“कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है”
इस शेर और आज की युवा दलित कविता की भावभूमि एक जैसी है।आमंत्रित युवा कवियों में- ममता गौतम, जावेद आलम खान, अशोक कुमार की कविताओं पर प्रतिक्रिया देते हुए आशुतोष कुमार ने कहा - दलित कविता की नई पीढ़ी ने कविता में सचेतन आक्रोश की वापसी संभव की है।यह आक्रोश केवल भावनात्मक नहीं है। इसके पीछे व्यवस्था की सुचिंतित और गहरी आलोचना है।उसकी बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने दिल को ही नहीं, दिमाग को भी झकझोरने का शिल्प ढूंढ लिया है।इसके बाद डॉ. राजकुमारी राजसी, अर्चना, सुमन ने अपनी कविताओं का पाठ किया । आमंत्रित कवियों की कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बजरंग बिहारी ने कहा कि घुटती हुई आवाजों के दौर में मुखर, दो-टूक और आक्रामक कविताओं की ज़रूरत है। आज पढ़ी गई कविताएं इस अपेक्षा पर खरी उतरती हैं। ये 'कविताई' की, 'कला' की परवाह न करके लिखी गई रचनाएँ हैं। ममता गौतम दलित-शोषित एकता पर बल देने वाली रचनाकार हैं। स्वामी अछूतानंद हरिहर की याद दिलाती उनकी वैचारिकी डॉ. आंबेडकर से संवाद करती है। जावेद आलम ख़ान स्याह वक़्त में रोशन पंक्तियाँ लिखने वाले कवि हैं। उनकी कविताओं की रोशनी में हम आततायियों की, 'अथनिक क्लींजिंग' में जुटी सत्ता की बेहतर पहचान कर पाते हैं। नए और बेतरह चुभते हुए बिंब जावेद की कविता को विशिष्ट बनाते हैं - "वे हमारी चीख पर शिकारी की तरह मुस्कराते थे"। कलावतों, बुद्धिजीवियों के ढुलमुल रवैये की पहचान कराते ऊँची आवाज़ के निर्भ्रांत कवि ‘अशोक कुमार’ पूछते हैं कि क्या पंचनामा न होने से हत्याएं आत्महत्याओं में बदल जाएंगी? स्त्रीद्वेषी समय में स्त्री अस्मिता को स्थापित करने की आकांक्षा रचती डॉ. राजकुमारी राजसी मिथकों के खेल से सावधान करती हैं। उनका आह्वान है कि स्त्रियाँ निहत्थी न रहें। वे स्वयं ही कटार, बारूद, नेजा में ढल जाएं। अर्चना स्त्री को अनपढ़ बनाए रखने की मर्दवादी साजिश को अपनी कविता का विषय बनाती हैं जबकि ‘सुमन’ लोकतंत्र की बहाली की चिंता करती देशवासियों को समय रहते एकजुट होने, सन्नद्ध रहने की सलाह देती हैं। ओजस्वी कवि टेकचंद आंबेडकर के संदर्भ से जाति-वर्ण के वायरस को, उस क्रॉनिक रोग का निदान (डायग्नोसिस) करते हैं जिसने इस समाज को खोखला कर रखा है। महेन्द्र बेनीवाल की कविता का पाठ करते हुए वे पीड़ितों-दलितों को इस सवाल के सामने ले आते हैं- ‘और कब तक मारे जाओगे’।
दोनों सत्रों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए ख़ालिद अशरफ़ कहते है कि नाहरपुर के आंबेडकरवादी साथियों, विशेष रूप से डॉ. टेकचंद, हीरालाल राजस्थानी और बजरंग बिहारी तिवारी को इतना पुरजोश आयोजन करने के लिए मुबारकबाद। इस आयोजन में उर्दू समाज के लोग भी शरीक होते तो और अच्छा लगता। कई सालों पहले मैंने आंबेडकर की जीवनी का उर्दू में अनुवाद किया था। और आज डॉ. आंबेडकर का सपना भारतीय समाज को भारतीय संविधान के अनुरूप चलाने के अलावा कुछ नहीं हो सकता।अगर वे जीवित होते तो देश की वाम, सेक्युलर तथा लोकतांत्रिक पार्टियों के साथ मिलकर अपने बनाये हुए संविधान को महफ़ूज़ रखने की लड़ाई लड़ रहे होते क्योंकि आज के अंधेरे समय में भारत के धार्मिक सद्भाव, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं व आदिवासियों के आर्थिक व सांस्कृतिक अधिकारों को बचाये रखना ही सबसे बड़ी चुनौती है। दलेस अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी ने टिप्पणी करते हुए कहा - जाति का विनाश करने के लिए सभी जातियों को एक साथ आना होगा। अपनी जाति को मज़बूत करके जाति का विनाश संभव नहीं है। हमें वर्तमान में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र इस अलोकतांत्रिक सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा। कार्यक्रम के अंत में सतीश कुमार पावरिया ने भीम जन कल्याण समिति और हम देखेंगे : अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान की ओर से धन्यवाद ज्ञापित किया।इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्व नागरिक शामिल हुए।
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