जातिभेद-वर्णभेद, ऊँच-नीच,अमीर-गरीब का भेद भूलकर बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के द्वारा बड़े उत्साह एवं समारोह पूर्वक अतिपुरातन काल से मनाई जाने वाली होली एक ओर जहाँ भारतवर्ष का सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है, वहीं आनन्द,उल्लास, मनोरंजन और रंगों का भी त्योहार है । फाल्गुन मास में पूर्ण चन्द्रमा के दिन मनाई जाने वाली होली उत्तर भारत में एक सप्ताह व मणिपुर में छह दिन तक मनाई जाती है। होली वर्ष का अंतिम तथा जनसामान्य का सबसे बड़ा त्योहार है। वर्ष के अन्तिम दिन पूर्ण चन्द्रमा की रात्रि होलिका की अग्नि में पुराने वर्ष के अवसाद जो होलिका अर्थात होली के रूप में जल जाने तथा नूतन वर्ष नवीन आशाएँ, आकांक्षाएँ लेकर प्रकट होने का द्योतक होता है। मानव जीवन में नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का विकास का संकल्प लेकर आने वाला होलिकोत्सव हिन्दुओं का नववर्षोत्सव भी है। मनुस्मृति में इस दिवस को पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मानव- मनु अवतरण दिवस भी कहा गया है। पुरातन ग्रन्थों में इसी दिन नर-नारायण के जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है। होली भारतवर्ष का अत्यन्त प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। प्राचीन काल से ही इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता रहा है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इस दिन यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है ।उस अन्न को होला कहते है ।इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।इसका वर्णन अनेक पुरातन ग्रन्थों में है।
संस्कृत शब्द होलक्का से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में होलक्का को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। होलाष्टक शब्द होली और अष्टक दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका भावार्थ होता है होली के आठ दिन। इसकी शुरुआत होलिका दहन के सात दिन पहले और होली खेले जाने वाले दिन के आठ दिन पहले होती है और धुलेंडी के दिन से इसका समापन हो जाता है। अर्थात फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी से शुरू होकर चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा तक होलाष्टक रहता है। अष्टमी तिथि से शुरू होने कारण भी इसे होलाष्टक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हमें होली आने की पूर्व सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है। इसी दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियाँ भी शुरू हो जाती है। पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि अति प्राचीन इस उत्सव का आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। लगभग 400 ईसा पूर्व के जैमिनि ब्राह्मण 1/3/15-16 में होलाका शब्द आया है। भारतवर्ष के पूर्वी भागों में होलाका शब्द प्रचलित था । जैमिनि एवं शबर के अनुसार होलाका सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य सूत्र 73/1 में एक सूत्र आया है - राका होला के, जिसकी व्याख्या टीकाकारों ने इस प्रकार की है- होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र देवता) है। राका होलाके। -काठकगृह्य – 73/1
अर्थात - होला कर्मविशेषः सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि। होलाका उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्सयायनके कामसूत्र 1/4/42 में भी हुआ है। कामसूत्र 1/4/42 में कहा गया है, फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि व्रत ग्रन्थ काल, पृ. 106 में बृहद्यम का एक श्लोक उद्धृत किया गया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी (आलकज की भान्ति) कहा गया है। लिंग पुराण और वराह पुराण में भी यह कथा अंकित है। फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिका की संज्ञा देते हुए लिंग पुराण में कहा गया है कि यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है -
फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी ।
ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। -लिंगपुराण
वराह पुराण में इसे पटवासविलासिनी (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) कहा गया है।
फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी ।
ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धय।। - वराहपुराण
हेमाद्रिव्रत ग्रन्थ काल के कालवि में इसका अर्थ बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ: किया गया है।
लगभग 400 ईसा पूर्व से उपलब्ध जैमिनि ब्राहण एवं काठकगृह्य सूत्र में होलाका शब्द अंकित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। ऋषि वात्सयायन कृत कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की काम प्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन रंग पञ्चमी मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही पहुनई में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं । वर्षकृत्यदीपक में कहा गया है-
प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत् ।
सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत।।
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्।
गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ।।
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि: ।
एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा ।
बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर।। - वर्षकृत्यदीपक पृष्ठ 301
कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्टजनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें।
