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बुधवार, 5 मई 2021

बंगाल विशेष : दीदी का बढ़ा कद

  • मुस्लिम एकता से भाजपा के राष्ट्रवाद को झटका

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पश्चिम बंगाल में पूरी ताकत झोकने के बावजूद भाजपा दहाई अंक नहीं पार कर सकी। जबकि ममता ने जीत की हैट्रिक लगाई है। मतलब साफ ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार बंगाल की मुख्यमंत्री बनने जा रही है। हालांकि असम में भाजपा की लगातार दुसरी जीत उसे सकुन पहुंचाने वाला जरुर है। लेकिन ममता बनर्जी ने बंगाल में जो खेला किया है, उसका सबसे ज्यादा झटका 2024 की तैयारी में जुटी भाजपा के हिंदू व राष्ट्रवाद के नारे को लगेगा। या यूं कहे बंगाल की शेरनी ने टूटी टांग से जो पटखनी दी है उसकी टीस बीजेपी को सालों तक सताती रहेगी। दीदी ने अकेले के दम पर चुनाव लड़ा। व्हील चेयर पर चुनाव लड़ा। ममता को दो एम का सहारा मिला। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी का दावे के अनुकूल प्रदर्शन नहीं कर पाना और ममता बनर्जी का तीसरी बार सरकार बनाना कांग्रेस खासकर सोनिया-राहुल गांधी के लिए सबसे घातक साबित हो सकता है। क्योंकि इस जीत ने दीदी का कद विपक्ष की राजनीति में बढ़ा दिया है 


फिरहाल, ममता को मुस्लिम परस्त साबित कर हिंदू वोटों को अपने पक्ष में करने का दांव बंगाल में बीजेपी के लिए उल्टा पड़ गया है। या यूं कहे बीजेपी के ध्रुवीकरण का दांव कामयाब नहीं हो सका है। इसका फायदा टीएमसी को मिला है। परिणाम यह है कि ममता एकबार फिर बंगाल की कमान संभालेगी। बता दें, बंगाल चुनाव में भाजपा ममता सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण, घुसपैठ को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगा रही थी। इनके जरिए भाजपा ध्रुवीकरण की कोशिश में थी। काफी हद तक बीजेपी इसमें सफल भी दिखी, लेकिन इसके मुकाबले ममता बंगाली गौरव और संस्कृति की बात बार-बार कर रही थीं। उनकी चुनावी रणनीति यह थी कि वे बंगाल के लोगों को समझा रही थीं कि अगर वे चुनाव हारीं तो बंगाल के बाहर के लोग राज्य को चलाएंगे। हिंदी भाषी बहुल और उत्तर बंगाल में यह भले ही कम चला हो, लेकिन दक्षिण बंगाल और ग्रामीण इलाकों में यह मुद्दा चला और इसके सहारे ममता ने बढ़त बनाई। हालांकि, ममता बनर्जी पर तुष्टीकरण के आरोप उस समय से ही लग रहे हैं जब साल 2011 में वो सत्ता में आईं और साल भर बाद ही उन्होंने इमामों के लिए ढाई हज़ार रुपये भत्ते का ऐलान कर दिया था। बयानों से इतर ममता बनर्जी मुसलमानों के लिए जो घोषणाएं की हैं, उन्हें आधारों पर बीजेपी उन पर तुष्टीकरण के आरोप लगाती लगाती रही हैं। इसके बावजूद मुस्लिम वोटर ममता के पक्ष में एकतरफा वोट नहीं करता रहा है, लेकिन इस बार मुस्लिम ममता के साथ खड़े नजर आएं। इसकी बड़ी वजह यह है कि बंगाल का हिंदू देश के दूसरे राज्यों से अलग है। यहां हिंदू ऐसा है जो मुस्लिमों की दुकान में जाकर बिरयानी खाता है। इससे समझ सकते हैं कि यहां का सोशल फैब्रिक कैसा है।  ममता बनर्जी सिर्फ मुस्लिमों के वोट पर सत्ता में नहीं आती रही है बल्कि हिंदू समुदाय के भी बड़े हिस्से ने टीएमसी को वोट करते है। साल 2016 के विधानसभा चुनाव पर नजर डालेंगे, तो पाएंगे कि मुस्लिमों ने ममता बनर्जी की पार्टी के पक्ष में वोट किया था। लेकिन, मुस्लिम बहुल मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तरी दिनाजपुर और दक्षिण दिनाजपुर जिले का वोटर कांग्रेस-लेफ्ट के साथ खड़ा रहा था। 2016 के चुनावों में टीएमसी ने भले ही बंगालकी 294 सीटों में से 211 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन इन चारों जिलों में उसका प्रदर्शन काफी खराब था जबकि कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन ने यहां क्लीन स्वीप किया था। टीएमसी ने 125 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों में से 80 पर जीत दर्ज की थी, लेकिन मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तरी दिनाजपुर और दक्षिण दिनाजपुर की 49 सीटों में 36 सीटें कांग्रेस-लेफ्ट को मिली थीं। हालांकि, इस बार बीजेपी के सियासी उभार के चलते मुस्लिम मतदाता उसे सत्ता में आने से रोकने के लिए ममता के पक्ष में एकजुट नजर आए। 


