई गुना आगे बढ़कर जिस हिसाब से शोषण कर रहे हैं, जंगलों और वनों का सफाया कर रहे हैं, पेड़-पौधों को लगाने के प्रति बेपरवाह हो रहे हैं, उस हिसाब से तो लगता है कि आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ तक कर पाने की स्थिति में नहीं होंगी।

जब प्रकृति के उपादान ही नहीं रहेंगे तो भावी पीढ़ियाँ सावन का सुख और आनंद कहाँ से ले पाएंगी। यही तो कह रहा है सावन। सावन निरन्तर उल्लास और उत्साह से आगे बढ़ते चले जाने का दूसरा नाम है और इस आनंद को आगे तक संवहित करते जाना वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है। सावन को बनाए रखने और इसके आनंद घनत्व को और अधिक बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम लोग सावन के आनंद के पीछे छिपे मूल तत्वों को समझें।

हम यह भी देखें कि शिव की पूजा-उपासना का यह माह है जिसमें हमें यह भी देखना है कि शिव को कहाँ रहना पसंद है। शिव कभी भी आरसीसी, ईंट गारे और पाषाणों के भवनों, कोलाहल, प्रदूषण और अशांति भरे माहौल में नहीं रहते। उन्हें चाहिए खुली प्रकृति और उन्मुक्त आकाश। शिव को नदी-नाले, झरने, जलाशय, पहाड़, पेड़-पौधे, जंगल, घनी हरियाली और शुद्ध वायु । और हम हैं कि जो शिव को पसंद हैं उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। ऎसे में न तो सावन का आनंद लिया जा सकता है न भगवान भोलेनाथ की कृपा पायी जा सकती है।

सावन के मूल मर्म और शिवत्व के संदेश को आज समझने की आवश्यकता है। हम साल भर सावन का अस्तित्व बनाये रखकर सत्यं शिवं सुन्दरं का सुनहरा स्वरूप दिखा सकते हैं, असीम आत्मतोष भरा सुकून पा सकते हैं, पूरी जिन्दगी आनंद पा सकते हैं और वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं जो सावन देता है।  जीवन भर सावन को बनाए रखने के लिए हमें करना होगा समर्पण प्रकृति के प्रति, और जुटना होगा पंचतत्वों से जुड़े सभी प्रकार के आयामों के संरक्षण-संवर्धन में। तभी हमारे जीवन का हर क्षण सावन होगा और शिव के सामीप्य का सुन्दर सा अहसास भी। इसके बगैर एकाध माह का यह सावन हमें हरा-हरा दिखाकर जाने कहाँ गायब हो जाएगा, और हम फिर वहीं, जैसे थे। अपना दुखड़ा रोने और अफसोस करते रहने के लिए हमेशा तैयार।





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---डॉ. दीपक आचार्य---
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