पत्रकार-स्पीकर विवाद की अंतर्कथा – 3
--- वीरेंद्र यादव, स्वतंत्र पत्रकार ----
बिहार में एक शब्द प्रचलित हुआ था- सुपर एडिटर। अखबारों की खबरों के चयन में सरकार के बढ़ते हस्तक्षेप के बाद यह शब्द प्रचलित हुआ था। इसलिए पत्रकारिता अब प्रेस रिलीज की पत्रकारिता हो गयी है। रिपोर्टरों पर भी अधिकाधिक खबर देने का दबाव होता है। इसलिए खबरों की संख्या बढ़ती गयी और स्तर गिरता गया। सच यह है कि हमने पिछले एक साल से अखबार पढ़ना छोड़ दिया है। न्यूज चैनल तो देखते ही नहीं। हमारे अखबार नहीं पढ़ने या चैनल नहीं देखने से मीडिया के कारोबार पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन एक पत्रकार के रूप में दुख होता है कि खबर अपना अर्थ खोती जा रही है। इसलिए एक पाठक के रूप में अखबार या चैनल की जरूरत नहीं रह गयी है। विधान सभा सचिवालय हमसे यही चाहता है कि हम खबर उसके अनुकूल लिखें। विधान सभा की प्रेस रिलीज से आगे नहीं बढ़ें। यह विधान सभा की अपेक्षा हो सकती है, हमारी जरूरत नहीं। हमारी पहचान विधान सभा के गलियारे की मुंहताज नहीं। हम जहां खड़े हो जाएंगे, खबर वहीं खड़ी कर लेंगे। विधान सभा स्पीकर की हमारे खिलाफ कार्रवाई उनकी अहंकार तुष्टि का माध्यम हो सकती है, हमारी बाध्यता नहीं। हम अपनी खबरों का विषय और शैली खुद तय करेंगे। पसंद आये तो पढि़ये नहीं तो आगे बढ़ लीजिये। भैंस हमारी और दूध का दाम कोई और तय करे, यह स्वीकार नहीं। हम एक बार प्रेस सलाहकार समिति के गठन की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं। इसके गठन में तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। 31 मार्च को विधान सभा की 19 समितियों का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। इसके साथ ही प्रेस सलाहकार समिति को भंग किया जाये और नयी समिति का गठन किया जाये। नयी समिति में तीन बातों का ध्यान रखा जाये।1. विधान सभा सदस्यों के अनुपात में प्रेस सलाहकार समिति में सदस्यों को सामाजिक भागीदारी तय हो।
2. प्रेस सलाहकार समिति के गठन की पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनायी जाये और कुछ अखबारों की मठाधीशी समाप्त की जाये।
3. प्रेस दीर्घा में ‘नालबंदी प्रथा’ समाप्त की जाये यानी अखबारों के नेमप्लेट ठोकने की व्यवस्था को समाप्त किया जाये।
ये तीन बातें हमारी मांग या सलाह नहीं है। यह लोकतंत्र के मंदिर के ठेकेदारों की जरूरत है कि लोकतांत्रित सरोकारों को अपनी कुंठा से ऊपर रखें और पद की मर्यादा का सम्मान करें।
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