जानकारों की माने तो 75 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने टीएमसी के पक्ष में वोट किया है। मुस्लिम वोटर बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट, पीरजादा अब्बास सिद्दीकी और असदुद्दीन ओवैसी के पक्ष में नहीं आ सके। गौरतलब है कि बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं और वो इस बार भी निर्णायक साबित हुए हैं। मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर, बीरभूम, दक्षिण 24 परगना और कूचबिहार ऐसे जिले हैं, जहां मुस्लिमों की बड़ी आबादी है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, मुर्शिदाबाद में तो 66.2 फीसदी आबादी मुसलमानोकी है, जबकि मालदा में यह 51.3 फीसदी है. उत्तर दिनाजपुर में भी 50 फीसदी मुस्लिम आबादी है। बीरभूम में 37 फीसदी, दक्षिण 24 परगना में 35.6 फीसदी और कूचबिहार में 25.54 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है।  बंगाल की करीब 125 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। यही वजह है कि जिस दल की तरफ मुस्लिम वोटरों का रुझान होता है, बंगाल में सरकार उसी पार्टी की बनती है। अब तक का रिकॉर्ड ऐसे रहा है मुस्लिमों ने किसी एक पार्टी के पक्ष में ही मतदान नहीं किया है। लेकिन पहली बार वह टीएमसी के पक्ष में मजबूती से खड़ा रहा। इससे पहले तक मुस्लिम वोटर टीएमसी के साथ-साथ कांग्रेस और लेफ्ट के बीच बंटते रहे हैं। ममता बनर्जी को इस बात का एहसास था कि अगर मुस्लिम वोट बंट गया, तो उनकी परेशानी चुनाव के बाद बढ़ जाएगी। यही वजह है कि वह अपनी हर जनसभा में यह अपील करती थीं कि अपना वोट बंटने मत देना. इसके लिए उन्होंने मुसलमानों को एनआरएनआरसी और सीएए का डर भी दिखाया। कहा कि अगर भाजपा की सरकार बंगाल में बन गयी, तो आप लोगों को ही सबसे ज्यादा परेशानी होगी। ममता बनर्जी ने कहा था, ’मैं आपसे एकजुट होने का आग्रह करती हूं... इस बार अपने वोट को विभाजित न होने दें। अगर हमें इन दोनों जिलों (मालदा, मुर्शिदाबाद) और कुछ अन्य (जैसे दिनाजपुर) में अच्छी संख्या में सीटें मिलेंगी, तो हम सरकार बना पाएंगे। आपको यह समझना चाहिए कि मैं आपसे एक कारण के लिए अपील कर रही हूं... क्या आप चाहते हैं कि हमारे राज्य में बीजेपी आ जाए और एक और गुजरात बने? ममता की इस बार जीत में मुस्लिम वोटर अहम साबित हुए हैं।  


