पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने आधिकारिक रिकार्ड में अपनी जन्मतिथि 1 जुलाई 1927 दर्ज कराई थी। आज भी रिकार्ड में जन्मतिथि के नाम पर यही तारीख अंकित है लेकिन उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने 17 अप्रैल को उनकी जयंती घोषित करते हुए इस दिन सरकारी कार्यालयों में अवकाश का आदेश जारी कर दिया। इस कारण चंद्रशेखर के साथ एक और विवाद जुड़ गया है।
मजेदार बात तो यह है कि आम लोग यह नहीं जानते कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 17 अप्रैल को जिन चंद्रशेखर के नाम पर अवकाश घोषित किया है वे सोशलिस्ट नेता चंद्रशेखर हैं। आम लोगों से बातचीत हुई तो पता चला कि उन्हें यह गुमान है कि यह छुट्टी अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के जन्मदिन के नाते घोषित की गई है। चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के नाम पर कोई अवकाश घोषित न करना कांग्रेसी शासन में तो स्वाभाविक था क्योंकि इस पार्टी के मानस पिता महात्मा गांधी की नजर में जो कि साम्राज्यवाद द्वारा गढ़े गए भारतीय गौरव पुरुष रहे हैं चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की परंपरा आतंकवाद की परंपरा है लेकिन गैरकांग्रेसी दल भी कांग्रेस के इस यकीन को बनाए रखने में विश्वास करेंगे यह उम्मीद किसी को नहीं थी।
बहरहाल आधुनिक विश्व में क्रांति के प्रतीक पुरुषों में दो नाम सर्वोपरि हैं एक है लेनिन का और दूसरा माओत्सेतुंग का। लेनिन कहते थे कि जनता कभी गलत नहीं होती। यह दूसरी बात है कि इस देश में यहां के स्वयंभू पंडितों की निगाह में जनता ही हमेशा गलत होती है। मीडिया के पंडितों ने चंद्रशेखर को हमेशा बड़े नेता के रूप में प्रस्तुत किया। यह दर्शाया कि वीपी सिंह से विरासत में मिले अशांत देश को फिर संभालने में उनकी बड़ी भूमिका रही लेकिन जो चुनाव हुआ उसमें चंद्रशेखर का चार महीने बनाम चालीस साल का नारा मजाक बनकर रह गया। अगर बलिया के पांच मंत्री मुलायम सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में न रखे होते तो प्रधानमंत्री बनकर देश पर महान उपकार करने वाले चंद्रशेखर को भी जनता हरा देती। बाकी उनके केवल पांच सांसद जीत पाए थे जिनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो उनके नाम पर जीता हो। सब अपनी-अपनी जगह खुद व्यक्तिगत प्रभाव में इतने मजबूत थे कि उन्हें जीतना ही था। जैसे एचडी देवगौड़ा और बेनीप्रसाद वर्मा के गृह जनपद बाराबंकी व मुलायम सिंह के गृह जनपद इटावा में उनकी पार्टी से जीते सांसद। जनता इसी वजह से अनायास यह नहीं सोच पाती कि कोई सरकार चंद्रशेखर जैसे व्यक्तित्व के लिए भी अवकाश घोषित कर सकती है। जनता इसी कारण उनके लिए किए गए अवकाश को चंद्रशेखर आजाद की स्मृति में अवकाश घोषित किए जाने की गलतफहमी पाल बैठी।
चंद्रशेखर के हैप्पी बर्थ डे पर अवकाश घोषित करने के उपलक्ष्य में आज क्षत्रिय महासभा ने लखनऊ में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रति आभार गोष्ठी का आयोजन किया। इस लेखक की हमेशा यह धारणा रही है कि जातिवादी चेतना प्रतिभा विहीन और क्षमता विहीन लोगों की गरज है। ऐसी भीड़ हमेशा शार्टकट में जाति को ताकत देने वाले प्रतीकों को अपने मानबिंदु के रूप में स्थापित करती है। चंद्रशेखर और राजा भैया ठाकुरों के गौरव हैं तो रंगरेलियों के लिए मशहूर नारायण दत्त तिवारी सपा द्वारा गढ़े गए ब्राह्म्ïाण गौरव हैं।
