रामवृक्ष के संरक्षणदाता तक पुलिस के हाथ पहुंच पाएंगे, इसमें संदेह है। क्योंकि संरक्षणदाता कोई और नहीं बल्कि अखिलेश सरकार के शीर्ष नेतृत्व के लोग ही है। जिसके आगे मथुरा के कई उच्च पुलिस अधिकारी दुम हिलाते नजर आते है। क्या पुलिस जांच के दौरान उस हस्ती तक पहुंच पायेगी जिसने जयगुरुदेव की मृत्यु के पश्चात जयगुरुदेव के ड्राइवर पंकज यादव को 42 हजार करोड़ रियल एस्टेट का उत्तराधिकारी बनवाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि मथुरा घटना का खलनायक रामबृक्ष यादव भी जयगुरुदेव की संपत्ति का प्रवल दावेदार था। लेकिन उसी शीर्ष नेतृत्व ने समझा-बूझाकर मामले को न सिर्फ रफा-दफा करवाया बल्कि मथुरा के जवाहरबाग पार्क में रहने एवं कब्जा की अनुमति भी दिलवाई। हाईकोर्ट का आदेश नहीं होता कुछ हो भी नहीं पाता। क्योंकि इसके पहले जब भी पुलिस जिला न्यायालय के आदेश पर कब्जा हटाने गयी उसी वक्त उक्त शीर्ष नेतृत्व का फोन आता था कि वहां किसी भी प्रकार का बखेड़ा नहीं खड़ा होना चाहिए, पुलिस लौट जाया करती थी। आगरा के कमिश्नर ‘प्रदीप भटनागर‘ से जांच छीनकर अलीगढ के कमिश्नर को दिया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। प्रस्तुत है सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी ग्राउंड जीरों से एक विस्तृत रिपोर्ट -
बेशक, कृष्ण की नगरी मथुरा यूं नही दहली, बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश व सत्ता संरक्षण का खेल है। इसकी बड़ी वजह है कि कब्जाई वाली 280 एकड़ भूमि जिला प्रशासन यानी डीएम-एसएसपी के बंगले से सटा हुआ है। पूरा गांव सत्याग्रहियों के आतंक से त्रस्त था। सवाल यह है कि जब वहां का हर सख्श त्रस्त था, ये एसडीएम समेत कई सरकारी आफिसरों-कर्मचारियों पर धावा बोल चुके है। बावजूद इसके डीएम-एसएसपी को इनकी ताकत व कार्यप्रणाली का अंदाजा नहीं लगा, यह किसी के गले नहीं उतर रहा। मतलब साफ है इन्हें सरकार के किसी बड़े नेता का संरक्षण प्राप्त था इंकार नहीं किया जा सकता। रहा सवाल जांच के आदेश का तो आगरा के कमिश्नर से जांच छीनकर सत्ता के चहेते अलीगढ़ कमीश्नर से जांच करवाने की मंशा भी लोग समझ गए है कि जांच जिस स्तर की होनी है। वैसे भी दो पुलिस अफसरों समेत 25 लोगों की जिंदगिया काल कलवित होने के बाद सरकार एवं पुलिस की तरफ से जो सफाई दी जा रही है वह समझने के लिए काफी है मामले की लीपापोती शुरु हो चुकी है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर पुलिस सुराग लेने ही गई थी तो क्या इसकी सूचना रामवृक्ष को दी थी क्या कि हम कब्जा हटाने आ रहे है। तुम लोग हमले के लिए तैयार हो जाओं। जबकि सच तो यह है कि दो दिन के लिए धरना देने के नाम पर जवाहर बाग में डेरा डालने वालों को दो साल तक बने रहने के लिए न सिर्फ उन्हें खाद, पानी-बिजली तक मुहैया कराया गया, बल्कि पेंशन, राशन कार्ड से लेकर मतदाता सूची में नाम तक दर्ज करवाया गया। सूत्रों पर यकीन करें तो रामवृक्ष 2017 में टिकट के लिए प्रबल दावेदारों में से एक था, शीर्ष नेतृत्व द्वारा तैयारी का आश्वासन भी मिला हुआ था।
