- · पत्रकार-फिल्मकार विनोद कापड़ी की किताब '1232KM कोरोना काल में एक असंभव सफ़र’ का हुआ लोकार्पण
- · इस मौके पर लेखक और किताब के दो श्रमिक नायकों से वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा और सामजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना ने की गुफ़्तगू
नई दिल्ली : '1232 किमी : कोरोना काल में एक असंभव सफर' एक मुश्किल वक्त का वृत्तान्त तो है ही, आने वाली पीढ़ियों को सबक देने वाला एक जरूरी दस्तावेज भी है। महामारी के प्रकोप के बीच देश जब विभाजन के दौर से भी बड़ा पलायन देख रहा था, तब साइकिल से 1232 किलोमीटर का सफर तय कर अपने गांव पहुँचने वाले सात श्रमिकों की यह कहानी जितनी मार्मिक है, उतनी ही प्रेरक भी है। चर्चित पत्रकार-फिल्मकार विनोद कापड़ी ने यह कहानी लिखकर और राजकमल प्रकाशन के उपक्रम सार्थक ने इस किताब को प्रकाशित कर ऐतिहासिक महत्व का काम किया है। ये बातें निकलकर सामने आईं '1232 किमी : कोरोना काल में एक असंभव सफर' के लोकार्पण और उस पर केंद्रित बातचीत में। इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर हॉल में आयोजित इस कार्यक्रम में किताब के लेखक विनोद कापड़ी और इसके दो नायकों रितेश कुमार पंडित व रामबाबू पंडित से वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा और जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना ने बातचीत की।
इस मौके पर एक सवाल के जवाब में विनोद कापड़ी ने बताया कि उन्होंने कोरोना के कारण बीते साल लगे लॉकडाउन के दौरान मजदूरों के अभूतपूर्व पलायन और मुसीबतों को दर्ज करना अपना नैतिक और सामाजिक कर्तव्य समझा। उन्होंने कहा, मुझे बड़ा संकोच हो रहा था कि लोग इसको आपदा में अपना स्वार्थ साधना समझ सकते हैं,लेकिन आखिरकार मुझे मजदूरों के साथ जाना और उनकी आपबीती को दर्ज करना सबसे जरूरी लगा । विनोद ने कहा, लॉकडाउन के बाद लाखों मजदूरों ने जो पलायन किया वह आजादी के बाद का सबसे बड़ा पलायन था। ऐसे सात मजदूरों के एक समूह के साथ मैं और मेरे एक दोस्त भी पूरे सफ़र में साथ-साथ चले, मुझे हमेशा यह डर सता रहा था कि अगर इनमें किसी एक को भी कुछ हो गया तो मैं अपने आप को कभी माफ़ नही कर पाऊंगा । इस यात्रा के अनुभवों को किताब की शक्ल देने के अपने विचार के बारे में उन्होंने कहा, किताब इस पूरी कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हम मजदूरों के साथ डॉक्यूमेंट्री बनाने निकले थे, लेकिन किताब लिखना जरूरी लगा क्योंकि इसमें वह हर चीज आ गई जो हम डॉक्यूमेंट्री में शामिल नही कर पाए थे। लेखक ने बताया कि इस किताब के प्रति लोगों ने जबरदस्त उत्साह दिखाया जिससे वे अभिभूत हैं, जल्द ही यह किताब तमिल, मराठी, तेलुगु, और कन्नड में भी प्रकाशित होने वाली है. इंग्लिश में यह पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। इससे पहले कार्यक्रम में आये लोगों का स्वागत करते हुए राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, '1232 किमी : कोरोना काल में एक असंभव सफर' हमारे समय की एक बड़ी त्रासदी का मार्मिक वृत्तान्त है। सात श्रमिकों की आपबीती के बहाने कोरोना काल के दौरान हुए श्रमिकों के पलायन की जो कहानी इसमें दर्ज है, वह आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे अनपेक्षित और दुखद तथ्य है। यह उन श्रमिकों की मुश्किलों की, साथ ही उनके जज्बे की कहानी है। यह जितनी उनकी कहानी है उतनी ही हमारे देश-समाज और दौर की है।
