विशेष : महिला कार्य बोझ में सुधार की ज़रुरत - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 3 मार्च 2020

विशेष : महिला कार्य बोझ में सुधार की ज़रुरत

भारत के 27वें राज्य के रूप में गठित उत्तराखण्ड राज्य में सरकार महिलाओं के सशक्तिकरण का चाहे जितना भी दावा कर ले, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि आज भी महिलाओं के जीवन में अपेक्षानुरूप सुधार नहीं हुआ है। बात चाहे उनके कार्य बोझ की हो या स्वास्थ्य अथवा सुविधाओं के सम्पन्न होने की, राज्य बनने के 19 वर्ष बाद भी महिलाओं की स्थिति में बहुत अधिक सुधार देखने को नहीं मिला है। राज्य की 10 सबसे बड़ी योजनाओं में महिला कार्य बोझ की बात का जिक्र तक नहीं है, स्वास्थ्य सुविधाओं की बात जरूर की जाती है लेकिन स्वास्थ्य ठीक होने के लिए समय का अभाव आज भी पर्वतीय क्षेत्र की महिलाओं के जीवन में देखने को मिलता है। 

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जब भी हम पर्वतीय मार्गो का सफर शुरू करते है तो इन इलाकों की नैर्सगिक सुन्दरता के साथ-साथ एक व्यक्तिव हमारे सफर में अक्सर देखने को मिलता है और वह है पर्वतीय क्षेत्र  महिलाओं का जीवन। जो कभी घास के लुटो, कभी लकड़ियों के गठ्ठों तो कभी पानी के बर्तनों के साथ हमारे सफर में साथ साथ चलती है। यह तीन कार्य पर्वतीय महिलाओं के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं जिन्हें पूर्ण करने में प्रति महिला 10 से 12 घण्टे का समय लगता है। इसके अतिरिक्त अन्य घरेलू कार्यो में भी काफी समय लग जाता है। देखा जाए तो पर्वतीय महिलाओं के पास अपने लिए समय का अभाव होता है। जहां हाथों में 10 किलो का भार लेकर सीधे मार्गो में चलना भी दुष्कर होता है वही पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाएं सर पर 30 से 35 किग्रा (घास,लकड़ी,पानी) का भार लेकर पहाड़ो के उबड़-खाबड़ मार्गो में नित्य चलती हैं। यह महिलाएं संबंधित कार्यों को पूर्ण करने के लिए उचित प्रकार से भोजन भी नहीं करती हैं। एक काम ख़त्म होता नहीं है कि दूसरे कार्य पूरा करने के लिए निकल पड़ती हैं।

अल्मोड़ा जनपद के लमगड़ा विकास खण्ड स्थित कई गावों में भ्रमण के दौरान यह देखने में आया कि मवेशियों के नाद में चारा नहीं था। जिसे पूरा करने के लिए गांव की महिलाएं वन पंचायतों और जंगलों में दूर दूर तक जाती हैं। ताकि समय पर मवेशियों के लिए चारा घास इकठ्ठा की जा सके। इन घासों को लाकर वह अपने जानवरों को खुले में डाल देती हैं। लेकिन कई बार जानवर उनकी मेहनत को बर्बाद कर देते हैं। खुले में चारा होने के कारण मवेशी अक्सर उन्हें खाने से अधिक बर्बाद कर देते हैं। यह महिलाएं बताती हैं कि हफ्ते में लगभग 6 किलो घास मवेशी खाने की जगह उन्हें बर्बाद कर देते हैं। यह केवल जंगल की बर्बादी नहीं है बल्कि उनके परिश्रम का भी ह्रास होता है। लेकिन जानवरों द्वारा किये गए बर्बादी को रोकने का उनके पास कोई ठोस उपाय नहीं है। उन्हें लगता है कि राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन को ऐसी कोई योजना बनानी चाहिए, जिससे इस बर्बादी को रोका जा सके। ऐसी कोई परियोजना शुरू करनी चाहिए जिससे बर्बाद हुए चारा को पुनः प्रयोग में लाया जा सके। 