रामवृक्ष का मनोबल बढ़ने का शायद यही वजह भी है, जिसने हरियाणा के उस रामपाल को भी पीछे छोड़ दिया जिससे निपटने में खट्टर सरकार के पसीने छूट गए थे। यह अकल्पनीय नही ंतो और क्या है कि अजीबों-गरीब मांगें रखने वाला कोई शख्स प्रशासन के नाक के नीचे और डीएम-एसपी के बंगले से सटे चहारदीवारी के बीच न सिर्फ असलहों का जखीरा इकठ्ठा कर लें बल्कि 5 हजार से अधिक समर्थक भी तैयार कर ले। लेकिन संरक्षण का ही वरदान था कि रामवृक्ष यादव ने जवाहर बाग में काबिज होकर हर किसी को चुनौती देता रहा, लेकिन स्थानीय पुलिस-प्रशासन उसे वहां से निकालने में नाकाम रहा। यदि उच्च न्यायालय ने दखल नहीं दिया होता तो संभवतः अभी भी मथुरा पुलिस की ओर से कोई कार्रवाई करने की बात तो दूर अदालत के कड़े रुख से पहले इस जमीन को पट्टे पर दिए जाने की कोशिशें की जा रही थीं। खास बात यह है कि जिन लोगों के जरिए इस जमीन पर कब्जा किया गया था, उन्हें भी यहां यह कहकर लाया गया था कि उन्हें न सिर्फ वहां घर मिलेगा बल्कि आजीवन भोजन और पेंशन भी मिलेगी। बता दें, बागवानी की इस जमीन को लगभग 27 महीने पहले दो दिन के लिए कथित तौर पर सत्याग्रहियों को यहां रुकने के लिए अनुमति दी गई थी। लेकिन इसके बाद लंबे समय तक इस जमीन को खाली कराने की कोशिश ही नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि इस जमीन पर कब्जा करने वालों ने न सिर्फ इस पूरे एरिया में रहने के लिए झुग्गियां बना लीं बल्कि कई और सुविधाएं भी जुटा लीं। सवाल है कि जब यह सब कुछ हो रहा था, उस समय स्थानीय प्रशासन इस ओर आंखें क्यों मूंदे रहा। अवैध कब्जा करने वालों को लेकर कभी भी राजनीतिक दलों ने भी आवाज नहीं उठायी। इसकी वजह संभवतः वोटों की राजनीति ही थी। क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में असलहे जवाहर बाग जैसे इलाके में जमा हो रहे हों और पुलिस और इंटेलीजेंस को इसकी खबर ही न हो, संभव नहीं है। एलआईयू डीएम और एसएसपी को हर दिन की रिपोर्ट देती है। यह रिपोर्ट एडीजी के जरिए सीएम, डीजीपी, मुख्य सचिव तक जाती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जहां तक ऑपरेशन का सवाल है तो इसके लिए एलीमेंट ऑफ सरप्राइज होना चाहिए। ऑपरेशन के लिए सुबह के तीन से चार बजे का समय चुनना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। सपा के नेताओं को इस सवाल का जवाब देना होगा कि आखिर उनके सत्ता में आने पर ही ऐसी स्थिति क्यों बनती है? इसके साथ ही इस सवाल का भी जवाब खोजने की कोशिश करनी होगी कि सनकी और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने अनुयायी कैसे तैयार कर लेते हैं? रामवृक्ष यादव वही शख्स है जिसके कारण मथुरा में मौत का तांडव हुआ। एक रुपये प्रति लीटर डीजल और पेट्रोल बेचने और देश भर में सोने के सिक्के चलाए जाने की अजीबोगरीब मांग करने वाला रामवृक्ष मूलतः यूपी के गाजीपुर के मरदह थाने का रहने वाला है। गाजीपुर से उसने शुरुआती पढ़ाई की और मऊ डीसीएसके कॉलेज से उसने स्नातक किया। करीब 5000 कथित सत्याग्रहियों का ये सरगना पहले जयगुरुदेव का शिष्य हुआ करता था। उसने जयगुरुदेव के विरासत के लिए भी दावेदारी की कोशिश की थी। कहा जाता है कि जयगुरुदेव के मृत्यु के बाद विरासत के लिए तीन गुटों में टकराव हुआ जिसके बाद पंकज यादव जयगुरुदेव का उत्ताराधिकारी बना।
