साक्षात्कार : “मेरा दोस्त कसाब” : कल्याण आर. गिरी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

साक्षात्कार : “मेरा दोस्त कसाब” : कल्याण आर. गिरी

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पुस्तक मेले में हजारों स्टाल्स और लाखों किताबों के बीच एक किताब के शीर्षक ने अनायास ही कदम अपनी तरफ मोड़ लिए। जी हाँ, किताब का शीर्षक था “मेरा दोस्त कसाब” हमारी ही तरह बहुत से पाठक इस शीर्षक को देख कर ठिठके और किताब को हाथ में उठाये बिना नहीं रहे। आतंकवादी कसाब भी आखिर किसी का दोस्त हो सकता है क्या? ये जानने के लिए हमने युवा लेखक  कल्याण आर. गिरी से बात की...

कल्याण जी सबसे पहले तो आप हमें अपने बारे में बताएं।
जी, मेरी पैदाइश उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुई है पर मैं पला बढ़ा और मेरा पढ़ना-लिखना बनारस में हुआ है।

अपने उपन्यास के बारे में बताएं कि आखिर आपने इसका शीर्षक “मेरा दोस्त कसाब” क्यों रखा? क्या एक आतंकवादी भी किसी का दोस्त हो सकता है?
दोस्ती तो एक प्रभाव होता है, जो व्यक्ति हमें अच्छा लगता है, जिसके विचार हमारे विचारों से मेल खा जाएँ वाही हमारा दोस्त बन जाता है। मेरे उपन्यास का नायक “भारत” भी एक संदर्भ में कसाब से प्रभावित होता है और उसे अपना दोस्त मान लेता है।

“मेरा दोस्त कसाब” की जो कहानी है, इसके पीछे की क्या कहानी है।
जी, इसके पीछे की कहानी भी बहुत रोचक है। इस कहानी का आईडिया मुझे आज छः साल पहले आया था। तब मैं दिल्ली में अपने इंस्टिट्यूट में था और वहां ऑडिशन होने वाला था। सबको अलग-अलग थीम मिली थी, मेरी बारी आने तक मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? संयोग से मैंने एक दिन पहले कसाब के बारे में पढ़ा था। उस समय उसके फांसी की चर्चा चल रही थी, अखबार में. टीवी पर उसकी खबर ही दिखाई जा रही थी। कसाब को जितनी अटेंशन मिल रही थी वो मुझे निजी तौर पर बहुत बुरी लग रही थी कि एक आतंकवादी को लेकर इतनी बात क्यों की जा रही है, अरे उसके अपराध के साक्ष्य हैं आप के पास उसे सजा दीजिये, लेकिन... खैर मेरी बारी आने तक मैं गुस्से से भर गया था और कसाब के फांसी वाली ही खबर को मैंने थीम बना कर ऑडिशन दी और वहां मौजूद सभी लोगों ने ताली बजाई थी मेरी परफॉरमेंस पे... हाहाहा....

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आप मुंबई में रह कर टीवी और फिल्म के लिए लिख रहे थे अचानक से उपन्यास लिखने की धुन कहाँ से चढ़ गयी।
जी मुंबई में सीरियल और फिल्म के लिए काम करके अकाउंट में पैसे तो आ जाते हैं लेकिन मन नहीं भरता। “मेरा दोस्त कसाब” की कहानी तब से मेरा पीछा कर रही थी जब मैं मुंबई आया भी नहीं था। और हर चीज का एक निश्चित समय होता है, इसका भी निश्चित समय आ गया और मेरा सपना अब आप सब के हाथ में है। 

इस उपन्यास को लिखने में आप को कितना वक्त लगा? मुंबई जैसे व्यस्त शहर में उपन्यास लिखने के लिए समय कैसे निकाल पाए?
इसे पूरा करने में मुझे दो साल लगा और सच कहा आपने कि मुंबई जैसे व्यस्त शहर में उपन्यास लिखने क्या अपने आप के लिए समय नहीं निकल पाता है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनारस की है और ये किताब भी मैंने बनारस में रह कर लिखी है।

मतलब आप “मेरा दोस्त कसाब” लिखने के लिए मुंबई छोड़ कर बनारस आये थे?
जी हाँ।

उपन्यास लिखना ही अपने आप में एक बड़ी बात है, हिंदी में लिखना तो और भी बड़ी बात है क्योंकि हिंदी में किताबे तो हैं पाठक नहीं हैं। आप को नहीं लगता कि आप ने किताब इंग्लिश में लिखा होता तो अच्छा होता।
बिलकुल नहीं, मैंने किताब इंग्लिश में लिखी होती तो मेरी माँ नहीं पढ़ पाती, मेरे कुछ दोस्त नहीं पढ़ पाते। और मैं आप को बता दूं कि मैं अपने मोहल्ले में सबसे अच्छी इंग्लिश बोलता था, इसकी वजह ये नहीं थी कि मेरी इंग्लिस बहुत अच्छी थी, बल्कि उनको इंग्लिश नहीं आती थी। अंधों में काना राजा वाली बात थी। हमारे यहाँ नर्सरी पर कभी विदेशी ग्राहक आ जाते थे और मैं वहां नहीं होता था तो मुझे फ़ोन कर के बुलाया जाता था उन्हें डील करने के लिए। फिर मैं अपनी किताब इंग्लिश में लिखता तो आप समझ ही सकते हैं.... 

