विशेष आलेख : लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसर सीमित हो जाते हैं - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

विशेष आलेख : लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसर सीमित हो जाते हैं

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उत्तराखंड का बागेश्वर ज़िला पहाड़ों की गोद में बसा हुआ वह क्षेत्र है, जहां प्रकृति की सुंदरता के साथ जीवन की कठिनाइयाँ भी उतनी ही गहराई से मौजूद हैं। यहाँ के गाँव जैसे गरुड़ ब्लॉक के अंतर्गत आने वाला गनीगांव दिखने में शांत लगते हैं, लेकिन इन गाँवों की किशोरियाँ रोज़ ऐसे फैसलों और दबावों के बीच जीती हैं, जो उनके बचपन, पढ़ाई और भविष्य को तय कर देते हैं। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि बागेश्वर जिले की महिला साक्षरता दर 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 86 प्रतिशत थी, जो उत्तराखंड के कई अन्य जिलों की तुलना में बेहतर मानी जाती है। लेकिन यह प्रतिशत जमीनी सच्चाई का पूरा सच नहीं बताता। काग़ज़ों में साक्षरता का अर्थ सिर्फ़ नाम लिखना या पढ़ लेना नहीं होता। असली सवाल यह है कि कितनी लड़कियां पढ़ाई पूरी कर पाती हैं, कितनी आगे बढ़ पाती हैं और कितनी को अपने जीवन के फैसले खुद लेने का अवसर मिलता है। NFHS-5 (2019–21) के अनुसार बागेश्वर में लगभग 52 प्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं जिन्होंने 10 वर्ष या उससे अधिक शिक्षा पूरी की है। इसका अर्थ है कि लगभग आधी लड़कियाँ और महिलाएँ दसवीं के बाद पढ़ाई से बाहर हो जाती हैं। यह वही उम्र होती है, जहाँ जीवन की दिशा तय होती है।


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गनीगांव की 19 वर्षीय दीपा लिंगड़िया कहती हैं “हमारे घर में पाँच बहनें हैं। पापा अकेले खेती और मज़दूरी करते हैं। पढ़ाई का खर्च उठाना बहुत मुश्किल था। किताबें, कॉपी, ड्रेस सब कुछ बोझ लगता था। मेरी दो बहनों की शादी 18 साल में ही कर दी गई।” दीपा की आवाज़ में शिकायत कम, मजबूरी ज्यादा है। वह यह भी कहती हैं कि पढ़ाई छोड़ने का फैसला अचानक नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीरे हालात ने यही रास्ता दिखाया। जब किसी परिवार की आमदनी सीमित हो, तो प्राथमिकताएँ भी सीमित हो जाती हैं। पहाड़ी इलाकों में रोजगार के अवसर पहले ही कम हैं। पुरुषों का पलायन आम बात है और जो रह जाते हैं, वे खेती या दिहाड़ी पर निर्भर रहते हैं। ऐसे में घर की लड़कियों की पढ़ाई अक्सर “अतिरिक्त खर्च” के रूप में देखी जाने लगती है। यूडीआईएसई प्लस के आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले दस वर्षों में प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन बेहतर हुआ है, लेकिन माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट की समस्या अब भी बनी हुई है, खासकर ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में।