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ग्राम तोली की एक बुज़ुर्ग कमला देवी बताती हैं कि उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय लकड़ी, घास, पानी, घर के दैनिक कार्यो आदि को करने में ही गुज़ार दिया है। उन्हें ऐसा लगता है कि वन कार्यों से उन्हें अपने लिए कभी पर्याप्त समय ही नहीं मिल पाया। उन्होंने कहा कि वह कल जहां थीं, वहीे आज खड़ी हैं। यह स्थिति केवल कमला देवी की ही नहीं हैं बल्कि उत्तराखंड के अधिकतर ग्रामीण महिलाओं की यही हालत है। सरकारी योजनाएं उनके लिए क्या हैं और कहा हैं? सिर्फ कमला देवी ही नहीं बल्कि इस राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकतर महिलाओं को सरकार द्वारा उनके हक़ में चलाए जा रहे किसी भी महिला योजनाओं की शायद कोई जानकारी नहीं है। हालांकि कागजों पर ऐसी योजनाएं शत प्रतिशत चल रही होती हैं लेकिन असल में यह शून्य ही साबित होती हैं।

हालांकि सरकार की ओर से ग्रामीणों को समय-समय पर आयोजित परियोजनाओं और सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारियां प्रदान की जाती रहती हैं। भारत सरकार द्वारा संचालित डी.एस.टी परियोजनान्तर्गत चारा नाद निर्माण के लिए ग्रामीणों को जागरूक किया जाता रहा है। उन्हें बताया गया कि इसके उपयोग से चारे की बर्बादी कम होती है। जानवरों को इससे खाने में कठिनाई नहीं होती है। जिससे चारा घास बर्बाद होने से काफी हद तक बच जाता है। देखा जाए तो इससे महिलाओं द्वारा किया गया परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता है। प्रारम्भ में यह योजना ग्रामीणों के लिए  थोड़ा अजीब था। लेकिन ग्रामीण महिलाएं जिनको इसमें फायदा दिखा उन्होने इस कार्य को न केवल अपनाया बल्कि अन्य लोगों को भी इसके लिए जागरूक किया। 

वर्त्तमान में डी.एस.टी. परियोजना के संचालन के बाद गांव के 240 परिवारों वाले तीन गांव में जहां एक भी पशु चारा नाद नहीं था, वहां 160 पशु चारा नाद बन चुके हैं। यह ग्रामीण महिलाओं के जागरूक होने का बहुत बड़ा उदाहरण है। ग्रामवासी सुचारू रूप से इनका प्रयोग भी कर रहे हैं। जहां पूर्व में 6 किलो घास बर्बाद हो जाया करती  थी वहीं आज यह घटकर एक किग्रा हो गयी है। आज उन चेहरों पर खुशी देखने को मिल रही है जिन पर कभी उदासी देखी जाती थी। ग्रामवासी महिलाओं की जागरूकता को देखकर हर्षित है। चारा घास एकत्रण समय में कमी लाने के लिए उन्नत चारा घास बीज ग्राम स्तर पर उपलब्ध कराये जाने लगे हैं। जिससे घर के नजदीक घास उपलब्ध हो जाने महिलाओं के समय में बचत होने लगी है। ग्राम कल्टानी की अनीता फत्र्याल और ठाट गांव की बीना देवी बताती हैं कि अब उन्हें जंगलों में कम जाना पड़ रहा है। यदि साल भर की बात की जाए तो 240 परिवार द्वारा घास एकत्र करने में लगभग 60000 घण्टों की बचत हो रही है। इस योजना से न केवल महिलाओं के समय में बचत हो रही है बल्कि उन्हें जो चारा घास बीज दिये गये हैं उनसे जानवरों के दुग्ध में बढ़ोतरी भी देखने को मिल रही है। कहीं न कहीं इससे उनकी आजीविका में वृद्धि भी देखने को मिल रही है।

पर्वतीय महिलाएं जो सम्बन्घित कार्य को पूर्ण करने के लिए सही से खाना भी नहीं खा पाती थी जिनके पास अपने लिए समय भी नहीं था वह आज अपना और अपने परिवार के सदस्यों की सही से देखभाल करने में सक्षम हो रही हैं। आज वह इस समय का सदुपयोग कर रही हैं। स्वयं सहायता समूहों की बैठकों में जाकर, घर की साफ-सफाई स्वयं की देखभाल कर, रोजगार कार्य को करके आज वह भी आजीविका संवर्धन कर आत्मनिर्भर हो रही है। सरकार को चाहिए कि जो भी योजनाएं बनायी जाएं  उन्हें ज़मीनी  स्तर पर संचालित करने की व्यवस्था करे। जिसे गांव में लागू कर अधिक से अधिक लोगों को लाभान्वित किया जा सके। योजनाओं की जानकारी सभी तक समय पर पहुंचे इसकी उचित व्यवस्था करे। ताकि ग्रामीण समाज भी समय के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके जैसे आज पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाएं चल रही हैं। 





नरेन्द्र सिंह बिष्ट 
नैनीताल, उत्तराखण्ड 
(यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के अंतर्गत लिखा गया है)

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