- राग, रस और परंपरा का संगम — सावन की एक सांस्कृतिक संध्या
- भारतीय मानसून परंपराओं को समर्पित, सुरों और सांस्कृतिक स्मृतियों से सजी एक भावभीनी प्रस्तुति
सावन कार्यक्रम पर अपने विचार रखते हुए मालिनी अवस्थी ने कहा , “वर्षा का आगमन, धरती ही नहीं, हम सबके तन मन में आशा उमंग और प्रसन्नता लेकर आता है, मैं आपके लिए ल रही हूं "सावन", सावन के महीने में बरसने वाले आनंद की संगीतमय अभिव्यक्ति! संगीत ने सदा प्रकृति से प्रेरणा ली है, इसीलिए वर्षा को उत्सव के रूप में मानने जाने की परंपरा है। मौसम में आकाश में घिरे बादलों की रिमझिम बूंदाबांदी के बीच नहाए हुए वृक्ष, नाचते मयूर कुहुकते पंछी, हरियाए खेत खलिहान ताल नदियां, सब कुछ मोहित कर देने वाला होता है। ऐसे में गाय जाने वाले राग रागिनी मल्हार हो या ठुमरी कजरी झूला सावनी ऐसे कर्णप्रिय रस छंद सावन के श्रृंगार हैं। ये गीत हमारी सामूहिक स्मृति को प्रतिध्वनित करते हैं जो पीढ़ियों को जोड़ती है। तेजी से शहरीकरण और पारंपरिक जीवन से बढ़ती दूरी के युग में, हमारी धरोहर को संजोने की अपूर्व आवश्यकता है और "सावन" ऐसी ही विशिष्ट प्रस्तुति है जो मैने बहुत मन से आप सबके लिए तैयार की है। आइए सावन के साथ मनाए सावन”। अवध और बनारस की समृद्ध सांगीतिक परंपरा में रची-बसी पद्मश्री मालिनी अवस्थी भारत की क्षेत्रीय लोक संगीत विरासत की एक सशक्त संवाहिका हैं। उनकी प्रस्तुतियाँ केवल गीत नहीं होतीं, बल्कि लोककथा, भावना और भूगोल का संगम होती हैं — जहाँ स्वर, शब्द और स्मृति मिलकर एक ऐसा सांस्कृतिक संसार रचते हैं जो दर्शकों के हृदय में गहराई तक उतर जाता है। अपने मूल स्वरूप में ‘सावन’ भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का एक उत्सव है। जब आधुनिक जीवन की रफ्तार तेज़ होती जा रही है और डिजिटल संस्कृति हमें अपनी परंपराओं से दूर करती जा रही है, ऐसे समय में यह संगीतमय संध्या हमें यह सार्थक स्मरण कराती है कि हम कौन हैं और हमारे सांस्कृतिक मूल कहाँ हैं। प्रेम, विरह और प्रकृति की संपन्नता से जुड़ी पारंपरिक ऋतुगीतों को पुनर्जीवित करते हुए मालिनी अवस्थी की यह प्रस्तुति पीढ़ियों के बीच संवाद का सेतु बन जाती है। यह संगीतमय अनुभव युवा श्रोताओं को उनकी सांस्कृतिक पहचान, अपनी जड़ों से जुड़ाव और परंपरा से उपजी दृढ़ता की गहरी अनुभूति कराता है — एक ऐसी विरासत के माध्यम से, जो समय के साथ न होकर समय से परे है।
जब समय बदल रहा है, तब 'सावन' की यह सांस्कृतिक पुकार क्यों है और भी ज़रूरी
तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण, जलवायु संकट और सांस्कृतिक क्षरण के इस दौर में, ‘सावन’ एक समयानुकूल और संवेदनशील सांस्कृतिक हस्तक्षेप के रूप में सामने आता है। आज का युवा लोक परंपराओं, ऋतु ज्ञान और मौखिक कथाओं से लगातार दूर होता जा रहा है। ‘सावन’ उस टूटी कड़ी को फिर से जोड़ने का प्रयास है — यह स्मरण कराते हुए कि लोक संगीत कोई अतीत की वस्तु नहीं, बल्कि हमारी जीवंत पहचान और सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिंब है। यह आत्मीय संध्या दर्शकों को आमंत्रित करती है कि वे भारत की समृद्ध संगीतमय विरासत और प्रकृति व मानवीय अभिव्यक्ति के गहरे संबंध को फिर से महसूस करें।

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