राजकमल प्रकाशन का तिहत्तरवाँ स्थापना दिवस मनाया गया - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

राजकमल प्रकाशन का तिहत्तरवाँ स्थापना दिवस मनाया गया

“जब तक लेखकों और पाठकों का भरोसा हमारे साथ है, राजकमल का भविष्य उज्ज्वल है“
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राजकमल प्रकाशन का तिहत्तरवाँ स्थापना दिवस आज शाम नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मनाया गया। इस अवसर पर भविष्य के स्वर विचार पर्व कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें अलग-अलग क्षेत्र से जुड़े सात वक्ताओं ने भविष्य की सम्भावनाओं पर अपने विचार रखे। इस मौके पर साहित्य, कला, राजनीति व मीडिया जगत से जुड़े कई लोग उपस्थित रहे।

राजकमल प्रकाशन का तिहत्तर साल का इतिहास
स्थापना के तिहत्तरवें साल के मौके पर राजकमल प्रकाशन की पूर्व प्रबंध निदेशक शीला संधु भी उपस्थित रहीं। वर्तमान प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने राजकमल प्रकाशन की इतिहास पुस्तिका ‘बढ़ते कदम बनती राहें’ उन्हें भेंट की। अशोक महेश्वरी ने कहा “राजकमल की परम्परा और मान को बढ़ाने में शीला जी का योगदान बहुत बड़ा है। शीला जी ने साहित्येत्तर विधाओं में पुस्तक प्रकाशन को जारी रखा। आलोचना पुस्तक परिवार, ग्रन्थावली प्रकाशन, राजकमल पेपर बैक्स जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरुआत शीला जी के कार्यकाल में ही हुई।” राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फरवरी 1947 को हुई। यह इस देश की आज़ादी के संग-संग ही आया। राजकमल का इतिहास आधुनिक हिंदी प्रकाशन और आधुनिक हिंदी लेखन का भी इतिहास है। पिछले 73 वर्षों से राजकमल प्रकाशन हिंदी साहित्य को पूरे देश में और भारतीय साहित्य को हिंदी प्रदेशों के गाँव-कस्बे तक फैलाने व पहुँचाने में तत्परता से अपनी भूमिका निभा रहा है। इस यात्रा का अपना एक संघर्ष है, अपनी एक कहानी है, अपना एक इतिहास है जो एक तरह से हिंदी के लोकवृत्त का इतिहास है।

भविष्य के स्वर : विचार पर्व  पिछले साल की तरह इस साल भी भविष्य के स्वर कार्यक्रम में सात युवा वक्ताओं को आमंत्रित किया। राजकमल प्रकाशन ने हमेशा वर्तमान में हो रहे और भविष्य में होने वाले बदलावों को सकारात्मक तरीक़े से पहचाना है। विचार और पुनर्विचार की निरंतरता से ही कोई भी समाज आगे बढ़ता है। अगर ऐसा न हो तो वह धीरे-धीरे खोखला होता चला जाता है। हिंदी समाज जिस संक्रान्ति काल से गुजर रहा है उसमें अब समय है भविष्य पर विचार करने का। राजकमल प्रकाशन ने अपने प्रकाशन दिवस पर 

आदिवासियों के बीच शिक्षा व संस्कृति पर काम कर रहीं जसिंता करकेट्टा ने भविष्य का समाज : सहजीविता के आयाम विषय पर अपने वक्तव्य में कहा “भारत की मूल संस्कृति सहजीविता की संस्कृति है। क्योंकि यहां गण राज्य होते थे। इतिहास जिन्होंने लिखा उन्होंने यहां के मूलवासियों के नज़रिए से इतिहास नहीं लिखा, अपने तरीके से इतिहास लिखा। लेकिन इस देश में आज भी लोगों ने देश की मूल संस्कृति को बचाकर रखा है। वे लगातार उन संस्कृतियों के छीने जाने या मिटाए जाने के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। जो लिखा नहीं गया उसे लोगों ने अपने जन जीवन में बचाकर रखा है। तो देश में दो तरह के इतिहास हैं। एक जो लिखा गया है और एक जो जीवित इतिहास है। वह जीवित इतिहास आदिवासियों के पास है। एक संस्कृति जो कई वर्षों से लगातार तथाकथित मुख्यधारा की संस्कृति के खिलाफ लड़ रही है।”

स्मृतिलोप का दौर : भविष्य की कविता विषय पर अपने वक्तव्य में युवा कवि सुधांशु फि़रदौस ने कहा “तात्कालिकता और कविता से बहुत काम लेने की विवशता धीरे धीरे सृजनात्मक स्पेस को संकुचित करते जा रही है. इसलिए कविता के लिए भविष्य में फॉर्म के रूप में चुनौती बढ़ती जा रही है. इसमें दबाव प्रदत्त उछल-कूद की संभावना तो है, लेकिन कोई बड़ी उड़ान नहीं दिख पा रही है. फिक्र में उलझे आदमी से एक मुद्दा छूटता है, तब तक दूसरा मुद्दा उसे अपने गिरफ्त में ले लेता है. ऐसी ऊब-डूब में कोई विचार लम्बे समय तक सोच का हिस्सा नहीं बन पाता है.” लोगों में कलात्मक कौशल का संप्रेषण एवं आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए निरंतर कार्यरत जिज्ञासा लाबरू ने मुखर बचपन, सुंदर भविष्य विषय पर अपने वक्तव्य में कहा कि पूरी दुनिया में नफ़रत और हिंसा बढ़ रही है। तकनीकी सुविधाए इनसानी रिश्तों के समय और सुख को छीन रही हैं। सभी टीवी, वीडियो गेम, मोबाइल एप्प और सोशल नेटवर्किंग में उलझे हुए है। ऐसे में कला ही ऐसा माध्यम है जो हमें अपने अंतःकरण की प्रस्तुति करने में समर्थ बनाता है। जब मैंने वंचित बच्चों के साथ काम करना शुरू किया मेरे सबसे पहले अनुभवों में था हमारे इन बच्चों के लिए देखे गए सपनों का बेहद छोटा होना। हमारे सपने मानो नौकरी और परीक्षा में अच्छे अंकों की चादर में तंग आकर रह गए थे, परन्तु अपनी पहचान, अपनी आवाज़ की खोज करने पर हम सबका बराबर का अधिकार है।