चंद्रशेखर के बारे में ध्यान दिला दें कि 1991 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उस समय की अपनी पार्टी सजपा के सुप्रीमो चंद्रशेखर के प्रचार के लिए गए मुलायम सिंह को बलिया में उनके समर्थक दबंग ठाकुरों ने सभा में जूते उल्टे करके दिखाए थे। जब जगन्नाथ चौधरी ने चंद्रशेखर को संसदीय चुनाव में हराया था तो बलिया के ठाकुरों को जबरदस्त ठेस लगी थी। जगन्नाथ चौधरी यादव बिरादरी से थे और अहीर के हाथों अपने कुलगौरव का हारना बलिया के दबंग ठाकुरों को बर्दाश्त नहीं हुआ था। इसी कारण मुलायम सिंह और चंद्रशेखर का कैर-बैर का यह संग ज्यादा दिन नहीं निभा। अगले ही साल चंद्रशेखर की सजपा से अलग होकर मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बना ली। यादव किसी मामले में कम नहीं हैं लेकिन वर्ण व्यवस्था की वजह से उन्हें दबकर रहना पड़ा और जब लोकतंत्र आया तो उनके द्वारा राजनैतिक प्रतिस्पद्र्धा करने के प्रयास को ठाकुरों ने किस रूप में लिया यह अब बलिया के नेता रूप में स्थापित हो चुके नारद चौधरी अच्छी तरह बता सकते हैं। आज बलिया में यादव नेतृत्व में हैं और ठाकुर उनके पिछलग्गू। इसी कारण बलिया के ठाकुरों के उकसाने पर चंद्रशेखर के बड़े पुत्र पंकज शेखर भाजपा का दामन थाम चुके हैं।
चंद्रशेखर एक आदमी का नाम है लेकिन उनकी शख्सियत दो भागों में बंटी हुई है। एक चंद्रशेखर हैं जो 1977 के पहले तक उसूलों के लिए काम करने वाले तेजस्वी युवा तुर्क। इंदिरा गांधी का उन पर विश्वास रहा तो उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा प्रगतिशील कदम उठाने में उन्हें ताकत दी जो इंदिरा जी के द्वारा जयप्रकाश नारायण को आपातकाल में गिरफ्तार किए जाने के फैसले के खिलाफ अपना राजनीतिक कैरियर ही नहीं व्यक्तिगत जीवन भी दांव पर लगाकर आवाज उठाने का जोखिम मोल लेने से नहीं कतराए और इसके बदले में उन्हें भी इंदिरा गांधी ने जेल में डलवा दिया। दूसरी पार्ट के चंद्रशेखर हैं वे जिन्होंने भोलेभाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण का विश्वास अर्जित करने के बाद जूनियर मोस्टर होते हुए भी दूसरी तथाकथित आजादी के अवतार जनता पार्टी का अध्यक्ष पद अप्रत्याशित सौगात के बतौर हथिया लिया। उस समय के कई राजनीतिक आलेखों में इस बात की चर्चा हुई कि जेपी की मासूमियत का चंद्रशेखर ने किस तरह राजनीतिक फायदा उठाया। इसके बाद उनकी महत्वाकांक्षाएं आसमान पर पहुंच गईं। 1984 में कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पद यात्रा के बाद चंद्रशेखर को यह विश्वास हो गया था और उनके समर्थक पत्रकार भी यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि जल्द ही वे देश के आगामी प्रधानमंत्री होंगे लेकिन इंदिरा गांधी की असमय हत्या ने उनका खेल खराब कर दिया। उनका पायलट पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गया। यहीं से चंद्रशेखर का फ्रस्टेशन शुरू हुआ। उसकी चरमसीमा तब हुई जब उनसे जूनियर वीपी सिंह गैर कांग्रेसी सरकार आने के बाद प्रधानमंत्री हो गए। जैसा कि मीडिया के पंडित प्रचारित करते हैं वीपी सिंह का प्रधानमंत्री बनना देवीलाल की कृपा का नतीजा नहीं था बल्कि जनभावनाएं पूरी तरह उनके पक्ष में थीं और चंद्रशेखर का जनभावनाओं के बीच में कोई स्थान नहीं था।
चंद्रशेखर के साथ एक और समस्या थी कि वीपी सिंह उनके सजातीय भी थे और कोई अन्य ठाकुर उनसे बाजी मार ले जाए यह उनसे कैसे गवारा होता। यह दूसरी बात है कि वीपी सिंह ने व्यक्तिगत तौर पर ठाकुरों का कभी कोई काम नहीं किया। इसके बावजूद जाति के अंदर की प्रतियोगिता में भी उन्होंने चंद्रशेखर को पछाड़ दिया। हो सकता है कि इसके पीछे क्षत्रिय समुदाय की राजा ग्रंथि रही हो। चाहे वीरबहादुर सिंह हों या चंद्रशेखर दोनों ही ठाकुरों में सामान्य घरों से आए नेता थे जबकि ठाकुरों के लिए आवश्यक था कि वे उसे अपने सिर का ताज मानें जिसके पास राजगद्दी हो। शुरूआत में इसीलिए वीपी सिंह वीरबहादुर पर भी भारी पड़े और चंद्रशेखर पर भी।