19 वर्षीय कविता रावल बताती हैं “जब तक स्कूल चल रहा था, सब ठीक था। 12वीं के बाद घर बैठी तो हर कोई पूछने लगा कि अब क्या करेगी। फिर रिश्तों की बात शुरू हो गई।” कविता की इस बात साफ झलकता है कि समाज में पढ़ाई को केवल एक सीमा तक ही स्वीकार किया जाता है। उसके बाद लड़की से अपेक्षा की जाती है कि वह अगले चरण यानी शादी के बंधन में बंध जाए, चाहे इसके लिए वह तैयार भी है या नहीं। यह स्थिति केवल किशोरियों तक सीमित नहीं है। 29 वर्षीय उमा देवी कहती हैं “हमारे यहाँ 18-19 साल में लड़के या लड़कियों की शादी होना अब भी बहुत सामान्य है। लोग इसे गलत नहीं मानते। अगर घर में स्थायी आमदनी हो, तो माता-पिता शायद बेटियों को और समय दे सकें।” उमा देवी की बात यह दर्शाती है कि सोच में बदलाव की इच्छा तो है, लेकिन आर्थिक असुरक्षा उस बदलाव को रोक देती है। बागेश्वर जिले में महिलाओं की साक्षरता दर राज्य के औसत से बेहतर होने के बावजूद, आर्थिक भागीदारी बहुत कम है। एनएसएसओ और राज्य स्तरीय रिपोर्टों के अनुसार उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी लगातार घट रही है। इसका सीधा असर यह होता है कि परिवार में निर्णय लेने की शक्ति भी सीमित रह जाती है। जब लड़की आर्थिक रूप से निर्भर होती है, तो उसकी आवाज़ भी कमजोर पड़ जाती है। 48 वर्षीय इंद्रा देवी, जिनकी चार बेटियाँ हैं, अपनी ज़िंदगी के फैसलों को याद करते हुए कहती हैं “रिश्ते आते थे और हम मना नहीं कर पाते थे। हालात ऐसे थे कि बेटी भी ज़्यादा कुछ नहीं कहती थी। वह समझती थी कि घर की हालत ठीक नहीं है।” इंद्रा देवी की यह बात दिखाती है कि कई बार चुप्पी सहमति नहीं, बल्कि महिलाओं की मज़बूरी होती है।


इस पूरे परिदृश्य में यह समझना ज़रूरी है कि कम उम्र में शादी केवल एक सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि आर्थिक दबाव और अवसरों की कमी का परिणाम है। जब किसी लड़की के सामने पढ़ाई के बाद न तो नौकरी का रास्ता दिखता है और न ही कौशल प्रशिक्षण का, तो परिवार को लगता है कि शादी ही सबसे सुरक्षित विकल्प है। लेकिन यह सुरक्षा अक्सर लड़की की आकांक्षाओं की कीमत पर आती है। पिछले कई वर्षों से बागेश्वर के ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरी सशक्तिकरण पर काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी कहती हैं “ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शादी आज भी समाधान की तरह देखी जाती है। गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा के बाद विकल्पों की कमी इस सोच को मजबूत करती है।” उनका अनुभव बताता है कि यह समस्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पूरे सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई है। पिछले कुछ वर्षों में सरकार द्वारा किताबें, छात्रवृत्ति, साइकिल और स्कूल सुविधा देने से शुरुआती शिक्षा तक पहुँच ज़रूर बेहतर हुई है। लेकिन माध्यमिक शिक्षा के बाद का खालीपन अब भी बना हुआ है। नीलम कहती हैं कि बागेश्वर जैसे ज़िलों में आज भी स्थानीय स्तर पर ऐसा कोई रोजगार आधारित प्रशिक्षण केंद्र नहीं है, जहां किशोरियां प्रशिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन सकें. परिणामस्वरूप, किशोरियाँ पढ़ाई के बाद घर तक सीमित रह जाती हैं।


यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब लड़कियां घर पर रहती हैं, तो उनसे घरेलू कामों की अपेक्षा बढ़ जाती है। धीरे-धीरे उनकी पहचान एक छात्रा से घर का काम करने वाली लड़की मात्र में बदल जाती है। यह बदलाव चुपचाप होता है, लेकिन बहुत गहरा असर छोड़ता है। फिर भी, इन पहाड़ियों में उम्मीद पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। कई किशोरियाँ अब सवाल पूछ रही हैं, अपने भविष्य को लेकर गंभीरता से सोच रही हैं और पढ़ाई को केवल डिग्री नहीं, बल्कि आगे बढ़ने और अपने पैरों पर खड़ा होने का रास्ता मान रही हैं। जब उन्हें सही मार्गदर्शन, आर्थिक सहारा और परिवार का भरोसा मिलता है, तो वे आगे बढ़ने की हिम्मत भी जुटा पाती हैं। वास्तव में, बागेश्वर की किशोरियों का संघर्ष सिर्फ़ आँकड़ों की कहानी नहीं है। यह कहानी है सपनों और सीमाओं के टकराव की, इच्छाओं और हालात के संघर्ष की। यदि शिक्षा के साथ-साथ रोजगार, कौशल और सुरक्षा के अवसर मजबूत किए जाएँ, तो ये पहाड़ सिर्फ़ सुंदर नहीं, बल्कि बराबरी और सम्मान से भरे भविष्य के साक्षी भी बन सकते हैं।







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पूजा

बागेश्वर, उत्तराखंड

टीम, गाँव की आवाज़

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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