आप के उपन्यास के अन्य किरदारों के बारे में बताएं। 
“मेरा दोस्त कसाब” की कहानी का जो मुख्य किरदार है “भारत” वो हर कहीं देखने को मिल जायेगा, हर गली, हर मोहल्ले में। भारत के साथ आज के अधिकतर युवा खुद को जुड़ा हुआ पायेंगे और वैसे ही इसकी नायिका “मिठ्ठी” जिससे जुड़ने में मैं नहीं समझता किसी लड़की को  कोई परेशानी होगी, और सच कहूं तो मिठ्ठी से जुड़ने के बाद हर लड़की मिठ्ठी की तरह खुद को मजबूत बनाने की जरुर सोचने लगेगी। बाकी के रहमत चाचा, बुढ़िया माई, लल्लन गुरु, जैसे किरदार भी हैं जो बिलकुल हमारे आस-पास के किरदार हैं जिनसे पाठक स्वतः जुड़ जायेंगे।

युवा लेखक के नाते पुस्तक मेले को आप किस नजरिये से देखते हैं?
पुस्तक मेला किताबों और पाठकों के बीच निश्चित तौर पर एक पूल का काम तो कर ही रही है, पुस्तक मेले के बहाने पाठक उन किताबों को भी ढूंढने के लिए मेले में आता है जो सामान्य तौर पर किताब की दूकान पर नहीं मिल पाती हैं। इसके अलावा मेले में आने पर वो नयी-नयी किताबों से भी वाकिफ हो जाता है। इससे लेखक, पाठक और प्रकाशक तीनों को लाभ होता है। लेकिन ऐसे मेलों का आयोजन बढ़ाना चाहिए। और पुस्तक मेले में किसी नए लेखक की किताब का लोकार्पण होना उसके उत्साह को चौगुना कर देता है इस लिहाज से पुस्तक को प्रकाशक, पाठक और लेखक का संगम कहूं तो गलत न होगा।

सरकारी प्रकाशन से आप की क्या अपेक्षाएं हैं?
सरकारी प्रकाशन हमे सुनें, हमसे बात करें इसके अलावा हम अच्छा कर रहे हैं तो उन्हें प्रचारित करें और पाठकों तक हमारी किताब को पहुंचाने में हमारी मदद करें, इसके अलावा हम पूरी तरह से सरकारी प्रकाशन पर या सरकार पर निर्भर हो जाएँ ये भी अच्छा नहीं होगा। 

हमारी आज की युवा पीढ़ी फेसबुक, व्हाट्सअप जैसी जगहों पर ज्यादा समय बिताती है। पहले की अपेक्षा आज किताबें पढ़ने का चलन कम हो रहा है, हमारी आज की युवा पीढ़ी को वापस किताब की संस्कृति से जोड़ने के लिए आप के क्या सुझाव हैं?
फेसबुक और व्हाट्सअप को हम किताब के न पढ़े जाने का बहाना बनायेंगे तो ये गलत होगा क्योंकि फेसबुक के आने से युवाओं में पढने और लिखने दोनों की रूचि बढ़ी है, और इन्टरनेट पर किताबें मुफ्त में उपलब्ध हो जाती हैं जो कि किताबों के खरीद कर पढ़ने में आई कमी में एक महत्वपूर्ण कारण हो सकता है। और किताब की दुकानें भी तो नहीं हैं हमारे आस-पास। आम तौर पर किताबें बस स्टॉप, रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध होती हैं और आप देखिये वहां कितनी भीड़ लगी रहती है। हमारी आज की युवा पीढ़ी बहुत ही ऊर्जावान है, बस जरुरत है तो उसकी उर्जा का सही मार्गदर्शन करने की।

उपन्यास लिखना तो एक बात है लेकिन उपन्यास का बिकना और बात वो भी हिंदी में। आज के परिवेश में जहाँ अंग्रेजी स्टेटस सिम्बल होता जा रहा है, हिंदी अपने देश में उपेक्षित हो रही है तो आपकी किताब पाठकों तक कैसे पहुंचाएंगे?
मैं किसी की देशभक्ति की भावना पर सवाल नहीं खड़ा कर रहा हूँ लेकिन मैं जहाँ तक देखता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ तो मुझे समझ में यही आता है कि हम भारतीयों के मन में देशभक्ति की भावना पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के बाद के दिनों के शुष्क पड़ जाती है या फिर किसी मसले पर कैंडल मार्च निकालने के लिए जो दम-खम दिखाई पड़ता है, वो तीन सौ पैसठों दिन दिखाई पड़े तो हिंदी की क्या देश की सारी उपेक्षित चीजों के दिन बहुरने में समय नहीं लगेगा।

आप ने अपनी किताब के लिए कोई विशेष योजना बनायी है?
जी हाँ, मैं अपनी किताब को ज्यादा से ज्यादा संख्या में पाठकों के हाथ में पहुंचाने के लिए योजना बनायी हैं, देखना है योजना काम करती है या नहीं!

आप हमारी आज की युवा पीढ़ी को कोई सन्देश देना चाहेंगे? 
मैं अपने युवा साथियों से बस एक बात कहना चाहूँगा, जिंदगी एक बार के लिए मिली है, जिंदगी का सफ़र किसी और के जूते पहन कर तय न करें, जो दिल में आये करते जाइए और निराश मत होइए, जहाँ निराशा होने लगे समझ लीजिये आप की मंजिल करीब है.. और एक बात और जब कोई बात आप के मन की हो तो अच्छा है और ना हो तो बहुत अच्छा होता है क्योंकि वो भगवान के मन का होता है।  

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