समर्थन नहीं मिलने पर रामवृक्ष अलग गुट बनाकर 15 मार्च 2014 को करीब 200 लोगों के साथ मथुरा आ गया। इसने प्रशासन से यहां रहने के लिए दो दिन की इजाजत ली। लेकिन, दो दिन बाद भी वो यहां से हटा नहीं। रामवृक्ष यादव शुरुआत में यहां एक छोटी सी झोपड़ी बना कर रहता था। धीरे-धीरे यहां पर और झोपड़ियां बनीं। इसके बाद उसने 270 एकड़ जमीन पर अपनी सत्ता चलाने लगा। रामवृक्ष यादव इतना ताकतवर हो गया कि प्रशासन भी उसका कुछ नहीं कर पा रहा था। हैरान करने वाली बात ये है कि प्रशासन को पिछले दो साल में उनकी करतूतों की भनक तक न लगी। अपनी गुंडागर्दी और अपराध को वह एक संस्था के नाम पर अंजाम देता रहा। इस संस्था का नाम आजाद भारत विधिक वैचारिक सत्याग्रही है। रामवृक्ष यादव पर मथुरा में 2014 से लेकर 2016 तक 10 से ज्यादा मुकदमें दर्ज हैं। जिसमें पुलिस अधिकारयों पर हमला, सरकारी संपत्ति पर अवैध कब्जा शामिल हैं। रामवृक्ष यादव मीसा एक्ट में जेल भी जा चुका है। यूपी सरकार इसे 15 हजार रुपए का पेंशन भी देती है। 70 साल का रामवृक्ष यादव लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुका है। 1984 में गाजीपुर सीट से इसने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर चुनाव लड़ा था और उसे 3277 वोट मिले थे। रामकृष्ण जयगुरुदेव की तरह ही आश्रम बनाना चाहता था लेकिन इसके कब्जे के खिलाफ मामला इलाहाबाद कोर्ट में चला गया। हाईकोर्ट ने इसे खाली करने का आदेश दिया। रामवृक्ष यादव इस आदेश के खिलाफ कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज करते हुए उस पर 50 हजार का जुर्माना भी लगा दिया। कोर्ट के आदेश के बाद लगातार तीन दिन से पुलिस इस जगह को खाली करने की घोषणा कर रही थी। इस दौरान रामवृक्ष यादव शूटरों और अपराधियों को अपने कैंप में रखने लगा। कहा जाता है कि 5 हजार लोग उसके लिए काम करते थे। उसी कहने के पर इस पूरी झड़प को हिंसक रुप से अंजाम दिया गया। पुलिस के साथ हिंसप झड़प में ये मारा गया है जिंदा है ये अब पहेली बन गया है। ऑपरेशन जवाहर बाग की सारी योजना फेल हो गई। दो पुलिस अधिकारियों की शहादत और 22 अन्य मौतों के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि मथुरा में बड़ी चूक हुई है। वहीं, पुलिस महानिदेशक जावीद अहमद का बयान इसके एकदम उलट था। उन्होंने किसी गलती को सीधे खारिज कर दिया। कहा कि पुलिस ऑपरेशन नहीं, रेकी करने गई थी। ऑपरेशन दो-तीन दिन बाद होना था, मगर उपद्रवियों ने अप्रत्याशित हमला बोल दिया। उपद्रवियों से भारी संख्या में हथियार मिले हैं। अंदर नक्सलियों की तर्ज पर गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग दी जाती थी। वहीं, शासन ने एक दिन बाद ही जांच कमिश्नर आगरा प्रदीप भटनागर से लेकर कमिश्नर अलीगढ़ चंद्रकांत को सौंप दी गई।