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भाजपा के हार की दुसरी वजह बड़ी संख्या में टीएमसी छोड़कर आएं विधायकों को टिकट देना भी रहा है। इसका परिणाम यह रहा कि सालों से पोस्टर चिपकाने से लेकर पार्टी के लिए जान तक देने पर उतारु कार्यकर्ताओं में काफी नाराजगी थी। या यू कीें पार्टी चाल, चरित्र और चेहरे की बात तो करती है, पर उसने अपनी सूची में इस बात का ख्याल नहीं रखा। उसने लगातार कार्यकर्ताओं की अवहेलना करते हुए दलबदलुओं को सत्ता का सुख भोगने के लिए आगे बढ़ा दिया। ज्यादा सीटों पर दलबदलुओं को टिकट मिलने से सालों से पार्टी के साथ जुड़े नेता भी खफा थे। बीजेपी ने पाला बदलकर आने वाले कई नेताओं को विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार बनाया है। इसे लेकर ज्यादा नाराजगी थी, जो पार्टी पर भारी पड़ी।  तमिलनाडु में द्रमुक नीत गठबंधन व केरल में माकपा की अगुवाई वाला वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) ने बाजी मारी है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि बीजेपी की विशालकाय मशीनरी के असर को बेअसर कर तीसरी बार सत्ता पर काबिज होकर ममता बनर्जी ने विपक्षी नेता बतौर अपना कद कई गुना बढ़ा लिया है। यही कद अब कांग्रेस खासकर राहुल गांधी के भविष्य को बौना साबित कर सकता है। यहां जिक्र करना जरुरी है कि बंगाल ने 1950 से लगातार 17 सालों तक कांग्रेस को सत्ता सौंपी, लेकिन जब राज्य को सियासी उठापटक का सामना करना पड़ा तो 1977 में उसने वामदलों को चुन लिया। इसके बाद बंगाल ने लेफ्ट को एक या दो नहीं, पूरे सात विधानसभा चुनाव जिताए। लेफ्ट ने भाकपा की अगुआई में भारी बहुमत के साथ पूरे 34 साल राज किया। लेफ्ट का दौर खत्म हुआ तो ममता की तृणमूल को सत्ता मिली और वे पिछले दस साल से आरामदायक बहुमत के साथ बंगाल पर राज कर रही हैं। इस बार फिर वे भारी बहुमत के साथ लौटी हैं। मतलब साफ है खुद को बंगाली प्राइड से जोड़ने में दीदी सफल रहीं। ममता अब मोदी विरोधी विपक्ष का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व कर सकती हैं। मोदी-शाह की जोड़ी का ममता शुरू से ही विरोध करती रही हैं और विपक्ष को उन्होंने कई बार एक मंच पर लाने की कोशिश भी की। हालांकि अभी तक यह कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी है, लेकिन बंगाल के इस बेहद तनावपूर्ण चुनाव में जीत के बाद ममता दावा कर सकती हैं कि मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला वही कर सकती हैं। भाजपा को क्षेत्रीय पार्टियां ही रोक सकती हैं, कांग्रेस की स्थिति और कमजोर होगी। 


