जम्मू-कश्मीर की नई नवेली सरकार के काम करने का अंदाज़ ही निराला है। वह एक क़दम आगे बढ़ाती है तो उसकी सहयोगी भाजपा उसे दो क़दम पीछे खींचने पर मजबूर कर देती है। सत्ता चलाने का अनुभव रखने वाले मुख्यमंत्री से राज्य की जनता को काफी अपेक्षा थी। आशा की जा रही थी कि उनके द्वारा लिए गए प्रत्येक फैसले में विकास का एजेंडा छुपा होगा। परन्तु हमारा आज़ाद और लोकतांत्रिक देश इसी दुनिया के नक््शे पर आबाद है जहां विभिन्न प्रकार के प्राणी विचरण करते हैं और इन्हीं में सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य भी है। जिसमें किसी को रोज़ी-रोटी की चिंता है तो किसी को कार और कोठी की चाहत, किसी को अपनी इज़्ज़त की रक्षा की चिंता है तो किसी को दूसरों की इज़्ज़त को तार-तार करने का नशा, किसी की जि़ंदगी ऐशो आराम से गुज़र रही है तो कोई मुसीबतों के पहाड़ में दब कर जी रहा है, कोई अपनी कमाई पर गर्व करता है तो कोई दूसरों की जमा-पूंजी पर नज़र गड़ाए रखता है, किसी का जीवन कठिनाइयों के बीच गुज़रता है तो किसी के लिए सफलता के द्वार आसानी से खुल जाते हैं। ऊँच-नीच है, छुआछात है, कहीं समुदाय का टुकड़ा तो कहीं देश का टुकड़ा, राज्य, जिला, तहसील, पंचायतों के बटवारे हैं, कहीं आज़ादियां हैं तो कहीं गुलामों की जि़न्दगी, कहीं शादियां हैं तो कहीं मातम। संक्षेप में किसी न किसी रूप में जीवन का चक्र चलता ही रहता है। प्रकृति के बनाये धरती पर, सभी जीवन में अपने अपने किरदार को अदा कर रहे हैं। परंतु सभी को एक दूसरे से आगे निकलने की चिंता सताती रहती है। इन्हीं में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने अधिकारों से अनजान हैं। यह सब इसलिए क्यूंकि यह अपने ही घर में बंधक जैसा जीवन गुज़ारने को मजबूर हैं।
ऐसा उदाहरण जम्मू-कश्मीर के ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिल जाता है। जहां के निवासियों को जि़न्दगी गुज़ारने की चिंता है, बनाने की नहीं। जीवन में रौशनी, एहसास, अच्छी सोच और अपने अधिकारों के प्रति सचेत केवल शिक्षा से ही प्राप्त हो सकती है। लेकिन जम्मू-कश्मीर के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की बहुत कमी है। इस वर्ष 26 जनवरी को दिल्ली की एक गैर सरकारी संस्था चरखा की ओर से राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्र बीकानेर के बज्जूू में कार्यरत उरमुल ट्रस्ट के कामकाज को क़रीब से देखने का अवसर प्राप्त हुआ। रेगिस्तान और दूर-दूर फैली आबादी के बीच उरमुल का कार्य आश्चर्यजनक था। उरमुल की स्थापना 1972 में हुई थी। उत्तर राजस्थान मिल्क लिमिटेड (उरमुल) में तब से लेकर आज तक बहुत सारे उतार चढ़ाव आते रहे हैं। बहुत सारी कठिनाइयों के बावजूद विभिन्न क्षेत्रों में इस संस्था को सफलता भी प्राप्त हुई है। जिनमे बालिका शिक्षा, आंगनबाड़ी सेंटर, जिन क्षेत्रों में स्कूलों की आवश्यकता थी वहां स्कूल की स्थापना और सामाजिक तथा भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार रोज़गार उत्त्पन्न कराना इस संस्था की प्रमुख उपलब्धि रही है। इस संस्था ने ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ा जो हाथ से काम करने वाले पारम्परिक पेशे में निपुण थे। परन्तु बटवारे और विस्थापन के कारण यह कला धीरे धीरे विलुप्त हो रही थी। उरमुल सीमांत ने ऐसे लोगों को फिर से इस पेशे को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। इनके तैयार सामानों को बाजार में बेचने का जि़म्मा उठाया और उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। इस परंपरागत पेशे से जुडी एक महिला मोहिनी के अनुसार- ‘‘मैं विशुद्ध रूप से ग्रामीण महिला हूं परंतु जबसे हम उर्मुल से जुड़ेे हैं हमारे जीवन की दशा और दिशा ही बदल गई। हमारे काम के कारण वर्ष 2014 में मुझे हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा के हाथों पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है जो मेरे लिए गर्व की बात है। यदि आप शिक्षा के साथ साथ किसी परंपरागत कला में निपुण हैं तो बाजार आप को स्वयं ढूंढेगी न कि आप को बाजार तलाशने होंगे।’’ एक अन्य महिला निशा चैहान के अनुसार वर्तमान में उरमुल सीमांत 192 आंगनबाड़ी केंद्रों की जि़म्मेदारी के अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों के स्कूलों की साफ-सफाई का जि़म्मा भी उठा रही है।