आज जनता परिवार की एकता की बात हो रही है। इस लेखक ने पहले भी कहा कि यह जनता परिवार की नहीं लोकदल परिवार की एकता है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जब समाजवादी राजनीति को जनता का नाम दिया था यानी जनता पार्टी का नक्शा गढ़ा था। उस समय ही इस नाम से राजनीतिक सुधारों का एजेंडा जुड़ गया था। जेपी की प्रेरणा से जनता पार्टी के घोषणा पत्र में दल बदल रोकने का कानून लाने, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार आदि तमाम वे प्रस्ताव शामिल किए गए थे जो आदर्श बुरजुवा लोकतंत्र के मानकों के अनुरूप थे। यह संयोग है कि वीपी सिंह की प्रेरणा से जब जनता दल का एजेंडा तैयार हुआ तब भी एक व्यक्ति एक पद वंश के शासन का परित्याग और चुनाव लडऩे के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था जैसे राजनीतिक सुधारों के प्रस्ताव उसमें प्रमुखता से लिए गए। जेपी के पट्ट शिष्य होने के नाते चंद्रशेखर को जनता दल के समय संरक्षक बनकर वीपी सिंह को इस एजेंडे को आगे बढ़ाने का मौका देना चाहिए था लेकिन वे तो देवीलाल पुत्र ओमप्रकाश चौटाला द्वारा मेहम के उपचुनाव में लोकतंत्र को लहूलुहान करने की घटना के पैरोकार बन गए और एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत के लिए उत्तर प्रदेश में जनता दल के चीफ बनाए गए रामपूजन पटेल को पिटवाने की मुलायम सिंह की करतूत को डिफेेंड करने लगे।
इस बीच चंद्रशेखर ने भी यह मान लिया कि जो अपनी जाति का नेता नहीं हो सकता वो इस देश का नेता कभी नहीं बन सकता। इसी के नाते उन्होंने बिहार के माफिया सूरज देव सिंह से लेकर उत्तर प्रदेश में पांच लोगों की सामूहिक हत्या के आरोपी अशोक चंदेल तक को संरक्षण देने में हिचक महसूस नहीं की। खुद के केवल छप्पन सांसद और समर्थन करने वालों के दो सौ पांच सांसद जाहिरा तौर पर ऐसा प्रधानमंत्री बंधक सरकार का नेतृत्व करता यह लाजिमी होता लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा चंद्रशेखर पर इस हद तक हावी हुई कि उन्होंने इसे स्वीकार किया। नतीजतन कुछ ही महीनों के राजसुख के बाद राजीव गांधी द्वारा समर्थन वापस लेने से उन्हें अपनी सरकार के पतन के कड़वे अनुभव का आस्वादन करना पड़ा। चंद्रशेखर के इस प्रसंग में याद आती है मुगल-ए-आजम फिल्म। शायद वे अनारकली का रोल अदा कर रहे थे जिसने एक रात को मलिका-ए-हिंदुस्तान बनने का सौदा जिल्लेइलाही अकबर से किया था। अनारकली का तो किरदार बहुत अलग था लेकिन चंद्रशेखर ने इसका कैसा प्रतिशोध राजीव गांधी से लिया यह जैन आयोग के सामने उस समय संडे के संपादक और वर्तमान में बीजेपी के राज्य सभा सदस्य वीर संघवी के बयान से समझा जा सकता है। वीर संघवी ने कहा था कि उन्होंने लिट्टे द्वारा राजीव गांधी की हत्या की योजना के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव टीएन शेषन को अवगत करा दिया था। बाद में उन्होंने बताया कि शेषन ने उनसे कहा था कि वे पीएम को इस बारे में बता चुके हैं लेकिन उन्होंने इस सूचना पर पूरी तरह अन्यमनस्क रुख अपनाया। राजीव गांधी की सुरक्षा सुदृढ़ करने का कोई प्रयास नहीं किया। इसके निहितार्थ क्या हैं इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने पर मीडिया ने बेगानी शादी में अब्दुल्ला का रुख क्यों अपनाया इसके लिए यह स्मरण दिलाना जरूरी है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद वीपी सिंह सरकार के खिलाफ प्रतिपक्षी दलों से ज्यादा सशक्त ढंग से सवर्णवादी मीडिया मोर्चा संभाले हुए था और अपने ठाकुरवादी चिंतन की वजह से चंद्रशेखर इस रिपोर्ट को अपने तरीके से ठंडे बस्ते में फेेंक देने का संदेश उन्हें दे रहे थे जिस पर मीडिया को