बंगाल में ममता की जीत इस थ्योरी पर फिर मुहर लगा रही है कि भाजपा उन राज्यों में आसानी से जीत हासिल कर लेती है, जहां उसका मुकाबला कांग्रेस से होता है। हालांकि यूपी इसका अपवाद रहा है। बंगाल के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने खुद पूरी ताकत लगा दी, लेकिन ममता अपना किला बचाने में सफल हो गईं। इसके बाद यह मांग भी जोर पकड़ सकती है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरोध का नेतृत्व करने के लिए पूरे विपक्ष को साथ आना चाहिए, लेकिन उसकी लीडरशिप स्थानीय स्तर पर हो। इसका मतलब यह होगा कि कांग्रेस कई और राज्यों में सेकेंड पार्टनर बन जाएगी। ममता अब बंगाल में ज्योति बसु जैसी कल्ट फेस बन चुकी हैं। बंगाल चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण है कि यहां एक तरफ भाजपा की विशाल, साधन-संपन्न चुनाव मशीनरी थी। जबकि दूसरी तरफ अकेली ममता जिनके पास स्ट्रीट फाइटर वाली छवि थी। भाजपा के पास पूरे देश के नेताओं का जमावड़ा था, लेकिन तृणमूल सिर्फ ममता की लोकप्रियता के सहारे थी। दस साल सत्ता चलाने के बाद ममता की जीत यह भी इशारा करती है कि बंगाल में उनके स्तर की लोकप्रियता किसी के पास नहीं हैं और बंगाल के भद्र लोक में ममता की छवि वैसी ही हो चुकी है जैसी एक जमाने में ज्योति बसु की थी। मोदी बंगाल की जनता में भी लोकप्रिय हैं, लेकिन यह लोकप्रियता लोकसभा में काम करती है। राज्य की राजनीति की बात आने पर ममता का कोई मुकाबला नहीं है। कोरोना के बीच चुनावी रैलियों और फिर बढ़ते केसों को लेकर आलोचना झेल रही मोदी सरकार पर विपक्ष और हमलावर हो जाएगा। वैक्सीनेशन को लेकर विपक्ष शासित राज्यों और केंद्र के बीच रस्साकशी पहले से ही चल रही है। 18 साल से ज्यादा उम्र के लोगों का वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद यह टकराव और बढ़ेगा। वैक्सीन का प्रोडक्शन कम है और लगवाने वालों की संख्या ज्यादा। ऐसे में राज्य की तरफ से हर अव्यवस्था का ठीकरा केंद्र पर फोड़ा जाएगा और भाजपा सरकार पर दबाव बढ़ेगा। जानकारों के मुताबिक, भाजपा ने अभी से 2024 के आम चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है। बंगाल उसकी रणनीति के केंद्र में था, क्योंकि पार्टी मानकर चल रही है कि यूपी और बिहार में उसने पिछले लोकसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल की थी। अगले चुनाव में उसे वहां एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में बंगाल उसकी रणनीति के केंद्र में था कि वहां विधानसभा चुनाव जीतकर वह अगले लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 में से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश करेगी, लेकिन बंगाल की हार के बाद अब यह मुश्किल होगा, क्योंकि टीएमसी इस जीत के बाद बंगाल में अब और आक्रामक तरीके से अपना आधार बढ़ाएगी। बंगाल की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है। किसान आंदोलन से जुड़े राकेश टिकैत जैसे नेता बंगाल में प्रचार करने भी पहुंचे थे। भाजपा पीएम किसान निधि को लेकर ममता सरकार पर आरोप लगा रही थी कि उसने केंद्र का पैसा किसानों को नहीं दिया। लेकिन इस बात ने बंगाल के चुनाव में असर किया, ऐसा नहीं दिखता। ऐसे में अब किसान आंदोलन से जुड़े नेता आंदोलन को तेज कर सकते हैं, जिससे भाजपा की मुश्किल बढ़ेगी।


विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनीं ममता बनर्जी

कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर जब सरकार बनाई थी, तो उस वक्त विपक्ष के सारे प्रमुख नेताओं ने एक मंच पर जुटकर बीजेपी के सामने चुनौती पेश करने की कोशिश की थी. यह अळग बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान सारे विपक्षी नेता बिखर गए. इसके बाद से लगातार विपक्ष में नेतृत्व और सर्वमान्य चेहरे की कमी खलती रही है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की हैट्रिक होने पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वह विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बन जाएंगी.


विपक्ष में कोई नहीं ममता के टक्कर का

विपक्ष के नेतृत्व में चेहरे की तलाश करें तो पहला नाम राहुल गांधी का आता है. राहुल गांधी के नाम कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है. लगातार दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार हुई है. इसके अलावा राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने किसी विधानसभा चुनाव में भी प्रचंड जीत नहीं दर्ज की है. राहुल गांधी की उपलब्धि के नाम पर केवल छत्तीसगढ़ चुनाव में अच्छी जीत दर्ज है. इसके अलावा राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी जैसे तैसे सरकार बनाने में सफल रही थी. इसमें से मध्य प्रदेश और कर्नाटक में कुछ ही महीने बाद बीजेपी सत्ता में आ गई है. इसके अलावा राजस्थान में भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच खींचतान के हालात बने हुए हैं. अब केरल में भी कांग्रेस का प्रदर्शन खासा निराशाजनक रहा है. इससे जनता में साफ संकेत गया है कि राहुल गांधी सत्ता में रहने के बावजूद अपने विधायकों को एकजुट रख पाने में सक्षम नहीं हैं.