अशोक ने कहा, यह किताब बतलाती है कि आपदा के समय एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में हम किस हद तक विफल रहे । यह उन असमानताओं और विसंगतियों को उजागर करती है जिनसे अनजान बने रहकर, हम दुनिया में अव्वल होने का दम भरते आये थे। इसीलिए हमने इसे प्रकाशित करना जरूरी समझा,यह एक जरूरी दस्तावेज है, जो हमें अपने समय को समझने का एक नजरिया देगी। साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए, इतिहास के एक जरूरी यादगार के रूप में, सबक का जरिया भी बनेगी । बातचीत के दौरान इस किताब के नायकों रितेश और रामबाबू ने भी अपने अनुभव साझा किए। एक सवाल पर रामबाबू ने कहा, कोरोना काल में लॉकडाउन हम गरीबों लिए घातक साबित हुआ, गरीब भी भारत के नागरिक हैं। इसलिए सरकार को कोई फैसला लेते वक्त गरीबों को भी ध्यान में रखना चाहिए। आप अपने भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं, इस सवाल पर रितेश ने कहा, हम मजदूर हैं, रोज कमाते हैं तब खाते हैं, हमारे पास कुछ बचता नहीं है,फिर भी अपनी पूरी क्षमता से कोशिश करेंगें कि मेरे बच्चे ऐसा कुछ अच्छा करने लायक बनें कि मैं उनके नाम से जाना जाऊँ। रितेश और रामबाबू ने लॉकडाउन के दौरान भुगते कष्ट का बयान भी किया और बताया कि काम व खाने पीने की दिक्कत होने के बाद ही हमने सोचा कि परदेस में भूखों मरने से अच्छा है अपने गांव जाकर मरें। यही सोचकर हम सात साथी गाजियाबाद से सहरसा तक 1232 किलोमीटर के सफर पर साइकिल से ही निकल पड़े। कार्यक्रम में राजकमल प्रकाशन की ओर से शॉल और पुस्तकें प्रदान कर रितेश और रामबाबू को सम्मानित किया गया। आखिर में राजकमल प्रकाशन समूह के सीईओ आमोद महेश्वरी ने कार्यक्रम में शामिल सभी लोगों का धन्यवाद ज्ञापन किया।
'1232km : कोरोना काल में एक असम्भव सफ़र' के बारे में
कोरोना के कारण 2020 में घोषित लॉकडाउन ने करोड़ों भारतीयों को अकल्पनीय त्रासदी का सामना करने के लिए विवश कर दिया। नगरों-महानगरों में कल-कारखानों पर ताले लटक गए; काम-धन्धे रुक गए और दर-दुकानें बन्द हो गईं। इससे मजदूर एक झटके में बेरोजगार, बेसहारा हो गए। मजबूरन उन्हें अपने गाँवों का रुख करना पड़ा। उनका यह पलायन भारतीय जनजीवन का ऐसा भीषण दृश्य था, जैसा देश-विभाजन के समय भी शायद नहीं देखा गया था। लॉकडाउन के कारण आवागमन के रेल और बस जैसे साधन बन्द थे, इसलिए अधिकतर मजदूरों को अपने गाँव जाने के लिए डेढ़-दो हजार किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ी। कुछेक ही ऐसे थे जो इस सफर के लिए साइकिल जुटा पाए थे। ‘1232km : कोरोना काल में एक असम्भव सफ़र’ ऐसे ही सात प्रवासी मजदूरों की गाँव वापसी का आँखों देखा वृत्तान्त है। उन्होंने दिल्ली से सटे गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) से अपना सफ़र शुरू किया, जहाँ से सहरसा (बिहार) स्थित उनका गाँव 1232 किलोमीटर दूर था। उनके पास साइकिलें थीं लेकिन उनका सफ़र कतई आसान नहीं था। पुलिस की पिटाई और अपमान ही नहीं, भय, थकान और भूख ने भी उनका कदम-कदम पर इम्तिहान लिया। फिर भी वे अपने मकसद में कामयाब रहे। यह किताब सात साधारण लोगों के असाधारण जज़्बे की कहानी है, जो हमें उन कठिनाइयों, उपेक्षाओं और लाचारी से भी रू-ब-रू करती है, जिनका सामना भारत के करोड़ों-करोड़ लोगों को रोज करना पड़ता है।
लेखक विनोद कापड़ी के बारे में
विनोद कापड़ी फ़िल्म जगत के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। अपनी फ़िल्म ‘कांट टेक दिस शिट एनीमोर’ (2014) के लिए वे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं। उनकी एक और फ़िल्म ‘पीहू’ (2017) ने भी अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में दो पुरस्कार हासिल किए हैं। फ़िल्म जगत में सक्रिय होने से पहले कापड़ी लम्बे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे। वे ‘अमर उजाला’, ‘ज़ी न्यूज़’, ‘स्टार न्यूज़’, ‘इंडिया टीवी’ और ‘टीवी-9’ जैसे महत्त्वपूर्ण मीडिया संस्थानों के साथ काम कर चुके हैं। ‘1232km : कोरोना काल में एक असम्भव सफ़र’ उनकी पहली किताब है।
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