उधर, मथुरा पुलिस का अब डैमेज कंट्रोल शुरू हो गया। ऑपरेशन के लगभग एक घंटे पहले पूरी तैयारियों का दंभ भरने वाले अफसरों के चेहरों पर खौफ नजर आने लगा। जल्दबाजी और लापरवाही के आरोपों से घिर अफसरों के लिए पुलिस के मुखिया का बयान राहत लेकर आया। पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ने खुद कहा कि ये ऑपरेशन नहीं था, मगर सवाल अब भी वहीं खड़े हैं कि फिर डीएम राजेश कुमार और एसएसपी राकेश सिंह ने कल कैसे कह दिया था कि वह पूरी तैयारी के साथ ऑपरेशन जवाहर बाग शुरू कर रहे हैं। सही यह है कि पुलिस और प्रशासन इन कथित सत्याग्रहियों की ताकत को नाप ही नहीं सका? किसी भी सख्श के गले के नीचे नहीं उतर रहा। खासकर प्रशासन द्वारा यह कहा जाना कि उसने सारे सबूत नष्ट कर दिए। जबकि समझा जा सकता है कि जिस सख्श पर गोलिया दग रही हो अपनी जान बचायेगा कि पहले सबूत जलाएगा। जबकि सच तो यह है कि संरक्षण के चलते उसने न सिर्फ सरकारी व्यवस्था के खिलाफ लगातार जहर उगलता रहा बल्कि देखते ही देखते अपना बड़ा साम्राज्य फैला लिया। पांच साल में उसने हजारों समर्थक, दौलत और हथियारों की ताकत जुटा ली थी। खुद को जयगुरुदेव का समर्थक बताने वाले रामवृक्ष यादव की राजनैतिक क्षेत्र में इतनी अच्छी पैठ हो गई थी कि उसे 2017 में चुनाव लड़ने का आॅफर मिल गया। यह आॅफर कहीं और से नहीं बल्कि संरक्षणदाता एवं सरकार के शीर्ष नेतृत्व की ओर से था। संरक्षण का ही तकाजा रहा कि दो साल तक जवाहर बाग में कोई टस से मस नहीं कर पाया था। यहां तक कि एक साल तो हाईकोर्ट के आदेश भी कुछ न कर सके। यह पहली बार नहीं है जब कानून एवं व्यवस्था के मामले में अखिलेश यादव सरकार कठघरे में खड़ी हुई हो। ऐसा रह-रहकर होता रहता है। राज्य के विभिन्न हिस्सों में ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं जिनसे यही पता चलता है कि राज्य सरकार कानून एवं व्यवस्था के प्रति उतनी सजग-सक्रिय नहीं जितना उसे होना चाहिए। ऐसा तब है जब यह धारणा पहले से ही बनी हुई है कि सपा जब भी सत्ता में आती है तो कानून एवं व्यवस्था के समक्ष चुनौतियां बढ़ जाती हैं। सबसे खराब बात यह है कि न केवल किस्म-किस्म के अपराधी तत्व बेलगाम होते दिखते हैं, बल्कि उनके दुस्साहस का शिकार पुलिस भी बनती है। यह सामान्य बात नहीं कि पिछले चार वर्षो में पुलिसकर्मियों पर हमले की एक हजार से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें कई पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सपा के नेताओं को इस सवाल का जवाब देना होगा कि आखिर उनके सत्ता में आने पर ही ऐसी स्थिति क्यों बनती है? इसके साथ ही इस सवाल का भी जवाब खोजने की कोशिश करनी होगी कि सनकी और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने अनुयायी कैसे तैयार कर लेते हैं?
