विशेष : हिंदी के सामने असली चुनौतियाँ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 27 अगस्त 2019

विशेष : हिंदी के सामने असली चुनौतियाँ

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हिंदी-दिवस अथवा हिंदी-सप्ताह या फिर हिंदी पखवाड़ा आदि मनाने के दिन निकट आ रहे हैं।सरकारी कार्यालयों में,शिक्षण-संस्थाओं में,हिंदी-सेवी संस्थाओं आदि में हिंदी को लेकर भावपूर्ण भाषण व व्याख्यान,निबन्ध-प्रतियोगिताएं,कवि-गोष्ठियां पुरस्कार-वितरण आदि समारोह धडल्ले से होंगे।नयी सरकार ने चूंकि हिंदी के रथ पर सवार होकर ही गढ़ जीता है,अतः उसका आशीर्वाद भी इस भाषा को मिलेगा।मगर प्रश्न यह है कि इस तरह के आयोजन पिछले साठ-सत्तर सालों से होते आ रहे हैं,क्या हिंदी को हम वह सम्मानजनक स्थान दिला सके हैं जिसका संविधान में उल्लेख है या जिसकी कामना हिंदी जगत को है?  भाषण देने,बाज़ार से सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म/सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है,मगर कौन नहीं जानता कि वैश्वीकरण के इस दौर में अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बन हुआ है।इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाय?निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी-आयोजनों के दौरान इस पर भावुक हुए विना वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए।निजी क्षेत्र के संस्थानों अथवा प्रतिष्ठानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इस भाषा का वहां पर ‘दोहन’ किया जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा। 

यों देखा जाय तो हिंदी-प्रेम का मतलब हिंदी विद्वानों,लेखकों,कवियों आदि की जमात तैयार करना कदापि नहीं है।हिंदी-प्रेम का मतलब है हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अच्छे अवसर तलाशना,उसे उच्च-अध्ययन ख़ास तौर पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढाई के लिए एक कारगर माध्यम बनाना और उसे देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का सूचक बनाना।कितने दुःख की बात है कि हिंदी दिवस तो पसरते जाते हैं,मगर खुद हिंदी सिकुड़ती जा रही है। कहने को तो आज इस देश में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है किन्तु स्थिति भिन्न है. चाहे विश्विद्यालयों या लोकसेवा आयोगों के प्रश्न-पत्र हों, या फिर सरकारी चिट्ठी-पत्री, मोटे तौर पर राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के सर्वव्यापी विज्ञापन और कुकरमुत्ते की तरह उगते इंग्लिश मीडियम के स्कूल अंग्रेजी के साम्राज्य का डंका बजाते दीख रहे हैं।जहां-जहां अभिलाषा या जरूरत है वहां-वहां अंग्रेजी है।दरअसल,इन पैंसठ-सत्तर सालों में सत्ता का व्याकरण हिंदी में नहीं अंग्रेजी में रचा जाता रहा है। सता के केंद्र में बैठे लोग औपचरिकतावश हिंदी का समर्थन करते रहे,अन्यथा भीतर से मन उनका अंग्रेजी की ओर ही झुका हुआ था।हिंदी की ओर होता तो शायद आज हिंदी को लेकर परिदृश्य ही दूसरा होता. 

पहले कहा जा चुका है कि किसी भी भाषा का विस्तार,उसकी लोकप्रियता या फिर उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे ‘ज़रूरत’ यानी ‘आवश्यकता’ से नही जोड़ा जाता। यह ‘ज़रूरत’ अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है।हिन्दी को इस ‘जरूरत’ से जोड़ने की बहुत आवश्यकता है।हिन्दी की तुलना में ‘अंग्रेजी’ ने अपने को इस ‘ज़रूरत’ से हर तरीके से जोड़ा है।जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफ़्तार से देश-विदेश में अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाजि़मी हो गया है।मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूँ।मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेजी ने अपने को उस जरूरत से जोड़ा है जो अच्छी नौकरी देती है,प्रतिष्ठा देती है या फिर ज्ञान-विज्ञान की नई खिड़कियाँ हमारे लिए खोलती हैं। इस बात को भी हमें स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी ने अपने को मौलिक-चिंतन, मौलिक-अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा बना हुआ है।हिन्दी अभी ‘जरूरत’ की भाषा नहीं बन पाई है।हमें इस बात का जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन खास तौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र,प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए हम हिंदी में स्तरीय/मौलिक पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं?क्या कारण है कि एनडीए,सीडीएस,बैंक प्रोबेशनरी ऑफिसर्स टेस्ट,कैट आदि परीक्षाओं और प्रतियोगिताओं के लिए हम हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैं?क्या कारण है कि आईआईटी,पीएमटी आदि परीक्षाओं में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है? ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है। यह सब क्यों हो रहा है?अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए। 

जैसा कि पूर्व में खा जा चुका है कि हिन्द्र प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों, लेखकों, कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार करना नहीं है।जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं,वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका धर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें।मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम-धन्धों से जुडा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे।टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले,मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिणभारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बड़े चाव से देखा क्येांकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही उन्होंने हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। हम ऐसा ही एक सहज सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव उसे प्राप्त हो। 

एक बात और। हिंदी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है।इन संगोष्ठयों में अक्सर यह सवाल अहिन्दी-भाषी हिंदी विद्वान करते हैं कि हम तो हिंदी सीखते हैं या फिर हमें हिंदी सीखने की सलाह दी जाती है, मगर आप लोग यानी हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोग हमारे दक्षिण भारत की एक भी भाषा सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह रटा-रटाया जुमला मैं कई बार सुन चुका हूँ। और आखिर एक सेमिनार में मैं ने कह ही दिया कि दक्षिण की कौनसी भाषा आप लोग हम को सीखने के लिए कह रहे हैं? तमिल/मलयालम/कन्नड़/या तेलुगु?और फिर उससे होगा क्या? आपके अहम् की संतुष्टि? पंजाबी-भाषी डोगरी सीखे तो बात समझ में आती है।राजस्थानी-भाषी गुजराती सीख ले तो ठीक है।इन प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं आपस में मिलती हैं, अतः व्यापार या परस्पर व्यवहार आदि के स्तर पर इससे भाषा सीखने वालों को लाभ ही होगा।अब आप कश्मीरी-भाषी से कहें कि वह तमिल या उडिया सीख ले या फिर पंजाबी-भाषी से कहें कि वह बँगला या असमिया सीख ले (क्योंकि इस से भावात्मक एकता बढेगी) तो आप ही बताएं यह बेहूदा तर्क नहीं है तो क्या है?इस तर्क से अच्छा तर्क यह है कि अलग-अलग भाषाएँ सीखने के बजाय सभी लोग हिंदी सीख लें ताकि सभी एक दूसरे से सीधे-सीधे जुड़ जाएँ।वह भी इसलिए क्योंकि हिंदी देश की अधिकाँश जनता समझती-बोलती है। 




-डॉ० शिबन कृष्ण रैणा-

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