दरभंगा 05 अगस्त, दाम्पत्य जीवन के अखंड सौभाग्य और पति के दीर्घायु होने की कामना को लेकर मिथिलांचल की नवविवाहिताओं का प्रमुख लोकपर्व मधुश्रावणी सावन की रिमझिम फुहारों के बीच आज समाप्त हो रहा है। श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से आरम्भ होकर श्रावण शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि तक चलने वाले इस पर्व को लेकर नवविवाहिता के धरों में उत्सवी माहौल है। पर्व के पहले दिन से ही मिथिलांचल के नवविवाहिताओं के घर में पारंम्परिक, श्रृ्गांरिक एवं भक्ति गीतों से गुलजार हो गया है। नवविवाहिताओं के ससुराल से उनके लिए वस्त्र, अन्न, सहित गौड, हाथी, बिसहरा (नाग-नागिन) एवं साजो समान, श्रृंगार सामग्री पहुंच चुके है। घर की बुजुर्ग महिलाओं ने पूजा घर में बिसहरा सहित अन्य देवी-देवताओं को स्थापित कर दिया है। मिथिलांचल के मैथिल ब्राह्मण एवं कर्ण कायस्थ, गंधवरिया राजपूत और वैश्यों की कुछ उपजातियों के लोगों के घरों में दाम्पत्य जीवन के अखंड सौभाग्य की कामना एवं पति के दीर्घायु होने को लेकर मनाये जाने वाला यह महापर्व मुख्य रूप से एक वर्ष के अन्दर के विवाहितों द्वारा ही मनाया जाता है। लोकपर्व के 13 दिनों में एक वर्ष के अन्दर के विवाहिताओं द्वारा प्रतिदिन पुष्प तोड़ना एवं इस दौरान प्रकृति के सान्निध्य में रहकर परम्परा का निर्वहन करने का अलग उत्साह होता है। ..सखी है, चलु मधुबन फूल पात लोढ़े लेल, आएल मधुश्रावणी अहिबात पूजय लए...। नवविवाहिता सोलह श्रृंगार कर अपनी बहनों एवं सहेलियों के साथ इस गीत को गाते हुए प्रतिदिन विभिन्न बगीचों एवं विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिरों में जाकर पुष्प एवं डाली समेत पत्ता लोढ़ती (चुनती) है एवं दूसरे दिन इसी से पूजा अराधना करती है। जिसे देखने को लेकर लोगों में काफी उत्साह होता है। लोकपर्व को लेकर रंग-विरंगे साड़ियों एवं परिधानों में सज-धज कर नवविवाहिताओं का झुंड पुष्प एवं पत्ता लोढ़ने का काम शुरू कर चुकी है। श्रृंगार भाव से भरा यह पर्व नवविवाहिताओं को प्रकृति से समन्वय बनाने एवं पर्यावरणीय संतुलन से भी रू-ब-रू कराता है।
इस महापर्व के दौरान नव-विवाहिताओं के साथ-साथ उनके पूरे परिवार की दिनचर्या बदल जाती है। इस दौरान नवविवाहिताऐं व्रत रखकर प्रत्येक दिन सुबह स्नान कर भगवान शिव के परिवार में शामिल भगवान महादेव, माता गौरी, बासुकी नाग-नागिन, चनाय पंचदेवता एवं नवग्रह और विषहरा की पूजा अराधना करती है। इस दौरान नवविवाहिताऐं मधुश्रावणी की कथा भी सुनती है। पर्व में पुरूषों का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। यहां तक की इस महापर्व में पुरोहित भी महिला ही होती है। महिला पुरोहित प्रतिदिन महादेव-पार्वती सहित कई अन्य शास्त्रीय कथा सुनाकर दाम्पत्य जीवन से जुड़ी विभिन्न पक्षों से अवगत कराती है। पूजा के प्रसाद के रूप में फल एवं मिठाई का उपयोग किया जाता है। प्रतिदिन शाम में ससुराल से आये अरवा- अरवाईन भोजन सामग्री (अन्न) से तैयार भोजन करती है। भोजन में मुख्य रूप से चावल का खीर, चुरा, फल एवं दुध और मिठाई का ही सेवन