हाल ही में मथुरा हाईवे स्थित जयगुरुदेव पेट्रोल पंप पर करीब एक दर्जन वाहनों के काफिले के साथ आए रामवृक्ष यादव ने वाहनों के लिए एक रुपये में 40 लीटर पेट्रोल और एक रुपये में 60 लीटर डीजल मांगा था। इस बात को लेकर पेट्रोल पंप पर झगड़ा हुआ। रामवृक्ष ने अपने समर्थकों के साथ हथियारों और फरसों से हमला बोल दिया, जिसमें आश्रम का कर्मचारी रवि गंभीर रूप से घायल हुआ था। इसका मुकदमा दर्ज हुआ। बताते हैं इसी घटनाक्रम के बाद जय गुरुदेव ने रामवृक्ष यादव को अपने से अलग कर दिया। इसके बाद रामवृक्ष यादव ने अपना जाल फैलाना शुरु किया। इमरजेंसी के दौर में वह लोकतंत्र सेनानी पेंशन पा रहा था। इसी तरह की पेंशन और जवाहर बाग में प्लॉट देने का झांसा देकर उसने लोगों के घर और जमीन बिकवाए। उनका पैसा हासिल करने के बाद जवाहर बाग में पनाह देना शुरू कर दिया। लोग उसके झांसे में आते गए और कुनबा बढ़ता गया। रामवृक्ष यादव इतना ताकतवर हो गया कि प्रशासन भी उसका कुछ नहीं कर पा रहा था। हैरान करने वाली बात ये है कि प्रशासन को पिछले दो साल में उनकी करतूतों की भनक तक न लगी। अपनी गुंडागर्दी और अपराध को वह एक संस्था के नाम पर अंजाम देता रहा। इस संस्था का नाम आजाद भारत विधिक वैचारिक सत्याग्रही है। कोर्ट के आदेश के बाद लगातार तीन दिन से पुलिस इस जगह को खाली करने की घोषणा कर रही थी। इस दौरान रामवृक्ष यादव शूटरों और अपराधियों को अपने कैंप में रखने लगा। कहा जाता है कि 5 हजार लोग उसके लिए काम करते थे। उसी कहने के पर इस पूरी झड़प को हिंसक रुप से अंजाम दिया गया। पुलिस के साथ हिंसप झड़प में ये मारा गया है जिंदा है ये अब पहेली बन गया है। सवाल यह है कि जो सख्श दो साल पहले किसी मामले में कलक्ट्रेट स्थित वटवृक्ष के नीचे आंदोलन के लिए आया उसे तत्कालीन जिलाधिकारी विशाल चैहान किसके कहने पर जवाहर बाग में भेज दिया। जब धरने की अनुमति सिर्फ दो दिन की थी, तो साल तक कैसे रुक गया। साथ ही जयगुरुदेव को अगवा किए जाने की अपील स्थानीय जिला जज के यहां दाखिल की और पंकज बाबा, रामप्रताप सिंह और उमांकात तिवारी को प्रतिवादी बना दिया। रामवृक्ष यादव ने तब अफसरों से कह दिया कि उनका मामला अदालत में विचाराधीन है और जब तक इसका फैसला नहीं आएगा, जवाहर बाग में उनका पड़ाव जारी रहेगा। इस पर प्रशासन और पुलिस के अधिकारी वापस लौट आए। इसके बाद कथित सत्याग्रहियों ने जवाहर बाग पर कब्जा करने के लिए पहले टेंट ताने और फिर उद्यान कर्मियों को भी धमकाना और मारपीट कर भगाना शुरू कर दिया। स्टोर और नलकूप पर कब्जा कर लिया। कब्जे को हटवाने के लिए तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट हेम सिंह और एसओ सदर प्रदीप पांडेय इनके शिविर में गए, तो दोनों अफसरों को बंधक बना लिया। रिहा करने को गई फोर्स को कथित सत्याग्रहियों ने दौड़ा दिया। इसमें सिटी मजिस्ट्रेट और एसओ सदर मामूली घायल भी हो गए थे। डीएम विशाल कुमार चैहान के यहां से तबादला होने के बाद बी. चंद्रकला की तैनाती गई और इधर एसएसपी नितिन तिवारी आ गए। इस दौरान उद्यान कर्मियों से की मारपीट के मामले में एसपी सिटी मनोज सोनकर, सीओ सिटी अनिल कुमार यादव जवाहरबाग में गए। इन्हें भी सत्याग्रहियों