नयी दिल्ली 07 मई, रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने टिकाऊ एवं सतत् विकास के लिए बुनियाद तैयार करने की वकालत करते हुये आज फिर कहा कि जब वैश्विक स्तर पर मांग कमजोर हो तो ऐसी स्थिति में मेक इन इंडिया फॉर इंडिया होना चाहिए। श्री राजन ने देर शाम यहां छठे के बी लाल स्मृति व्याख्यान में कहा कि वैश्विक स्तर पर सुधार की संभावना बहुत कम दिख रही है और ऐसी स्थिति में हमें दुनिया के दूसरे देश मदद नहीं कर सकते हैं। हमें घरेलू स्तर पर मांग बढाने की जरूरत है और इसके लिए मेक इन इंडिया , फॉर इंडिया होना चाहिए। यदि वैश्विक स्तर पर मांग बढती है और हमारे उत्पादों को खरीदा जाता है तो हमें अवश्य बेचना चाहिए। उन्होंने कहा,“हमे प्रतिस्पर्धी देश बने रहना है और दूसरे देशों के सस्ते उत्पादों से निपटने के लिए किफायती होने के साथ ही गुणवत्ता बनाये रखना होगी। वृहद अर्थव्यवस्था एवं टिकाऊ विकास के लिए घरेलू मांग बढाने की जरूरत है और यदि हमें घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्धी नहीं होंगे तो वैश्विक बाजार में कैसे टिकेंगे।” श्री राजन ने इसके लिए आधारभूत ढांचे में सुधार और कृषि उत्पाद बढाने के साथ ही भंडारण , परिवहन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। केन्द्रीय बैंक प्रमुख ने मंदी, महंगाई, मौद्रिक नीति और बैंकिंग प्रणाली का उल्लेख करते हुये कहा कि लगातार दो कमजोर मानसून और वैश्विक अनिश्चितता के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए घरेलू मांग बढाने की जरूरत है। रिण बाजार में स्थिरता लाने पर जोर देते हुये उन्होंने कहा कि विनिमय दर में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। रिजर्व बैंक विनिमय दर का लक्ष्य तय नहीं करना चाहता है।
उन्होंने कहा कि सुधार किये गये हैं लेकिन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लंबित पडा हुआ है। दिवालिया कानून को लोकसभा से मंजूरी मिल गयी है। फसल बीमा से किसानों को मदद मिलेगी और उन्हें पंरपरागत खेती से हटकर फसलें लेने का मौका मिलेगा। उन्होंने कहा कि कर्नाटक और राजस्थान ने भूमि टाइटलिंग का काम शुरू किया है जो बहुत अच्छा है और इसे पूरे देश में लागू किये जाने की जरूरत है। इसके आधार पर भूमि को अर्थव्यवस्था में लाने में मदद मिलेगी। श्री राजन ने मौद्रिक नीति का उल्लेख करते हुये कहा कि इससे सभी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। मुद्रास्फीति लक्षित मौद्रिक नीति एक उपाय है लेकिन कभी कभी यह भी कारगर साबित नहीं हो पाती है विशेषकर जब महंगाई शून्य से नीचे चली जाती है और तब ब्याज दर भी शून्य पर होती है। मंदी से उबरने एवं निर्यात बढाने के लिए अवमूल्यन का सहारा लिये जाने पर कडी आपत्ति जताते हुये श्री राजन ने कहा कि अधिकांश औद्योगिक देशों में इस पर चर्चा हुयी है लेकिन एक आध को छोडकर किसी ने अवमूल्यन नहीं किया है। इससे दूसरे देशों की मांग बढायी जा सकती है लेकिन आगे चलकर फिर से वहीं समस्यायें आयेगी जो मंदी के दौरान थी। इसलिए दूसरे देशों में मांग बढाने की जगह घरेलू स्तर पर मांग बढाने के उपाय किये जाने चाहिए। उन्हाेंने कहा कि इस स्थिति से निपटने के लिए एक जादूई उपाय है ‘हेलीकाप्टर मनी’ अर्थात अधिक नोट छापकर मांग बढाने का लेकिन यह भी कारगर उपाय नहीं है। बैंकों की बढती गैर निष्पादित परिसंपत्तियों का उल्लेख करते हुये उन्होंने कहा कि इसके लिए कई कारक हो सकते हैं। वर्ष 2007-08 के दौरान जब अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ रही थी उस समय बहुत से उद्योगों ने रिण लेकर निवेश किया लेकिन मंदी आने पर उनके समक्ष समस्यायें आयी। बैंकों के जोखिम में फंसे रिण से उबारने की जरूरत बताते हुये उन्होंने कहा कि आर्थिक विकास को गति देने और मजबूत बैंकिग तंत्र के लिए यह जरूरी है।
उन्होंने कहा,“यदि हम छद्म बैंकिंग तंत्र की ओर जाते हैं तो वर्ष 2007 में जो मंदी आयी थी उस ओर जाने की आशंका और बढ जाती है।” उन्होंने कहा कि म्युचुअल फंड , गैर बैंकिग फाइनेंश कंपनियों और इसी के तरह के दूसरे फंड छद्म बैंकिंग तंत्र के हिस्सा है। बैंकों को वास्तविक जोखिम लेने के लिए तैयार करने पर जोर देेते हुये उन्होंने कहा कि एक मजबूत मौद्रिक नीति होनी चाहिए जो न:न सिर्फ महंगाई पर ध्यान केन्द्रित करे बल्कि मांग बढाने के साथ ही विकास को भी गति दे सके। उन्होंने कहा कि जब ब्याज दरें कम होती है तो लोगों को अधिक बचत करनी चाहिए ताकि अधिक ब्याज मिले सके और भविष्य के लिए बचत हो सके। उन्होंने कहा कि जापान की विकास दर पिछले 20 वर्षाें से नहीं बढ रही है। वहां की अधिकांश आबादी 50 वर्षाें को पार चुकी है और अब लोग भविष्य के लिए बचत करने लगे हैं जिससे अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिल रही है। उन्होंने कहा कि जापान , जर्मनी और चीन आदि देशों में वरिष्ठ जनों की आबादी बढ रही है। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया में नवोन्मेष की बात हो रही है। भारत में भी यह हो रहा है और वित्तीय क्षेत्र में भी हो रहा है लेकिन विकास दर में इसकी भागीदारी नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि जो मुफ्त में मिलता है हम उसकी गणना नहीं करते हैं। उसे हम जीडीपी में शामिल नहीं करते है और यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है।

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