एक सूचना के अनुसार कश्मीर में चिनार के पेड़ों की संख्या घट रही है।या तो इन्हें अनधिकृत से काटा जा रहा है या फिर इनका रखरखाव ठीक तरह से नहीं हो रहा है.इस पेड़ का संरक्षण आज की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। बताया जाता है कि 1947 में कश्मीर में लगभग 45,000 चिनार के वृक्ष थे, लेकिन आज यह संख्या तेजी से घट रही है। शहरीकरण, अवैध कटाई और पर्यावरणीय बदलावों के कारण चिनार के वृक्षों की संख्या में भारी कमी आई है।चिनार के संरक्षण के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। १५ मार्च को ‘चिनार दिवस’ मनाने की परंपरा शुरू की गई है, ताकि इस वृक्ष के महत्व को समझाया जा सके। चिनार के नए पौधे लगाने के लिए कई योजनाएं भी बनाई गई हैं।कश्मीर के जीवन, कला और साहित्य में चिनार की गहरी छाप है। कश्मीरी शॉल, कालीन और पेपर माशी की वस्तुओं पर चिनार की पत्तियों की डिज़ाइन बनाई जाती है। कई कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में चिनार की सुंदरता का उल्लेख किया है। पूर्व में कहा गया है कि चिनार कश्मीर की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर का प्रतीक है। यह केवल एक वृक्ष नहीं, बल्कि कश्मीर की पहचान और यहाँ के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। इसका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है। चिनार न केवल आज की पीढ़ी के लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अनमोल धरोहर है।
'चिनार' फारसी शब्द है । स्पष्ट है कि यह शब्द कश्मीर में मुस्लिम शासन-काल में प्रचलित हुआ होगा। इस सन्दर्भ में कश्मीर में एक जनश्रुति भी प्रचलित है। कहा जाता है कि कोई बादशाह किसी मैदानी इलाके से कश्मीर घोड़े पर सवार होकर आ रहा था। शरद काल था। कश्मीर में चिनारों के पत्ते लाल-सुर्ख हो गये थे। इस बादशाह ने जब दूर से लाल हुए चिनारों की एक कतार को देखा तो अचानक अपने मुख्य सेवक से चिनार की पंक्ति की ओर इंगित करते हुए पूछ बैठा 'ईं चिनार ?' अर्थात यह कौन-सी आग है ? कहा जाता है कि तभी से इस वृक्ष विशेष का नाम 'चिनार' प्रचलित हुआ। चिनार का तना काफी मोटा होता है। कहा जाता है कि छह-सात साल के अन्दर चिनार की ऊँचाई सत्तर फीट तक पहुँच जाती है। कश्मीर के चिनारों के तने का घेरा सामान्यतया तैंतीस फीट और ऊँचाई सौ फुट तक पाई गई है ! वैसे कश्मीर में हर सौ गज पर चिनार के पेड़ हैं, पर घाटी में ये प्रायः झीलों, नदियों और सड़कों के किनारों पर पाये जाते हैं। चिनारों के प्रमुख एवं प्रसिद्ध बाग नसीम, विजयेश्वर (आज का बिजबिहाड़ा), नारायण बाग़ ( शादीपुर से सटा) आदि हैं। चिनार कश्मीर घाटी के उद्यानों, मन्दिरों, मस्जिदों, स्कूलों तथा कॉलेजों के परिसरों में भी पाये जाते हैं। विश्व-प्रसिद्ध डल-झील के दो लघु द्वीप 'स्वनॅलॉक' (स्वर्ण लंका) तथा 'रोपुलॉक' (रजत लंका) अपने शानदार चिनारों के कारण ही पर्यटकों एवं स्थानीय लोगों के आकर्षण का केन्द्र हैं।
