आश्विन मास की अंतिम संध्या, जब आकाश में चंद्रमा का कोई अंश नहीं बचता, हवा में एक अद्भुत निस्तब्धता घुल जाती है। यही वह क्षण है, जब धरती और पितृलोक के बीच की अदृश्य डोर सबसे निकट आती है। इस वर्ष यह पवित्र रात्रि रविवार, 21 सितंबर को उतरेगी, जिसे हम सर्वपितृ अमावस्या, बड़मावस, दर्श अमावस्या और पितृ विसर्जन अमावस्या के नाम से जानते हैं। पंचांग बताता है कि अमावस्या तिथि 20 सितंबर की रात 12ः16 बजे से प्रारंभ होकर 21 सितंबर की रात 1ः23 बजे तक रहेगी। इस अवधि में शुभ, शुक्ल, सर्वार्थ सिद्धि और शिववास जैसे अद्भुत योग भी बन रहे हैं, मानो ब्रह्मांड स्वयं पितरों के आह्वान में दीपशिखा बनकर खड़ा हो। पंद्रह दिन तक चला पितृपक्ष इसी रात्रि में पूर्ण होता है। ज्ञात-अज्ञात सभी पूर्वजों की स्मृति में दीप जलाने का यह अवसर है। वे पितर, जिनके नाम तक समय की धूल में छिप गए, इस दिन हमारे आंगन में उतर आते हैं। विधिवत तर्पण और पिंडदान के माध्यम से हम उन्हें तृप्त करते हैं, और वे हमें आशीर्वाद देकर अपने लोक लौट जाते हैं
अनुष्ठान : तिल, तर्पण और दीप की पावन यात्रा
सुबह ब्रह्ममुहूर्त में गंगा या किसी पवित्र जल में स्नान कर सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। इसके बाद तिल, कुश और शुद्ध जल से पितरों का आह्वान किया जाता है। पिंडदानः चावल, तिल और घी से बने पिंड पवित्र नदी में अर्पित कर पूर्वजों की आत्मा का पोषण किया जाता है। दीपदानः संध्या समय घर के मुख्य द्वार पर तिल का तेल या घी का दीपक जलाना मानो अंधकार में स्मृति का उजास बिखेरना है। दान-पुण्यः ब्राह्मणों को भोजन कराना, गरीबों को अन्न और वस्त्र देना, पशु-पक्षियों को आहार अर्पित करनाकृयह सब कर्म उस कृतज्ञता को मूर्त रूप देते हैं जो शब्दों में नहीं कही जा सकती। ये अनुष्ठान केवल परंपरा नहीं, बल्कि जीवन के उन अदृश्य ऋणों को मान्यता देने का तरीका हैं, जिन्हें हम जन्म से अपने साथ लाते हैंकृदेव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण।गंगा की लहरों पर बहती कृतज्ञता
सांझ ढले जब घाटों पर दीपों की कतारें सजती हैं, गंगा की लहरें सुनहरे प्रतिबिंबों से झिलमिलाती हैं। हर दीप मानो किसी पूर्वज की स्मृति बनकर जलता है, हर तिलकण जैसे पीढ़ियों का प्रेम समेटे बहता है। मंत्रोच्चार की गूंज में हमें यह अनुभूति होती है कि हमारे पितर आज भी हमारे साथ हैं, अनदेखे परन्तु सर्वव्यापक। गरुड़ पुराण कहता है कि इस दिन का तर्पण पूर्वजों को तृप्त कर वंशजों को दीर्घायु, समृद्धि और सुख-शांति का वरदान देता है। घर-परिवार में रोग, दोष और राहु की बाधाएं शांत होती हैं। यह केवल अदृश्य आशीष नहीं, बल्कि उस आंतरिक बल का संचार है जो पीढ़ियों को जोड़ता और जीवन को दिशा देता है।
शुभ तिथियां एवं मुहूर्त
अमावस्या तिथि प्रारम्भः 21 सितंबर 2025 रात 12ः16 बजे से
अमावस्या तिथि समाप्तः 22 सितंबर 2025 रात 1ः23 बजे
कुतुप मुहूर्तः सुबह 11ः50 से दोपहर 12ः38 तक
रौहिण मुहूर्तः दोपहर 12ः38 से 1ः27 बजे तक
योग - संयोग
इस दिन “सर्वपितृ अमावस्या” होने के कारण यह पितृपक्ष का अंतिम दिन है, जब सभी ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण किया जाता है।
पितृपक्ष के स्वप्न : पूर्वजों की आहट या मन की प्रतिध्वनि
सर्वपितृ अमावस्या हमें सिखाती है कि हमारा अस्तित्व केवल आज की धड़कन में नहीं बसता। हमारी नसों में सदियों का इतिहास बह रहा है, पूर्वजों की तपस्या, उनके सपनों और संघर्षों का अमृत। इस रात्रि का अंधकार हमें अपनी जड़ों को स्पर्श करने और भविष्य को संवारने का अवसर देता है। जब अमावस्या यही तो है, स्मरण, श्रद्धा और शाश्वत संबंध का महापर्व; जहाँ अतीत की पगडंडी वर्तमान को आलोकित कर भविष्य की राह दिखाती है।
महालया अमावस्य
आश्विन मास की काली रात में जब चंद्रमा का अंश भी शेष नहीं रहता, तब आकाश में फैलने वाली गहन निस्तब्धता एक अद्भुत लोक-आह्वान रचती है। यही है महालया अमावस्या, वह क्षण जब स्मृतियों के दीपक जल उठते हैं और समूचा संसार अपने पूर्वजों की ओर नमन में झुक जाता है। पंचांग के अनुसार यह पर्व रविवार, 21 सितंबर 2025 को अपना प्रभाव फैलाएगा। यह वही काल है जब सूक्ष्म और स्थूल, दोनों लोकों के बीच की अदृश्य डोर और भी अधिक कोमल और संवेदनशील हो उठती है।