दास्तानगोई के जाने माने फ़नकार हिमांशु बाजपेयी ने क़िस्सागोई : वाचिक परंपरा का नया दौर विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि जब मीडिया और बाज़ार मिलकर लोगों को एक ख़ास तरह की जानकारी दे रहे हों, हर शहर से उसका मूल किरदार छीन कर सबको अपने मुताबिक बना रहे हों तब किस्सागोई इसके ख़िलाफ़ एक मजबूत एहतेजाज है। क्योंकि किस्सागोई लोगों को उनकी मौलिकता, विशिष्टता और परंपरा का एहसास करवाती है। उन कहानियों को लोगों तक ले जाती है, बाज़ार, मीडिया या राजनीति जिन कहानियों को लोगों तक पहुचने से रोकते हैं।

सिनेमा विश्लेषक मिहिर पंड्या ने सिनेमा की बदलती ज़मीन : भविष्य का सिनेमा विषय पर अपने वक्तव्य में कहा कि अगर हमारा सिनेमा अपने दर्शक को ऐसी कहानियाँ दे, जिसमें उसका आत्म झलकता हो। उसकी बोली-बानी में उसके हिस्से की बात हो। ऐसी भाषा, ऐसा भाव जो उसकी ज़मीन का हो और जिसे किसी विदेशी सिनेमा से हासिल कर पाना असंभव हो। वही सिनेमा इस ग्लोबलाइज़्ड दौड़ में लम्बे समय तक टिका रह पाएगा।

कवि व आलोचक मृत्युंजय ने फैन कल्चर का दौर : भविष्य का आलोचक विषय पर बोलते हुए कहा कि ने आज के पेशेवर आलोचक के सामने चुनौती यह है कि वह रचना के प्रभामंडल का पुनर्निर्माण करे लेकिन यह काम पुराने तरीके से होना असम्भव है। पाठक आलोचक ने पुराने गढ़ों को तोड़ दिया है। बिना उससे बहस-मुबाहिसा किए, बिना उसकी आलोचना की आलोचना किए रचना की आलोचना अब शायद ही सम्भव हो। अगर पेशेवर आलोचकों ने यह नहीं किया तो वे अपनी अलग जगह से रचना के उस प्रभामंडल के बारे में बात करते रहेंगे जो अब सिर्फ़ उन्हीं को दिखता है, जिसे वे अब किसी को दिखा नहीं पाते हैं। पाठकों के बीच में से एक होना इस नए पाठक आलोचक समुदाय से बात करने का पहला चरण है। उनकी पसंद का विश्लेषण इस प्रक्रिया का दूसरा चरण होगा। उनसे बहस-मुबाहिसा करते हुए, उनकी व्यक्तिवत्ता का सम्मान करते हुए आलोचक के स्वयंभू उत्कृष्ट सिंहासन से उतर आना होगा। तभी जाकर आलोचक, इस पाठक-आलोचक समुदाय के मूल्यबोध को किसी बड़े आख्यान में बदल पाएगा।

कथाकार चन्दन पाण्डेय ने पॉपुलर बनाम पॉपुलिस्ट : आख्यान की वापसी विषय पर अपने वक्तव्य में कहा कि फासीवाद के जिस नए संस्करण से हम मुब्तिला हैं उससे लड़ने के लिए सबको अपना किरदार निभाना होगा. फासीवाद की जड़े इतनी गहरी हैं कि रचनाकर्मियों को नित प्रतिदिन यह सोचना होगा, ऐसा क्या लिखा जाए जो फासीवाद को कमजोर करे.
अब अगर आख्यान को वापसी करनी है तो उसे उस बोझ पर हमला करना होगा जो फासीवादियों के सर पर है. हमें उस बोझ को जानना होगा. उस गठरी में जाति और नफरत के दो बक्से हैं यह तो दूर से दिख रहा है लेकिन और क्या है यह जानना होगा. प्रेम. संसाधनोंकी हड़प. नौकरियाँ. आख्यान की वापसी अगर होनी है तो वहीं से होगी.

अशोक महेश्वरी ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि मैं आप सभी का हृदय से आभारी हूं। मैं बार-बार यह कहता रहा हूँ, फिर कह रहा हूँ, हमारे सम्बल आप सब हैं। जब तक लेखकों और पाठकों का भरोसा हमारे साथ है, राजकमल का भविष्य उज्ज्वल है।

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