यद्यपि वैदिक विद्वान् होली को वैदिक नवान्नेष्टि यज्ञ का वर्तमान रूप मानते हैं, तथापि होली पर्व के साथ अनेक धार्मिक मान्यताएँ, मिथक, परम्पराएँ और ऐतिहासिक घटनाएँ संयुक्त हैं और इससे सम्बंधित अनेक कथाएँ भी प्रचलित हैं पर अंतत: इस पर्व का उद्देश्य मानव–कल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से, कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। होली के त्यौहार से जुड़ी अनेक पौराणिक गाथाओं में कामदेव ,प्रह्लाद ,ढूण्ढ़िका और पूतना की कहानियाँ प्रमुख है, परन्तु प्रत्येक कहानी का अन्त असत्य पर सत्य अर्थात अधर्म पर धर्म की विजय से होती है और अंततः राक्षसी प्रवृत्तियों का अन्त होता है। होली की पहली कहानी शिव और पार्वती से जुड़ी है। हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाये परन्तु शिव अपनी तपस्या में लीन थे। इस पर कामदेव पार्वती की सहायता हेतु आगे आये। उन्होंने प्रेम बाण चलाया जिससे शिव की तपस्या भंग हो गयी। इस पर शिव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी नेत्र खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का शरीर भस्म हो गया। फिर शिव ने पार्वती को देखा। पार्वती की आराधना सफल हुई और शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया । होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।
होली का त्यौहार प्रह्लाद और होलिका की कथा से भी जुड़ा हुआ है । पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु नास्तिक थे । उसकी इच्छा थी कि उनका पुत्र भगवान नारायण की आराधना छोड़ दे, परन्तु प्रह्लाद इस बात के लिये तैयार नहीं था। हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद के साथ आग में बैठने को कहा। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी, परन्तु होलिका का यह वरदान उस समय समाप्त हो गया जब उसने भगवान भक्त प्रह्लाद का वध करने का प्रयत्न किया। होलिका अग्नि में जल गई परन्तु नारायण की कृपा से प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ । होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। प्रचलित मान्यता के अनुसार होलिकोत्सव हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है।
भविष्योत्तर पुराण 132/1/151 में अंकित एक कथा में , युधिष्ठिर के द्वारा फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव व नगर में उत्सव मनाये जाने, प्रत्येक घर में बच्चों के क्रीड़ामय हो जाने और होलाका जलाये जाने का कारण और तत्सम्बन्धी कथा के बारे में पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उसमें होने वाले देवता की पूजा, इस उत्सव का प्रचारकर्ता और इसे अडाडा कहे जाने का कारण बतलाने के लिए एक कथा की सहारा ली है। कथा के अनुसार सतयुग में दैत्यों के कुलगुरू शुक्राचार्य की कन्या जिसका नाम ढूण्ढ़िका था बहुत ही कामांध थी । यह कथा थोड़े बहुत उलट फेर के साथ कई पुरातन ग्रंथों में आई है। ढूण्ढ़िका को कहीं-कहीं ढोण्ढा, कहीं ढुण्ढा तो कहीं धुंधा भी कहा गया है । ढूण्ढ़िका की कामवासना इतनी प्रबल थी कि वह हजारों पुरूषों से संबध स्थापित करने के पश्चात भी तृप्त नहीं होती थी । हजारों पुरूषों को उसने अपमानजनक ढंग से यातनाएँ दी क्योंकि वे उसकी कामतृप्ति न करा सके थे । उसकी इस कामपिपासा को देखते हुए पुरूष उससे भयभीत रहने लगे । काम भावना के वशीभूत उसके कृत्यों से सारा समाज शर्मसार होने लगा । राजा रघु के पास राज्यवासी यह कहने के लिए गये कि राज्य में दैत्यों के कुलगुरू शुक्राचार्य की पुत्री ढूण्ढ़िका नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र - शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने उसे इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है । वही ढूण्ढ़िका राक्षसी बालकों व प्रजा को पीड़ित करने लगी है । अडाडा मंत्र का उच्चारण करने पर वह शांत हो जाती है , इसीलिए जन उसे अडाडा भी कहते हैं। इस प्रकार भगवान शिव के अभिशाप वश वह ग्रामीण बालकों की शरारत, गालियों व चिल्लाने के आगे विवश हो वह भागती है । इस पर विद्वान पुरोहितों के निर्देशानुसार होली के दिन ही सभी बालकों ने मिलकर अपनी एकता के बल पर ललकारते हुए आगे बढ़कर ढूण्ढ़िका अर्थात धुंधी को गाँव से बाहर धकेला था। बच्चे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए चतुराईपूर्वक उसकी ओर आगे बढ़ते ही गये। सभी ने मिल धूम मचाकर उसका ऐसा बहिष्कार किया कि वह हार कर भाग खड़ी हुई और मृत्यु को प्राप्त हो गई । वह दिन फाल्गुन की पूर्णिमा का दिन था और उस दिन को अडाडा या होलिका कहा गया। इस विजय की याद में होली के दिन कामपर्व उत्सव के रूप मे मनाने का निर्णय लिया गया । तभी से इस लोकपर्व में अश्लीलता का भी समावेश हो गया । अश्लील गालियों की परंपरा तभी से शुरू मानी जाती है और यही कारण है कि इस दिन नवयुवक कुछ अशिष्ट भाषा में हँसी मजाक कर लेते हैं, परंतु कोई उनकी बातों का बुरा नहीं मानता । विद्वानों के अनुसार सतयुग में भविष्योतर नगर में बाल, वृद्ध और नवयुवकों अर्थात सभी नागरिकों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग इसे ढोण्ढा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्य तौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, जिसमें अग्नि राहत पहुँचाती है। शामी का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सतयुग में राजा रघु ने होली मनायी। होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को एरंड या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परम्परा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं । पद्मपुराण और वात्स्यायन का कामसूत्र में भी यह कथा वर्णित है। हेमाद्रि व्रत ग्रन्थ के भाग 2 में भी यह कथा उद्धृत की गई है ।
होलिकोत्सव का सम्बन्ध श्रीकृष्ण से माना जाता है । महाभारत के कथा के अनुसार राक्षसी पूतना एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर बालक कृष्ण के पास गयी। वह उनको अपना जहरीला दूध पिला कर मार देना चाहती थी। दूध के साथ साथ बालक कृष्ण ने उसके प्राण भी ले लिये। कहते हैं मृत्यु के पश्चात पूतना का शरीर लुप्त हो गया इसलिये ग्वालों ने उसका पुतला बना कर जला डाला। पौराणिक कथा के अनुसार,मथुरा तब से होली का प्रमुख केन्द्र है। इतिहासकारों का कहना है कि होली के पर्व का प्रचलन, पहले आर्यों में भी था , लेकिन इस त्योहार को अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता है । इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक ग्रन्थों में प्राप्य है । नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रन्थों के साथ ही ईसा से तीन- चार सौ वर्ष पुराने कई अभिलेखों में भी इस पर्व का उल्लेख अंकित है ।
-अशोक “प्रवृद्ध”-
गुमला
झारखण्ड

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