ने घेर लिया। जैसे-तैसे फोर्स इन्हें बाहर लेकर आया, लेकिन इसके कुछ दिन बाद फोर्स ने कार्रवाई की, तो कथित सत्याग्रहियों ने हमला कर दिया। इसमें कोतवाल कुंवर सिंह यादव घायल हुए। मीडिया पर भी हमला किया गया। एसएसपी नितिन तिवारी ने जवाहर बाग को कथित सत्याग्रहियों से खाली कराने की योजना बनाई, लेकिन शासन स्तर से हरी झंडी नहीं दिखाई गई। डीएम बी. चंद्रकला के तबादले के बाद डीएम राजेश कुमार की नियुक्ति की गई। इसी बीच कथित सत्याग्रहियों ने उद्यान कर्मियों से मारपीट कर दी। एसएसपी मंजिल सैनी ने इनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराकर तीन सत्याग्रहियों को जेल भेज दिया। इसी के साथ कथित सत्याग्रहियों से जवाहर बाग को खाली कराने के लिए पुलिस फोर्स की मांग तेज कर दी गई, मगर मंजिल सैनी का इटावा ट्रांसफर हो गया और इनके स्थान पर डॉ. राकेश कुमार सिंह को इटावा से मथुरा भेजा गया। अप्रैल के पहले सप्ताह में तहसील पर हमला करने पर वर्तमान जिलाधिकारी राजेश कुमार और एसएसपी डॉ. राकेश सिंह ने ऑपरेशन जवाहरबाग की रूपरेखा बनानी शुरू की। बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष विजय पाल तोमर ने 20 मई 2015 को जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। कार्रवाई न होने पर कोर्ट ने अवमानना की कार्रवाई शुरू कर दी। हाईकोर्ट के आदेश का अनुपालन कराने के लिए जिला प्रशासन ने प्रमुख सचिव गोपनीय (गृह) को पत्र लिखा। एसएसपी डॉ. राकेश सिंह ने एडीजी कानून व्यवस्था, आइजी और डीआइजी से फोर्स की मांग की। आइजी पीएसी एसबी शिरोड़कर की रिपोर्ट पर डीआइजी अजय मोहन शर्मा ने आगरा, मैनपुरी और फीरोजाबाद का फोर्स आवंटित कर दिया, जबकि पीएसी भी भेज दी गई। लेकिन शासन ने एडीएम, एसडीएम, एसपी, सीओ और महिला पुलिस आवंटित नहीं की। इधर, तहसील पर हमला होने के बाद जवाहर बाग को खाली कराने के लिए आंदोलन शुरू हो गए और प्रशासन पर दबाव बढ़ता चला गया। पांच बार कार्ययोजना भी बनाई गई, लेकिन हर बार फोर्स न मिलने के कारण कार्रवाई नहीं हो सकी। प्रशासन ने सत्याग्रहियों को पुलिस का भय दिखाकर निकालने के लिए दो महीने तक समय दिया। बिजली काट दी गई और दूध की सप्लाई भी दो दिन पहले बंद कर दी गई थी। कलक्ट्रेट रोड स्थित जवाहर बाग का मुख्य एंट्री गेट तहसील के बगल में है, जबकि बाग का एरिया सरकारी भवनों से घिरा है। दो जून को दोपहर चार बजे से डीएम-एसएसपी ने बैठक की और फिर किसी भी क्षण ऑपरेशन शुरू करने का एलान कर दिया। ऑपरेशन की कार्रवाई जिस अंदाज से की गई, उससे फोर्स भी वाकिफ नहीं था। शाम लगभग पांच बजे एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के नेतृत्व में फोर्स जेल की आवासीय कॉलोनी के संकरे रास्ते से बाग की बाउंड्री तक पहुंचा। इसके बाद जेसीबी मशीन से बाउंड्री तोड़ना शुरू हो गया। यह कथित सत्याग्रहियों के लिए रोज के फ्लैग मार्च की तरह कतई नहीं था। एक तरफ दीवार टूट रही थी और दूसरी तरफ वे मोर्चा संभालन में जुट गए। दीवार गिरने के साथ ही एसपी सिटी माइक लेकर फोर्स के साथ अंदर घुसे और शांतिपूर्ण तरीके से कब्जा छोड़ने की अपील शुरू की। इस क्षण तक कोई भी पुलिस अफसर और इंटेलीजेंस कथित