पितृ-प्रीति का उत्सव
महालया केवल अमावस्या नहीं, यह सर्वपितृ अमावस्या, देवपितृकार्य अमावस्या भी है। किंवदंती है कि इस दिन हमारे पूर्वज, वे जो हमारी नसों में बहती स्मृतियों की तरह जीवित हैं, पृथ्वी लोक पर उतरते हैं। विधिपूर्वक श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान से उन्हें तृप्त करने का अर्थ केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पीढ़ियों की उस अमर श्रृंखला को स्पर्श करना है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है। गंगाजल में स्नान, तिलांजलि का अर्पण, ब्राह्मण और अन्नहीन जनों को दानकृये सब उस शाश्वत संवाद के प्रतीक हैं, जहाँ भक्ति और कृतज्ञता का संगीत बहता है। महालया की रात्रि शारदीय नवरात्र का भी उद्घोष करती है। यही वह क्षण है जब देवी दुर्गा के आगमन की आहट वायुमंडल में सुनाई देने लगती है। पितरों का आशीर्वाद पाकर जब नवरात्र के दीप प्रज्वलित होते हैं, तब भक्त और देव, दोनों ही एक नए उत्सव का स्वागत करते हैं।
जीवन का संदेश
महालया अमावस्या हमें स्मरण कराती है कि जीवन केवल वर्तमान का उपभोग नहीं, अतीत के प्रति कृतज्ञता और भविष्य के प्रति संकल्प है। अपने पूर्वजों का आह्वान करना, उनका आशीष लेनाकृयह हमारे अस्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है. कहते हैजब 21 सितंबर की अमावस्या रात उतर रही होगी, तब कोई दीपक जलाएँ और आँखें मूँद लें। आप पाएँगे कि आपके चारों ओर एक अदृश्य वंशवृक्ष खड़ा हैकृउसकी जड़ों में आपका अतीत, शाखाओं में आपका भविष्य और उस वृक्ष के तले आपका वर्तमान। यही है महालया अमावस्या का वास्तविक महात्म्यकृस्मरण, श्रद्धा और शाश्वत संबंध का पर्व।तिल, तर्पण और दीप की ज्योति में अमर हो जाती है पूर्वजों की स्मृति.
गंगा की लहरों पर बहती कृतज्ञता
शरद की संध्या जब गंगा के घाटों पर दीपक टिमटिमाने लगते हैं, आकाश में पितृपक्ष का शीतल चंद्र उदित होता है। यही वह समय है जब हम अपने पुरखों को स्मरण करते हैं, अर्पण, तर्पण और श्राद्ध के मंत्रों से। इसी काल में कई बार नींद के भीतरी आकाश में कोई परिचित चेहरा झिलमिला उठता है। सपने में माँ की ममता, पिता का स्नेह, दादा की छवि३ मानो अदृश्य लोक से कोई संवाद रच रहा हो। शास्त्र कहते हैं, पितृपक्ष वह पावन पखवाड़ा है जब पूर्वज धरती पर अपने वंशजों का आशीर्वाद देने आते हैं। स्वप्न में उनका प्रकट होना केवल दृश्य नहीं, एक दिव्य संदेश है। कभी यह तृप्ति का आशीर्वाद होता है, तो कभी किसी अधूरे संस्कार का स्मरण। कोई भूला हुआ दान, कोई छूटा हुआ संकल्प, शायद वे हमें पुकार रहे हों कि अपनी जड़ों को याद रखो, परंपरा का ऋण चुकाओ।
स्मृतियों की लहरें
परंपरा के परे भी एक मन है, जो अपनी गहराई में सब संजोए रखता है। पितृपक्ष के दिन वही मन अतीत को अधिक तीव्रता से याद करता है। अनुष्ठानों की गूंज, धूप की गंध, गंगाजल की ठंडी छुअनकृसब मिलकर अवचेतन में चित्र उकेरते हैं। सपनों में प्रियजनों का आना इस भीतरी जगत की सहज प्रक्रिया है, हमारे भावनात्मक जुड़ाव का जीवंत प्रमाण।
श्राद्ध के दौरान पितरों के स्वप्न का सवाल
ऐसे स्वप्न भय नहीं, आशीर्वाद हैं। वे हमें आह्वान देते हैं कि हम श्राद्ध और तर्पण को श्रद्धा से निभाएँ, जरूरतमंदों को अन्न-वस्त्र दान दें, स्मृतियों को आदर से संजोएँ। यह समय केवल विधि का नहीं, कृतज्ञता का उत्सव हैकृजहाँ हम अपने पूर्वजों को धन्यवाद कहते हैं कि उन्होंने हमें जीवन की यह मशाल सौंपी। भोर से पहले पवित्र स्नान, ताज़े वस्त्र, सात्विक पकवान, फिर तिल मिश्रित जल का अर्पण, घर की चौखट पर सरसों के तेल के चार दीपक है. ये सभी क्रियाएँ केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि कृतज्ञता के प्रतीक हैं। ब्रह्म पुराण में कहा गया हैकृ“जो वस्तु उचित काल व स्थान पर पितरों को अर्पित की जाए, वही श्राद्ध कहलाता है।”
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी



कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें