इमोशनल डंपिंग में दरअसल जो श्रोता है वह प्रभावित होता है। मनोविज्ञानी डॉ. रैडल टर्नर का मानना है कि इमोशनल डंपिंग आज समाज को नकारात्मक दृष्टि से प्रभावित कर रही है। आज संप्रेषण या संवाद के विभिन्न माध्यमों से हम अपनी भड़ास निकाल लेते हैं और सामने वाले की मनोस्थिति को समझने का प्रयास ही नहीं करते। अगला व्यक्ति इस समय किन परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसके पास आपकी भड़ास सुनने का समय भी है या नहीं, या आपकी भड़ास का निदान कर सकता है या नहीं आपकी समस्या से जूझने की क्षमता भी है या नहीं। यह अपने आपमें एक समस्या हो जाती है। इमोशनल डंपिंग देखा जाए तो पूरी तरह से नकारात्मक और एकतरफा तरीका है और यह आज इस कदर हाबी हो गया है कि आसानी से आज व्यक्ति इससे दो चार हो रहे हैं। दरअसल सामने वाले व्यक्ति को हम आउटलेट समझ कर उसके साथ व्यवहार करते हैं। कहीं वह अपने आपको अपराधी जैसा समझने लगता है। एक तरह से सामने वाला व्यक्ति आब्जेक्ट के रुप में मानने लगते हैं। उसकी परिस्थितियों और वह आपकी बात से साझा होना भी चाहता है या नहीं उससे इमोशनल डंपिंग करने वाले को कोई लेना देना नहीं रहता। यह नए जमाने की नई तरह की समस्या बनती जा रही है। सोशियल मीडिया पर जब इस तरह की चीजें साझा की जाती है तो सामने वाले के साथ आपका भावनात्मक संबंध भी नहीं होता, ऐसे में सामने वाला थोड़ा संवेदनशील है तो एक तरह के तनाव से गुलरने लगता है। सोचता है ऐसा कैसे हो गया। क्या कारण रहे। या इसका समाधान तो आसानी से हो सकता है या अन्य किसी तरह से सोच सकता है। पर इस तरह का इमोशनल डंपिंग सामने वाले व्यक्ति पर नकारात्मकता के भाव पैदा करता है और वह कभी कभार तनाव के दौर से गुजरने लगता है। इसीलिए कहा जाता है कि भाई दिल पर मत लो। अब जब दिल पर मत लो की भावना होगी तो फिर आपकी भड़ास के मायने क्या रहेंगे।
इमोशनल डंपिंग का सीधा सीधा मतलब यह है कि अपनी बात डंप करते समय या यों कहें कि साझा करते समय सामने वाले की मनोदशा, सहमति, असहमति, समय, विषय या अन्य से डंप करने वाले को कोई लेना देना नहीं रहता और आज यही हो रहा है। ऐसे में इमोशनल डंपिंग के शिकार लोगों के प्रति मनोविज्ञानी गंभीर चिंतन मनन में लगे हैं। वहीं इग्नोर करने, दूसरी बातों में ध्यान लगाने, अवसर मिलने पर सामने वाले को असहमति से अवगत कराने और उसे अनावश्यक संवाद के लिए इशारों में मना करने की हिम्मत भी जुटानी होगी क्योंकि दूसरे को मुसिबत में सहायता कोई बात साझा करने में और इक तरफा भड़ास निकालने में अंतर होता है। स्वयं तनाव के बोझ से मुक्त होने के लिए दूसरे को तनाव में ड़ालना किसी भी हालात में उचित नहीं माना जा सकता। नहीं तो जिस तेजी से आज इमोशनल डंपिंग का दौर चला है वह आने वाले समय में और भी अधिक गंभीर और समाज के लिए नकारात्मकता फैलाने वाला हो जाएगा। ऐसे में सोशियल मीडिया के उपयोग के समय उसमें रम जाने की मानसिकता को छोड़ना होगा। रील्स या शार्टस में प्रस्तुत सामग्री के प्रति अधिक गंभीर होने की आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि उसके समय व विश्वसनीयता प्रश्नों के घेरे में हमेशा बनी रहती है। एक तरह से यह तो भावनात्मक ब्लेकमेलिंग का माध्यम बनता जा रहा है। दूसरा यह कि जो सामग्री आपको विभिन्न प्लेटफार्म से मिल रही है उसे गंभीरता से लेने की इसलिए आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि उस सामग्री पर प्रतिक्रिया के चक्कर या प्रतिक्रियाओं के चक्रव्यूह में फंसने से आपमी मानसिक शांति भंग होना स्वाभाविक है। इसलिए दिमाग पर अधिक बोझ ड़ालने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
स्तंभकार

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