पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने दलित व पिछड़ों के लिए सत्ता की संभावना के द्वार खोले थे। उन्होंने सवर्णों की राह बंद नहीं की थी। इसके विपरीत भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने सवर्णों के लिए सत्ता के द्वार बंद कर दिये हैं। उन्होंने कई बार खुद कहा कि बिहार में भाजपा नीतीश कुमार के नेतृत्व विधान सभा चुनाव लड़ेगी यानी श्री शाह ने भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की राह बंद कर दी। तब सवाल उठता है कि सवर्णों ने कभी रामविलास पासवान की ‘बेगारी’ की थी, अब नीतीश कुमार की ‘कहारी’ कर रहे हैं तो तेजस्वी यादव के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने में क्या परेशानी है। तेजस्वी के नेतृत्व से परहेज क्यों कर रहे हैं। यह सवाल तब उठ रहा है, जब बिहार की राजनीति करवट ले रही है। भाजपा की संभावना तय कर दी गयी है। भाजपा के कैडर वोट सवर्णों को उनकी हद समझा दी गयी है। पिछले 15 वर्षों में सवर्णों को क्या मिला। पंचायती राज व्यवस्था में ब्राह्मण और कायस्थ ‘विलुप्त प्रजाति’ की स्थिति में पहुंच गये हैं। जिन सवर्णों को सत्ता का भरोसा देकर नीतीश कुमार राज कर रहे हैं, वह समाज सत्ता के लिए लालायित है। जिस यादव को राजनीतिक रूप से साफ करने की राजनीति नीतीश कर रहे थे, वह आज सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है। बिहार विधान सभा में अकेले 61 यादव विधायक हैं और चारों सवर्ण जातियों के विधायकों की संख्या सिर्फ 52 है। यानी चार जातियों पर अकेले यादव भारी पड़ रहे हैं। फिर वही सवाल 15 वर्षों में सवर्णों को क्या मिला। तेजस्वी यादव में अनेक खामियां हो सकती हैं। हमने ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ के जनवरी अंक में तेजस्वी की कमियां गिनवायी है। हम यह भी मानते हैं कि तेजस्वी में संघर्ष की क्षमता नहीं है, विपरीत परिस्थितियों से मुकाबले का धैर्य नहीं है। क्षमता और धैर्य होता तो तेजस्वी यादव नीतीश के खिलाफ जमीन पर संघर्ष कर रहे होते, लेकिन तेजस्वी ट्विटर पर उड़ गये। साथ में काम करने वाली टीम इतनी कमजोर है कि प्रेस रिलीज भी सही-सही लिख कर नहीं भेज सकती है। संगठन के साथ कोई व्यक्तिगत संपर्क नहीं है। लेकिन यह भी इतना ही सच है कि भविष्य की संभावना भी तेजस्वी यादव में ही है। जेपी आंदोलन से निकले नेताओं के बाद नेतृत्व की पूरी एक पीढ़ी गायब है। वर्तमान में सभी प्रमुख नेता 65 के पार हैं और तेजस्वी 30 को पहुंच रहे हैं। बीच के 35 वर्षों में एक भी नेता नहीं उभर पाया, जिसकी किसी पार्टी में स्वीकार्यता हो। खुद को सर्वगुण संपन्न मनाने वाला सवर्ण समाज भी एक भी भरोसे का नेता नहीं दे पाया। वैसी स्थिति में तेजस्वी को नेता मानने में सवर्णों को क्या परहेज हो सकता है। सवर्णों के पास कोई नेता नहीं है और जिस पार्टी को ढो रहे हैं, उसके पाले में नेता बनने की कोई संभावना नहीं है। जिनकी सत्ता पालकी ढो रहे हैं, उनके पास देने के लिए आश्वासन भी नहीं है। आखिर कब तक सवर्ण समाज सत्ताहीन सड़कों पर दौड़ता रहेगा। नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार से बेरोजगार होकर सड़कों पर आने वाली 90 फीसदी आबादी सवर्णों की ही है। सवर्णों को अब नये सामाजिक और राजनीतिक समीकरण के लिए मंथन करना चाहिए। विमर्श करना चाहिए। लालू यादव राज में सवर्णों ने कभी जातीय सम्मेलन कर अधिकार की मांग नहीं की। जबकि नीतीश राज में अलग-अलग बैनरों के नीचे सर्वाधिक सम्मेलन सवर्णों ने ही किये हैं। यह बदलते सरोकार और समीकरण का संकेत भी है। सवर्ण समाज भी नये प्रयोग के लिए बेचैन है। इस बेचैनी को तेजस्वी यादव मंच दे सकते हैं। तेजस्वी को भी इस दिशा में प्रयास करना चाहिए। बिहार के राजनीतिक माहौल में सवर्णों के साथ संवाद जरूरी हो गया है। नया समीकरण ही बिहार की नयी तस्वीर गढ़ सकता है।
साभार : बीरेंद्र यादव न्यूज़
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