सत्याग्रहियों के अगले कदम का आकलन ही नहीं कर पाई और दूसरी तरफ से हमला शुरू हो गया। पहले राउंड में हमले में एसओ फरह संतोष यादव और एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के घायल होने के बाद हालात बिगड़ गए। शुक्र रहा कि हमले में केवल एक रंगरूट को चोट आई। बाद में इन्हीं ने लाठियों से मोर्चा संभाला। कथित सत्याग्रहियों के पथराव के पहले दौर के जवाब में पुलिस ने अश्रु गैस के गोले दागे, मगर हवा के उलटे रुख ने पुलिस के कदम उखाड़ दिए। गैस उसी दिशा में बही जहां पुलिस थी, जिसके चलते पीछे हटना पड़ा। कुछ देर बाद जब हवा ने रुख बदला तब तक पुलिस के गोले खत्म हो चुके थे। इसके बाद जब फायरिंग हुई तो गोलियां खत्म हो गईं। हमले में घायल हुए दरोगा के मुताबिक सबसे बड़ी नाकामी खुफिया तंत्र की रही। जेसीबी मशीन से दीवार तोड़े जाते समय तक खुफिया तंत्र का अधिकारी दरोगाओं को यह बताता रहा कि आज कार्रवाई नहीं होगी। कदम-कदम पर साथ चलने वाले पुलिस और प्रशासन के अफसर में दूरियां साफ दिखीं। एक तरफ डीएम-एसएसपी साथ तो बाकी प्रशासन के अफसरों का कोई पता नहीं चला। कार्रवाई में शामिल एक पुलिस अधिकारी का कहना था कि पहले हमले के बाद कोई किसी को दिखा ही नहीं। घायलों में सबसे ज्यादा पुलिस वाले ही हैं।
घायल भी हुए रफूचक्कर
ऑपरेशन के दौरान घायल हुए कथित सत्याग्रहियों को जिला अस्पताल और वृंदावन सौ शैया अस्पताल में भर्ती कराया गया था। शुक्रवार सुबह ये लोग रफूचक्कर हो चुके थे। जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने बताया कि इस दौरान मौजूद पुलिस वालों ने भी उनको नहीं रोका। इसी बीच फरह क्षेत्र में अस्थायी जेल में गुरुवार रात लाए गए करीब चार सौ कथित सत्याग्रही भी शुक्रवार सुबह भगा दिए गए। ऐसा प्रशासन ने सिर्फ इसलिए किया कि जिससे अंदर क्या हुआ और किस नेता के संपर्क में रामवृक्ष था इसकी पोल न खुल जाएं। बताया जाता है कि इन सत्याग्रहियों की पहले जमकर पिटाई की गई और फिर इन्हें यहां से भगा दिया गया। यहां जिक्र करना जरुरी है कि लखनऊ से लेकर मथुरा तक तमाम मीटिंग के दौर चले। कई बार ऑपरेशन का रिहर्सल हुआ। ड्रोन उड़ा कर कैमरे से बाग के अंदर की तस्वीरें और बाग में मौजूद लोगों की सही तादाद पता करने की कोशिश की गई। लोकल और खुफिया एजेंसियों से अलग जानकारी जुटाई गई। इस ऑपरेशन के लिए आईजी, डीआईजी खुद डेरा डाले रहे। पुलिस और प्रशासन की आखिरी बैठक हुई। ऑपरेशन के लिए हरी झंडी मिली और फिर ऑपरेशन की तारीख 2 जून तय हुई। पुलिस ने जवाहर बाग की पीछे की चारदीवारी को तोड़कर बाग पर काबिज लोगों के लिए रास्ता बना दिया ताकि वो वहां से निकल सकें। बाग के पीछा का रास्ता कलेक्ट्रेट की तरफ जाता है। रणनीति ये थी कि पुलिस मेन गेट से जवाहर बाग के अंदर घुसेगी और बाग पर काबिज लोगों को धेकलते हुए पीछे के रास्ते से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर देगी। फिर उन्हें कलेक्ट्रेट के करीब गिरफ्तार कर लिया जाएगा। पीएसी, आरएएप और लोकल पुलिस के करीब पांच सौ जवानों की टुकड़ी चारों तरफ से जवाहर बाग को घेर चुकी थी। एहतियात के तौर पर मथुरा-आगरा के बीच का मार्ग भी बंद कर दिया गया। स्थानीय लोगों