करती है। पूरे पर्व के दौरान नवविवाहिताओं के भोजन में नमक का प्रयोग निषेध है। लोकपर्व के मर्मज्ञ डा0 शंकरदेव झा बताते है कि इस पर्व में नवविवाहिताओं को अपने दाम्पत्य जीवन को खुशहाल बनाने के लिए विभिन्न परिस्थितियों से सीख लेने का मौका भी मिलता है। किवदंतियों के अनुसार महादेव विपन्न थे और गौरी राजकन्या थी। अनमेल विवाह के बाद गौरी को अपने दाम्पत्य जीवन के बीच समन्वय एवं सामंजस्य बनाने की कथा नवविवाहिताओं को मार्गदर्शन देती है और उसके अनुरूप ढ़लने के लिए प्रेरित भी करती है। सीता की तरह ही माता गौरी को भी मिथिला की ही पुत्री माना जाता है। महापर्व के अन्तिम दिन श्रावण शुक्ल तृतिया को नवविवाहिता के पति का ससुराल में होना अनिवार्य है और इस दिन दोपहर बाद विधकरी द्वारा नवविवाहिता की पति की मौजूदगी में नवविवाहिता की पैर के घुटने में टेमी दागती है। टेमी दागने के समय नवविवाहिता का पति अपने पत्नी की ऑंख पान के पत्ते से बन्द कर देता है। टेमी दागने से घुटने पर होने वाले फोका और असहनीय दर्द को लेकर अब इसमें भी परिवर्तन हो रहा है । आधुनिकता के प्रभाव वाले घरों में टेमी दागने के बदले चंदन लगाया जाता है। टेमी दागने के दौरान निकलने बाले फोका को लेकर भी कई किवदन्तिया है। मान्यता है कि जिस नवविवाहिता को जितना बड़ा फोका निकलेगा, उसका सुहाग उतना मजबूत होगा। यह काफी रोमांचित करती है।
इस पर्व में नवविवाहिताओं के लिए वस्त्र, श्रंगार की सामग्री एवं भोजन सामग्री ससुराल से आने का प्रावधान है जिसे भार कहा जाता है। यह परम्परा भी आधुनिकता के दौर में बदल रहा है। अब सामान के बदले वरपक्ष के लोग कुछ रकम देकर इस रस्म की अदायगी भर कर रहें है जबकि नवविवाहिताऐं पूरे उत्साह एवं नियमपूर्वक इस कठिन पर्व को मना रही है। मधुबनी जिला के लवानी गांव के मूल निवासी ऋचा मधुश्रावणी को लेकर बहुत आह्लादित एवं उत्साहित है। मई 2016 में ही रिचा की शादी हुई है। वो मधुश्रावणी का पर्व मनाने अपने घर आयी है। उन्होंने बताया कि उसके पति आज यहां आये है और उनके टेमी दागने के दौरान यहां रहकर उनका मान बढ़ायेंगे। उन्होंने बताया कि व्यस्तताओं एवं छुट्टियों के अभाव के बावजूद भी वे इस पर्व को लेकर काफी उत्साहित है और पन्द्रह दिनों तक इसे वे पूरी निष्ठा एवं नियमपूर्वक किया है। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डा0 देवनारायण झा ने कहा कि विवाह की परंपरा में आए विकृति के बावजूद भी मिथिला में इसकी परम्परा आज भी अक्षुण्ण है। उन्होंने नयी पीढ़ी से अपनी परम्परा का निर्वहन करने की अपील करते हुए कहा कि वे पाश्चात्य संस्कृति के दबाब में नहीं आए। मिथिलांचल के इस पावन-पर्व में आज भी महिला पंडित ही पूजा कराती है। महिला पंडित नहीं रहने पर भी आसपास की कोई दादी, काकी, बुआ आदि ही प्रतिदिन नवविवाहिताओं का पूजा करवाती है। अन्तिम दिन उन्हें दक्षिणा के रूप में अन्न, वस्त्र एवं रूपये भेंट करने की परम्परा है। विश्व स्तर पर महिला सशक्तिकरण की आज बात की जा रही है लेकिन मिथिला में महिला हमेशा सशक्त रही है।

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