पूरा भरोसा था लेकिन इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक दृष्टिकोण से मील का पत्थर कहा जा सकने वाला फैसला सुनाया। हालांकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसी तरह चंद्रशेखर के समय आरएसएस के सरसंघ चालक ठाकुर जाति के रज्जू भैया थे और राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला इसी कारण चंद्रशेखर हिंदू भावनाओं के अनुरूप कराने में तत्पर थे। चूंकि उस समय और आज भी मुख्य धारा के पत्रकारों में आरएसएस द्वारा सुनियोजित ढंग से प्लांट किए गए अपने स्वयं सेवकों का वर्चस्व था जिसकी वजह से वे आज तक यह प्रचारित करते हैं कि अगर चंद्रशेखर को और मौका मिलता तो अयोध्या विवाद निपट जाता। अगर यह सच होता तो उन पत्रकारों से पूछिए कि जब भारत रत्न द्वारा अलंकृत हो चुके अटल बिहारी वाजपेई को वे चंद्रशेखर की तुलना में कई गुना ज्यादा सक्षम अघोषित तौर पर मानते हैं तो वाजपेई जी पूरा मौका मिलने के बावजूद यह विवाद क्यों नहीं सुलझा पाए। सही बात यह है कि वाजपेई भले ही किसी पार्टी से रहे हों लेकिन इस मामले में उनका रुख ज्यादा ईमानदारी का रहा। उन्होंने अशोक सिंघल और तमाम संतों को दो टूक जवाब दे दिया था कि वे भारत के संविधान की शपथ लेने के बाद अयोध्या में विवादित स्थल पर ही राममंदिर बनाने जैसा धर्म विशेष के पक्ष में विधेयक किसी भी कीमत पर प्रस्तुत नहीं करेंगे।
चंद्रशेखर पार्टी तंत्र को दफन करके व्यक्तिवादी सत्ता के प्रणेता थे जो बुरजुवा लोकतंत्र के मानकों में घातक धारणा है इसीलिए उन्होंने जनता पार्टी को अपने नेतृत्व में बेहद संकुचित कर दिया था। राम जेठमलानी ने उनके खिलाफ चुनाव लडऩे का साहस किया तो उनके समर्थकों ने उनकी किस कदर पिटाई की थी इससे राजनीति के पुराने इतिहास को जानने वाले भलीभांति अवगत हैं। चंद्रशेखर अराजकतावाद के पर्याय रहे और यह वाद मुलायम सिंह को बहुत सुहाता है इसलिए भी मुलायम सिंह चंद्रशेखर के प्रति बेहत सम्मोहित हैं। बहरहाल चंद्रशेखर जयंती का समाजवादी आयोजन कई बहसों को जन्म देने वाला है। चंद्रशेखर शुरूआत में चाहे कुछ रहे हों लेकिन आखिर में उनकी परिणति ठाकुर नेता के रूप में स्वाभाविक रूप से वंचितों को सशक्त करने की भावना के खिलाफ रही। यह दुर्भाग्य की बात है कि कांशीराम जैसे महापुरुषों ने भी यह तथ्य जानने के बावजूद उनका साथ दिया। वीपी सिंह के यथास्थितिवाद को तोडऩे के पहले कारगर प्रयासों की वजह से उनसे पहले से इसके लिए काम कर रहे नेताओं ने अपने को ठगा महसूस किया जिसमें कांशीराम भी शामिल थे लेकिन उनके द्वारा चंद्रशेखर को समर्थन देना अंबेडकरवादी आडियोलाजी के अनुरूप नहीं था। आज उनकी उत्तराधिकारी मायावती चंद्रशेखर का नाम तो नहीं लेतीं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे सामाजिक व्यवस्था के कारण वंचितों के प्रति वीपी सिंह के रुख को हमदर्दी के साथ संज्ञान में लेने का भाव समय-समय पर जरूर ही प्रदर्शित करती हैं।
यह लेखक इसके बावजूद चंद्रशेखर द्वारा आपरेशन ब्लू स्टार के बाद भारतीय राजसत्ता और सेना द्वारा सिक्खों के साथ की गई बर्बरता के खिलाफ खड़े होने के स्टैंड के लिए उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने से नहीं चूक सकता जो कि उनके लिए बहुत बड़ा राजनीतिक जोखिम था। प्रधानमंत्री बनना ऐसे राजनीतिज्ञ का अंतिम लक्ष्य नहीं है। प्रधानमंत्री न बनकर भी महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण कितने पूजित हुए यह बात आखिर चंद्रशेखर जैसे विद्वान राजनीतिक क्यों नहीं समझ सके। यह विडंबना है और इन पंक्तियों के लेखक के लिए अफसोस की बात भी है।
के पी सिंह
ओरई

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