राजस्थान के बीकानेर के अपने दौरे के दौरान मुझे भी उरमुल नेटवर्क की संस्थाओं में कार्यरत अनुभवी लोगों के अलावा यहां के स्थानीय लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। इस छोटे से दौरे में सारी जानकारियां प्राप्त करना मुश्किल था। परन्तु उनके विकास के कार्यों का अवलोकन एक नया अनुभव था। इस क्षेत्र में किये जा रहे परंपरागत दस्तकारी के काम को देखकर पुंछ की मंडी तहसील के अड़ाई गांव की विलुप्त हो चुकी दस्तकारी याद आ गई। यहां भी कभी दस्तकारी का काम बड़े पैमाने पर हुआ करता था मगर तैयार सामान के लिए बाज़ार उपलब्ध न होने की वजह से यह कला विलुप्त होती चली गई। यहां के दस्तकार लोइ, चश्म बुलबुल, सादा कंबल, शरीदार लोई, प्रत्मि लोई, दोहरी लोई, किनारीदार, पितावा, नमाज़ पढ़ने वाली चादर, पट्टूू, कोट, शेरवानी, बास्केट, टोपी और गर्म कपडे आदि तैयार करते थे और यह सब शुद्ध देसी भेड़ों की ऊन से तैयार था। इनसे तैयार कपड़े बहुत ही गर्म और आरामदायक होते थे। बच्चे भेड़ों को चराया करते थे और महिलाएं प्राप्त ऊनों को चरखा पर काता करती थीं। तानां और पीटा तैयार करने के बाद उनकी लोइयां बनाई जाती थीं। यही कारण था कि पूरे पुंछ जि़ले से लोग इस गांव में लोइयां बनवाने आते थे। लोइयां बनाने की मशीन को खड्डी कहते थे। इसे लगाने के लिए घर के अंदर एक जगह ढाई अथवा दो फीट गड्ढा खोद कर सेट कर दिया जाता था। पैरों के पास चार ब्रेक होते हैं, इनके ऊपर डंडे भी चार होते हैं, चार-चार खंजी, एक हत्था, एक कंगी, चार-चार रेंकडी, 6 रस्सियाँ, एक तहरयानी, गार्डयेंक, नाल, टोंक, कोहरा, शेठ की रस्सी, तसरी, अंडला इत्यादि इससे जुडी सामग्री हुआ करती थी। आज से दस ग्यारह वर्ष पूर्व इस गांव में दुकान अर्थात खड्डी थी। इस कार्य से तकरीबन 300 लोगों को रोज़गार मिला हुआ था।
लेकिन वर्त्तमान में इस काम से जुड़ा कोई नहीं हैं। हालांकि इससे जुड़े दो परिवार अब भी यहां मौजूद हैं। इस हुनर के ख़त्म होने की सबसे बड़ी वजह नई पीढ़ी का इस तकनीक से जुड़ाव नहीं होना है। साथ ही साथ इसके लिए उचित मार्केट का अभाव होना है। कुछ वर्ष पूर्व इस हुनर को बचाने के लिए स्थानीय कारीगरों ने एक सोसाइटी की स्थापना भी की थी ताकि लोग इससे जुड़कर रोज़गार प्राप्त करते हुए इसका संरक्षण भी कर सकें। परंतु वह सोसाइटी भी चंद रसूखदारों के हाथों सिमट कर रह गई। अभी ज़रूरत इस बात की है कि इस परंपरागत हुनर को नई तकनीक के साथ जोड़ दिया जाये और शिक्षित नौजवानों को इस काम के प्रति जागरूक किया जाये। इन युवाओं को कम ब्याज पर क़र्ज मुहैया कराया जाये। ताकि खोई हुई विरासत को पुनः स्थापित कर बेरोज़गारी को दूर किया जा सके। वर्तमान की राजनीति ने जम्मू-कश्मीर का महज़ इस्तेमाल किया है। इस राज्य की पहचान कभी अमन-शांति, भाईचारा और हुनरमंदी के लिए पूरी दुनिया में होती थी न कि झगडे की सियासत से। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हुनरमंदी पर अधिक ज़ोर दे रहे हैं। परन्तु राज्य का हैंडीक्राफ्ट विभाग आज भी सिर्फ एक विशेष बात का हवाला देकर न केवल शांत हो जाता है बल्कि दूसरों को भी समझाने का प्रयास करता है कि हुनरमंदी और कशीदाकारी का अच्छा काम केवल श्रीनगर और उसके आसपास ही होता है। पुंछ के निवासी सरहद पर बसे होने और गोलाबारी के कारण लगातार शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गए हैं। लेकिन यह मत भूलिए कि सीमा पर केवल पुंछ या श्रीनगर आबाद नहीं है बल्कि बीकानेर और राजस्थान भी बसा है। जब वहां कि किसी महिला को उसके परंपरागत कार्य के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा सकता है तो जम्मू-कश्मीर के हुनरमंदों को क्यूं नहीं? इस राज्य की पहचान केवल झंडे और जेल से नहीं अपितु दस्तकारी और फनकारी से ही होती है। कश्मीर, जम्मू और लद्दाख तीनों की पहचान उसके परंपरागत हुनर से दुनिया में है और यही इसकी वास्तविक पहचान है। इसलिए राज्य और केंद्र सरकार को चाहिए कि इसकी पहचान को दोबारा बहाल करने के लिए गंभीर प्रयास करे।
मो. रियाज़ मलिक
(चरखा फीचर्स)


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