का कहना है कि बागवानी की इस जमीन को लगभग 27 महीने पहले दो दिन के लिए कथित तौर पर सत्याग्रहियों को यहां रुकने के लिए अनुमति दी गई थी। लेकिन इसके बाद लंबे समय तक इस जमीन को खाली कराने की कोशिश ही नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि इस जमीन पर कब्जा करने वालों ने न सिर्फ इस पूरे एरिया में रहने के लिए झुग्गियां बना लीं बल्कि कई और सुविधाएं भी जुटा लीं। सवाल है कि जब यह सब कुछ हो रहा था, उस समय स्थानीय प्रशासन इस ओर आंखें मूंदे रहा।
राशन कार्ड के साथ ही मतदाता सूची भी बना
स्थानीय प्रशासन की बदौलत ही यहां रहने वालों को तो राशन कार्ड तक दिए जा रहे थे। जबकि यह सभी को मालूम था कि ये सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे लोग हैं लेकिन उन्हें इसके बावजूद राशन कार्ड तक दिए जा रहे थे। सपा के एक नेता ने दन सभी का मतदाता सूची में भी नाम दर्ज कराया। इससे पता चलता है कि स्थानीय प्रशासन भी किसी न किसी बड़े राजनेता के इशारे पर ही काम कर रहा था।
सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है मथुराकांड
मथुरा की घटना से साफ है कि देश में संगठित अराजकता की न जाने कितनी किस्में सिर्फ मौके की तलाश में हैं। क्यों इसे समय से रोकने की पहल नहीं हो पातीध् क्यों एक छोटी सी फुंसी को नासूर बन जाने के मौके दिए जाते हैं। पहले छोटी-मोटी गड़बड़ियों को अनदेखा किया जाता है, उनके जरिए अपना हित साधने की कोशिश की जाती है, फिर वही चूक पूरे समाज के लिए महंगी साबित होती है। मथुरा में ‘जयगुरुदेव संगठन’ से निकले ‘भारत विधिक संघ’ के कथित सत्याग्रहियों ने करीब दो साल से मथुरा के जवाहर बाग पर कब्जा कर रखा था, जो कि उद्यान विभाग की संपत्ति है।
आशीयाना
धरने की आड़ में मथुरा के जवाहर बाग में कब्जा जमाए ‘आजाद भारत विधिक विचारक क्रांति सत्याग्रही‘ नाम के संगठन ने सत्ता के खिलाफ ही समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी थी। जवाहर बाग की करीब 280 एकड़ जमीन पर कब्जा जमाए 3 हजार से ज्यादा लोगों ने रामवृक्ष यादव के नेतृत्व में सत्ता को चुनौती देने के लिए हथियारों से लेकर हर उस सामान को जमा कर रखा रखा था, जिससे वह सरकार के खिलाफ लड़ सकें। बाग के मुख्य गेट से लेकर चारदीवारी तक पर हथियार बंद लोग 24 घंटे पहरा देते थे। करीब 20 दिन पहले जब प्रशासन ने बाग के अंदर की बिजली और पानी का कनेक्टशन काट दिया, तो उन्होंने सोलर पैनल से बिजली और सबमर्सिबल पंप लगाकर पानी की व्यवस्था कर ली थी। जवाहर बाग को कई घंटे के ऑपेरशन के बाद खाली करा छावनी के रूप में तब्दील कर दिया गया है। जवाहर बाग में फोर्स के अलावा किसी को भी जाने की इजाजत नहीं दी गई। अंदर का नजारा ठीक ऐसा था कि जैसे कोई छोटा शहर पूरी तरह से आग में जल कर तबाह हो गया हो। बाग की चारदीवारी के अंदर हर वो सुविधा उपलब्ध थी, जिससे महीनों तक बिना बाहर से संपर्क किए जिंदा रहा जा सकता था। बाग के अंदर कई टन गेहूं, धान समेत महीनों के लिए रसद इकट्ठा थी। यहां रहने वाले आपस में मिलकर काम करते थे और सबको खाना देने के लिए सामूहिक किचन बनाया गया था।


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