पूर्णिया (कुमार गौरव) : कई पहलुओं को सोचकर बनाई गई परंपरा और संस्कृति लोगों को अपनी ओर खींच ले जाती है और हम पहुंच जाते हैं उस आंगन में जहां कभी जांता, ओखल-मूसल व चकरी आंगन का सौंदर्य बढ़ाती थी। तब किसी के घर में ओखल, जांता व चकरी के बिना काम नहीं चलता था। सचमुच ओखल में तुरंत कूटे हुए धान के गरमागरम उस सुरका के चूड़े की मिठास व नया धान के कुटे हुए चावल का चेका भात की स्वाद ही कुछ अलग है। घर घर में कुटाई का काम मिल कर करने वाली इस ओखल मूसल की कितनी महती भूमिका थी शायद इससे बड़े बुजुर्ग व प्रौढ़ अनभिज्ञ नहीं होंगे। वहीं चकरी की दाल दरने के लिए उपयोगी थी तो जांते में महिलाएं तुरंत बेसन, सतू आदि तैयार कर देती थी। चूड़ा, चावल तैयार करने के साथ साथ दाल छांटने के काम आनेवाले ओखल-मूसल खेती में मकई तैयार होते ही चूड़े का स्वाद चखाने लगती थी। तरह तरह के व्यजनों को जब चाहो उपलब्ध करा देने वाली ये तीनों वस्तुओं घरेलू महिला व जो इसका इस्तेमाल करते थे उनके लिए स्वास्थ्यवर्धक भी थी।
...घरेलू कार्य से हो जाता था शारीरिक व्यायाम :
ओखल में कूटने तथा जांता व चकरी चलाने से लोगों का शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था। जिससे वे सभी अपने अंतिम पड़ाव तक काफी स्वस्थ रहते थे और बीमारियों से हमेशा उनकी दूरी बनी रहती थी। गुजर चुके उन दिनों में स्वास्थ्य के लिए दवा का काम करने वाले व प्रतिदिन के भोजन नियमित अहम भूमिका निभाने के साथ ही तब घर घर की शोभा बढ़ाने वाली लक्ष्मी से सुशोभित ये तीनों अति महत्वपूर्ण वस्तुएं आज प्राचीन परंपरा की धरोहर बनने को विवश हो गई हैं। आखिर हो भी क्यों न, हर घर में भौतिकवादी चकाचौंध जो हवा की तरह छा गई है। अब तो इलेक्ट्रॉनिक मशीनी युग में स्वीच व मिक्सी बटन दबाते ही मिनटों में आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो जा रही हैं। आज की घरेलू महिलाओं की कार्यशैली को ही ले उनकी आरामतलबी के कारण इसका इस्तेमाल नहीं कर रहीं। जबकि कुछ का जीवन इतने रफ्तार में है कि समयाभाव आड़े आ रही है।
...सुविधा बढ़ी लेकिन छिन गए स्वास्थ्य :
स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखें तो इन सुविधाभोगी सामानों के उपयोग से हम कम उम्र में ही विभिन्न रोगों के शिकार हो जा रहे हैं। बचाव के लिए कोई जिम सेंटर जा रहे तो कोई योगा संस्थान में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। ताकि जैसे भी हो स्वस्थ रहे। कई बीमारियों के निदान स्वरूप चिकित्सक भी व्यायाम की सलाह दे रहे हैं जो कई खूबियों को समेटे उस ओखल, चकरी तथा जांता चलाने से स्वतः हो जाता था। अफसोस तो यह है कि आज इतनी महत्वपूर्ण वस्तुओं को न हम सिर्फ विस्मित कर रहे हैं बल्कि वह अगर घर आए मेहमानों के सामने दिख जाए तो अपनी तौहीन भी समझ रहे हैं। जबकि इनका घर में स्थान वहां होना चाहिए जहां सब देखे जाने तो इसके बारे में पूछे ही। साथ ही हमारी आने वाली पीढ़ी भी इनका महत्ता भली भांति परिचित हो सके। हम भी अपनी प्राचीन संस्कृति की गुणवत्ता का उल्लेख कर गौरवान्वित हो सके।
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