कहते हैं कि डल झील के किनारे पर सन् 1635 ई० में अकबर बादशाह ने एक चिनार-उद्यान लगवाया था। इस उद्यान में बारह सौ चिनार लगवाये गये थे। अब इस बाग का नाम 'नसीम बाग' है। विजयेश्वर का चिनारोद्यान दाराशिकोह का लगवाया बताया जाता है। इस उद्यान में सबसे अधिक आयु के चिनार के तने का घेरा बावन फुट बताया जाता है। पर यह चिनार अब कालकवलित हो गया है। चिनार शीतोष्ण जलवायु में विकास पाता है। इसकी कलम भी लगती है और बीज भी। रोपने के बाद, चार-पाँच वर्षों तक इसकी काफी देख-रेख करनी पड़ती है। पर इस अवधि के बाद, इसकी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देना पड़ता। कई ऊष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में भी चिनार के वृक्ष लगाये गये हैं। पर यहाँ ये उतने पनप नहीं पाये हैं जितने कि शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में पनपते। नवम्बर-दिसम्बर में चिनार के पत्ते झड़ जाते हैं और पूरे शीत काल में चिनार निर्वसन ही रहता है। इसकी टहनियों में अप्रैल-मई में नये पत्ते लगने आरम्भ हो जाते हैं। कश्मीर में यह बात बहुत प्रचलित है कि जब चिनार के नये पत्ते हंसों जितने बड़े हो जाते हैं तो इनसे गुज़र कर आने वाली हवा क्षय रोग को समाप्त करती है। हंस के पंजे जितना आकार पाने पर सम्भवत: चिनार के पत्ते अधिक प्राणवायु छोड़ते होंगे, इसी कारण कश्मीर में उक्त बात प्रचलित होगी। बहुत कम लोग जानते होंगे कि चिनार में भी फूल लगते हैं। ये फूल इतने छोटे होते हैं कि लोग इनके अस्तित्व का नोटिस ही नहीं लेते। ये शताधिक नन्हे-नन्हे फूल मिलकर एक छोटी-सी गोली का रूप धारण करते हैं। ऐसी ही दो से छह तक गोलियाँ एक छोटी, पतली नाजुक - सी टहनी से गुच्छों के रूप में लगी होती हैं। वनस्पतिशास्त्रियों के कथनानुसार नर तथा मादा फूल, अलग-अलग गुच्छों में अलग-अलग टहनियों में लटके होते हैं। इन नर तथा मादा फूलों का रंग क्रमशः पीला तथा हरा होता है। मादा पुष्प गुच्छों की अपेक्षा नर पुष्पों का गुच्छा अधिक सुकुमार होता है। नर फूलों के गुच्छे बसन्त में जल्दी झड़ जाते हैं, पर मादा फूलों के गुच्छे वृक्ष के साथ अधिक समय के लिए रहकर बीज तैयार करते हैं। चिनार के बीज बहुत हल्के और छोटे-छोटे होते हैं।
कश्मीर के हस्तशिल्प पर भी चिनार छाया हुआ है। यहाँ के विश्वप्रसिद्ध शॉलों पर चिनार के पत्ते काढ़े जाते हैं, जिससे शॉलों की खूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं । चिनार के पत्तों के डिज़ाइन वाले शॉलों का नाम ही 'चिनारदोर' रखा गया है। लकड़ी की खूबसूरत वस्तुएँ बनाने वाले, कालीन और नमदे बनाने वाले एवं पेपरमाशी आदि का काम करने वाले कारीगर अपने-अपने हाथ से बनाई हुई वस्तुओं पर बड़े चाव और फख्र से चिनार के पत्तों को उकेरते, बुनते - काढ़ते और चित्रित करते हैं। कश्मीरी भाषा में चिनार से प्रभावित कई मुहावरे विद्यमान हैं। कोई कठिन काम करना हो तो प्रायः कहा जाता है 'यि गव बोत्रि मुहुल तारुन' ।इसी प्रकार किसी के अत्यधिक मोटापे को रेखांकित करने के लिए मुहावरा है 'बोञि ग्वॅड़ ह्यू' (यानी चिनार के तने सरीखा ) । चिनार की लकड़ी से बहुत ही अच्छा प्लाईवुड बनता है। इसकी लकड़ी से बहुत सुन्दर तथा टिकाऊ मेज़-कुर्सियाँ बनाई जाती हैं। चिनार की लकड़ी ईंधन का काम भी देती है। इसकी लकड़ी ही नहीं, पत्ते भी काम में आते हैं। चिनार के पत्ते नवम्बर-दिसम्बर में जब शाखों से झड़ जाते हैं तो ये कुरकुरे बादामी रंग के पत्ते हज़ारों लोगों को शीतकालीन जानलेवा ठण्ड से बचाते हैं। झड़े हुए सूखे पत्तों को एकत्रित कर, आग लगा कोयले बनाये जाते हैं। चिनार के पत्तों के कोयले से भरी हुई काँगड़ी जाड़ों में किसी भी कश्मीरी के लिए वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर पाये गये सुख से कम नहीं होती।
—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—
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