क्षेत्रीय क्षत्रपों में ममता का कद बढ़ा

राहुल के अलावा अगर बाकी चेहरों पर गौर करें तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव, बीएसपी प्रमुख मायावती, जेडीएस के अगुवा एचडी कुमारस्वामी, वामदल के सीताराम येचुरी समेत तमाम नेताओं में से कोई भी क्षत्रप नहीं है जो बीजेपी के सामने अपनी ताकत दिखा पाया हो. केवल ममता बनर्जी ही हैं जो सीधे मुकाबले में बीजेपी को परास्त करती दिख रही हैं. हां. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद जेकरीवाल ने भी दिल्ली विधानसभा मजबूत बीजेपी के सापेक्ष जीता था, लेकिन उनमें सर्वमान्य नेता बनने के गुण कतई नहीं हैं. 


पीएम मोदी की ललकार का जबाब हैं ममता

पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव प्रचार हो या फिर कोई राष्ट्रीय मुद्दे. तमाम मसलों पर ममता बनर्जी विपक्ष की एक मात्र नेता हैं जो सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देती रही हैं. पीएम मोदी जिस तरह से भाषण के जरिए विरोधियों पर तीखे वार करते हैं, ठीक उसी अंदाज में ममता बनर्जी भी बीजेपी नेताओं पर प्रहार करती देखी जाती हैं. धारा 370 से लेकर एनआरसी, सीबीआई की राज्यों में कार्रवाई, मां दुर्गा मूर्ति विसर्जन, जय श्री राम का नारा आदि तमाम मसलों पर ममता मजबूती के साथ बीजेपी को निशाने पर लेती रही हैं.


हिंदू-मुस्लिम राजनिति पर भी टक्कर में

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बीजेपी की ओर से टीएमसी पर आरोप लगाए गए कि यह पार्टी मुस्लिम तुष्टीकरण करती है. इसके जवाब में ममता ने चुनावी मंच से खुद को शांडिल्य ब्राह्मण बताया और मां दुर्गा का पाठ करके दिखाया. इतना ही नहीं ममता ने मुस्लिम वोटरों को भी खुलकर सपोर्ट किया. यानी ममता ने बीजेपी को संदेश देने में सफल होती दिख रही हैं कि उनकी पहुंच ना केवल मुस्लिमों में बल्कि हिंदुओं में भी बराबर है.


विपक्ष का चेहरा बनने से चूके थे नीतीश

साल 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने हाथ मिलाकर जबरदस्त जीत दर्ज की थी. उस दौरान चर्चा थी कि नीतीश कुमार केंद्र में विपक्ष का बन सकते हैं, लेकिन करीब एक साल बाद ही वह दोबारा से एनडीए में चले गए, जिसके चलते विपक्ष लगातार सर्वमान्य चेहरे की तलाश में जुटा हुआ है. ऐसे में जो काम नीतीश नहीं कर सके, वह काम ममता बनर्जी कहीं आसानी से कर सकती हैं. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल के चुनाव में लगभग सभी क्षत्रप टीएमसी के समर्थन में प्रचार करने पहुंचे. आज भी विभिन्न क्षत्रपों ने ममता बनर्जी को बधाई देने में देर नहीं लगाई.


राहुल को लेकर सोनिया के प्लान ध्वस्त

ममता बनर्जी की यही सफलता कांग्रेस के लिए खासी मुसीबत बन कर सामने आ रही है. गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी लगातार कोशिश में हैं कि वह किसी भी तरह राहुल गांधी को विपक्ष का चेहरा बना लें, लेकिन ममता की हैट्रिक के बाद ऐसा होने की कम ही संभावना है. पश्चिम बंगाल के साथ असम, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु में भी विधानसभा चुनाव हुए हैं. इन राज्यों के आए रुझानों में असम, पुडुचेरी और केरल में भी कांग्रेस हारती दिख रही है. अगर तमिलनाडु की बात करें तो वहीं भी कांग्रेस को डीएमके की ताकत से जीत मिलती दिख रही है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि 2014 से लगभग हर चुनाव में लगातार हार झेल रही कांग्रेस और सोनिया गांधी अपने बेटे राहुल गांधी को कैसे विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा स्थापित करती हैं.




-सुरेश गांधी-

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